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पुनर्पाठ की संभावनाएँ: महादेवी की काव्य रचना के सन्दर्भ में . . .

 

किसी भी भाषा में स्त्री को केन्द्र में रख कर रचे गए साहित्य के आकार और वज़न को मापना आसान नहीं काम है, क्यों कि ऐसे साहित्य की कल्पना ज़रा मुश्किल है, जहाँ स्त्री की उपस्थिति किसी भी रूप में न हो। भारतीय परिवेश में जहाँ एक ओर स्त्री के देवी या मातृ रूप को केन्द्र बना कर लिखा गया साहित्य बहुल है तो उसके अंग उपांगों के वर्णन के साथ उसे वस्तु के रूप में रचा गया साहित्य भी कम नहीं है। लेकिन यदि स्त्री द्वारा रचित साहित्य पर नज़र डाली जाए तो कम से कम कविता के क्षेत्र में अकाल की स्थिति आज भी बनी हुई है। विशेषतर हिन्दी साहित्य में मीरा के बाद महादेवी तक का सफ़र काफ़ी लम्बा किन्तु बेहद सूना रहा। स्त्री के भावजगत को इतना संकुचित भी नहीं माना जा सकता कि यह सोच लिया जाए कि इस बीच कविता रचना के क्षेत्र में कोई स्त्री सक्रिय नहीं हुई होगी। दरअसल स्त्री कविता लेखन को तब तक मान्यता नहीं मिलती जब तक कि वह दबंग औघड़पन से लोगों के सिर पर चढ़ कर ना बोलने लगे। मीरा को जितनी प्रताड़नाएँ मिलीं, उनका कारण मात्र उसका राजकीय परिवेश नहीं, बल्कि समाज की पौरुषेय निसृत मानसिकता भी है। जब कोई समाज किसी भी मानसिकता के आवरण को ओढ़ता है तो वह पूरा कि पूरा समाज उस आवरण के नीचे बिना किसी लिंग भेद के समा जाता है। यही कारण है कि मीरा का विरोध पारिवारिक विरोध ना होकर सामाजिक था। लेकिन उसी समाज में एक ऐसा तत्त्व भी होता है, जो इस मानसिकता से मुक्त होता है। यहाँ भी लिंग भेद की अपेक्षा मानसिकता महत्त्वपूर्ण होती है। मीरा के बाद महादेवी का काव्य इस स्तर का था, जिसे नकारना विशिष्ट मानसिकता के लिए भी कठिन था। क्यों कि महादेवी में भी मीरा की सी बेबाकी और उन्मुक्तता थी, जिसके प्रवाह को पूरी तरह ख़ारिज करना सम्भव ही नहीं था। 

समाज में में श्लील और अश्लील के नाम पर जो कसौटियाँ रखी गई हैं वे भी कम विचित्र नहीं, पुरुष रचित रचना में स्त्री के ऐसे अंग उपांगों का वर्णन, जिन्हें समाज खोलने की आज़ादी नहीं देता, काव्य की कसौटी पर उत्तम काव्य माना जाता है, किन्तु किसी स्त्री का नैसर्गिक भावनाओं को खुल कर बयान करना स्वीकृत नहीं हो पाता है। यद्यपि वे स्त्री स्वर ही इस मानसिकता को उलाँघ पाए जिन्होंने इस मानसिकता के विरुद्ध जिहाद सा छेड़ दिया। ललद्यद, हब्बाखातून, अरुणिमाल, अक्का, महादेवी, रूप भवानी आदि नाम इस मानसिकता के ख़िलाफ़ तीव्र आवाज़ के रूप में उभरे। इन सब स्वरों में जो बेबाकी थी, उसे नकारना सम्भव भी नहीं था। यहाँ पर समाज पर हावी मानसिकता दूसरी तरह से काम करना आरंभ कर देती है, वह बेबाकी और खुलेपन को शक्ति का नाम देती हुई एक ऐसी जगह स्थापित कर देती है जहाँ से ये सभी स्वर दूसरे लोक के दिखाई देने लगते हैं। लोक को अलौकिक बनाने का यह अभियान हर युग हर काल में चलता रहा है। इसका परिणाम यह होता है कि ये स्वर अपना प्रभाव तो नहीं खोते किन्तु अपने भावनात्मक संसार का निर्माण नहीं कर पाते। इन स्वरों कि प्रतिध्वनि नहीं सुनाई देती। मीरा, जयदेव और महादेवी के काव्य कृत को इसी तरह की मानसिक प्रवृत्ति के तहत एक विचित्र तरह की क़ैद दे दी गई। समाज में प्रवेश पाने के लिए इन साहित्यिक चेष्टाओं को पीछे का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा, यह था भक्ति और दर्शन का जो इन भावनाओं के लिए हमेंशा से एक आच्छादक का काम करते रहे हैं। जितना साहित्य ने देह को केन्द्रित किया, उतना ही समाज ने देह व्यापारों को नकारा है। यही कारण है कि शृंगार रस साहित्य में प्रमुखता रखते हुए भी समाज में खुले तौर पर स्वीकारा नहीं गया। लेकिन उसे किसी और जामा पहनकर प्रवेश की अनुमति मिल गई। ये जामें थे, भक्ति और दर्शन। वेदों के सहज भावों को दर्शन और रहस्य में जोड़ने के पीछे भी यही मानसिकता काम करती रही। गीतगोविन्द को मन्दिरों में बड़े प्रेम से गाया जाता रहा है, बिना उसके कामुक चित्रणों की परवाह किए, क्योंकि उन्हें भक्ति की चाशनी में पका लिया गया होता है। यह एक तरह से सामाजिक पलायन है जिसमें पूरा कि पूरा समाज यथार्थ से आँखें चुराता हुआ स्वप्निल संसार में विचरण कर रहा होता है। 

मीरा की भक्ति में उत्कटता व खुलापन था, वह कहीं न कहीं समाज का विरोध भी था, उसके आतंक से छुटकारा पाने का मार्ग भी था। सच कहा जाए तो मीरा की भावना सामान्य भक्ति की अपेक्षा सामाजिक मर्यादाओं पर किए गए अत्याचारों का विरोध था। सामान्यतया नारी भक्ति को अपने जीवन से इतना जोड़ लेती है कि उसके लिए उसे समाज के विरोध में खड़े होने की आवश्यकता नहीं पड़ती है, किन्तु मीरा ने सामाजिक मान्यताओं के उलंघन और भक्ति को समान्तर रूप में अपनाया। 

अब हम सीधे-सीधे महादेवी की कृतियों को केन्द्रित करें तो हम पाते हैं कि महादेवी का रचना क्रम दो समानान्तर धाराओं में चल रहा है, एक धारा वह है जहाँ वे समाज के साथ बकायदा चल रही हैं, अपने आसपास घटित हर सत्य असत्य के केन्द्र में से गुज़रती हुई ज़िन्दगी की हर छोटी बड़ी घटना से जुड़ते हुए, हर पात्र कुपात्र को उकेरती हुई। वे स्मृति के घटाटोप से हर एक ऐसे क्षण को ले आती हैं, जो समाज के सम्मुख कुछ ना कुछ प्रकट कर पाने में सक्षम है। वे समाज की सीवन को बड़ी सावधानी से खोलती जाती हैं। महादेवी के बाल्यकाल की स्मृतियाँ हमें एक ऐसी बालिका से साक्षात्कार कराती हैं जो सामान्य बच्चों की तरह ही शरारती, उधमी और भावुक थी। निक्की रोज़ी और रानी में जिस तरह से खिड़की से कूद कर जंगलों में भाग कर खेलने का वर्णन है, वह किसी भी बालोचित चंचलता के विरुद्ध नहीं है। वहाँ किसी भी तरह की कृत्तिम आलौकिकता का प्रवेश नहीं है। यहाँ जो बेफ़िक्री है, वह सहज ज़िन्दगी का परिणाम है। बुद्धिमती चंचल बालिका का व्यक्तित्व किसी भी तरह की ग्रन्थि से बद्ध नहीं रहा, तो फिर ऐसा क्या कि वे भी मीरा की तरह समाज के दिए विवाह बँधन को नकारती हुई प्रेम के गीतों को गाने लगीं। दरअसल विवाह को नकारना महादेवी के किसी पूर्वाग्रह का परिणाम नहीं बल्कि उस जाग्रत मानसिकता का परिणाम था जो समाज से यह कहना चाहती थी कि मेरी भावनाएँ सिर्फ़ मेरी हैं, मेरेे विचार बस मेरेे हैं, मेरी देह भी बस मेरी है, उन पर तुम लोगों का अधिकार नहीं, बल्कि मुझे स्वयं अपना रास्ता तलाशना है। सामान्यतया उस काल की नारियाँ विवाह बन्धन को समाज का प्रसाद समझ कर स्वीकार तो कर लेती थीं, किन्तु उसी बन्धन में से कोई रास्ता तलाशती थीं, जब कि महादेवी वर्मा के साथ ऐसा नहीं हुआ। उनके विचार बड़े स्पष्ट थे, जिस सम्बन्ध को मैंने अपने होश हवास में नहीं स्वीकारा उसे ज़िन्दगी भर के लिए कैसे अपना लूँ। और उसी स्पष्टता से उन्होंने नकार भी दिया। विवाह के बन्धन को नकारना प्रेम की भावना को नकारना नहीं हैं। वह नन्ही बच्ची जो अपने पड़ोसी के घर में छज्जे के रास्ते से उतर कर यह कहने में नहीं हिचकती कि हम आपके बग़ीचे से गुलाब चोरी करने आए हैं, समाज से भला कैसे भयभीत होगी! यही कारण है कि महादेवी ने समाज के सामने विवाह जैसे बन्धन को यह कहते हुए नकार दिया कि मुझे तो पता नहीं कि मेरा विवाह कब हुआ, तो उस तेजस्विता के सामने झुकने के सिवाय समाज के सामने कोई चारा नहीं था। यही नहीं जब उन्होंने कविता में प्रेम भाव को केन्द्र में रखा तो इस कड़वी गोली को निगलना समाज के लिए काफ़ी मुश्किल हो गया, इस स्थिति में वही हुआ, जो हमेशा से हुआ करता है। प्रेम को दर्शन के महीन रेशम से ढक दिया गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि महादेवी के प्रेम में उदात्त भाव था। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि यह प्रेम पूर्णतया अलौकिक था। नहीं तो प्रेम में वह उत्कटता सम्भव ही नहीं थी जो उनकी कविताओं में है चाहता है यह पागल प्यार/अनोखा एक नया संसार! /कलियों के उच्छ्वास शून्य में ताने एक वितान। /तुहिनकणों पर मृदु कम्पन से सेज बिछा दें गान।/ जहाँ सपने हों पहरेदार, /अनोखा एक नया संसार! . . . यह बात ज़रूर है कि यहाँ पर जो प्रेम की तीव्रता है वह सामान्य भौतिक प्रेम से कही ज़्यादा है। इसमें भौतिक या दैहिक तृप्त की अपेक्षा मानसिक प्रेम का उल्लेख है, लेकिन यही तो अन्तर है सामान्य व्यक्ति और साहित्यिक मन में। लेकिन इसका यह भी तात्पर्य नहीं कि यहाँ भौतिक प्रेम को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया गया है। दरअसल कोई भी भावना केवल स्वप्नों पर पल नहीं सकती, स्वप्न उनका आधार होते हैं किन्तु स्वप्न भी भौतिक स्थिति रखते हैं। प्यार की उत्कटता स्वप्न जीवी होती है, जो मात्र भौतिक सम्बन्धों से सन्तुष्ट नहीं हो सकती। साहित्यिक मन प्राप्ति के स्थान पर अप्राप्ति से ज़्यादा प्रभावित होता है, यही कारण है कि साहित्यमान सदैव एकाकी होता है जिसे प्रायः दैविक एकान्त मान लिया जाता है, यह एकान्त और अकेलापन इतना भयावह होता है कि वह इससे छुटकारा पाने के लिए सदैव रचना शील रहता है। इस तरह अकेलापन और रचना शीलता एक दूसरे के पर्याय बन जाते हैं। यह रचनाकार की जन्मजात प्रतिभा है जिसे अलौकिक प्रतिभा मान लिया जाता है। जब महादेवी लिखतीं हैं कि . . . जो तुम आ जाते एक बार/कितनी करुणा कितने संदेश/पथ में बिछ जाते बन पराग।/गाता प्राणों का तार तार/अनुराग भरा उन्माद राग।/आँसू लेते वे पद निखार!/हँस उठते पल में आर्द्र नयन/धुल जाता होंठों से निषाद।/छा जाता जीवन में वसन्त।/लुट जाता चिरसंचित विराग।/आँखें देती सर्वस्व वार! तो वे भौतिक सम्बन्धों को, राग विरागों को कही भी नहीं नकार रही है, वस्तुतः नकार भी नहीं सकतीं। वे उन्हीं का अवलम्बन लेकर अपने एकान्त या शून्यता को अभिव्यक्त कर रही हैं। इसमें भी सन्देह नहीं कि कहीं कहीं कवयित्री उस परम सत्ता को बड़ी स्पष्टता से स्वीकार कर रही हैं। क्या पूजा क्या अर्चन रे?/उस असीम का सुन्दर मन्दिर मेरा लघुतम जीवन रे!/मेरी श्वासें करती रहतीं नित प्रिय का अभिनन्दन रे!/रज को धोने उमड़े आते लोचन में जलकण रे!/अक्षत पुलकित रोम, मधुर मेरी पीड़ा का चन्दन रे! . . . इन पंक्तियों में दृष्टव्य दैविक प्रेम भी रहस्यात्मक तो किसी तरह से नहीं माना जा सकता है। यानी कि महादेवी का प्रेम रहस्यात्मक था ही नहीं, वह पूर्णतया दैहिक भी नहीं, किन्तु दैहिक सम्बन्ध की प्रमुखता होती तो लगातार वेदना की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। सदा विरह कही ना कही संयोग को अभिव्यक्त करता। 

सवाल यह नहीं कि प्रेम का आधार कौन है और क्या है, कवि में कल्पना का संसार रचने की अद्भुत शक्ति होती है। वे निमिष को ब्रह्माण्ड बना सकते हैं। किन्तु वह निमिष कहीं ना कहीं, किसी ना किसी रूप में भौतिक होता है। महादेवी जी की कविताओं में कोई चेहरा नज़र नहीं आता, यह सत्य है। वे मीरा के समान प्रेम को नाम नहीं दे रही हैं, उसे मोर मुकट से सज्जित नहीं कर रही हैं। यानी कि वे अपने प्रेम के प्रति अपेक्षाकृत ईमानदारी भी बरत रही हैं। लेकिन प्रेम की भावना पूर्णतया अलौकिक नहीं हो सकती। हाँ स्त्री में यह क्षमता होती है कि वह वह अभाव को भी पूर्ति का स्थान दे सकती है, यानी कि कभी-कभी अपनी भावनाओं को पूर्णतया अलौकिक बना डालती है। समाज जो कि इस तथ्य को स्वीकर कर पाने की क्षमता नहीं रखता कि स्त्री प्रेम करती है, उसे कोई ना कोई नाम दे देता है। केरल की प्रमुख कवयित्री बालामणियम्मा के साथ भी कुछ ऐसा हुआ। उन्हींने मातृत्व की कविताओं से यात्रा शुरू की, ये कविताएँ उस काल में रची जब वे मातृत्व को भोग नहीं रही थीं, किन्तु साहित्य व समाज इन्हें ही उनकी पहचान मानता रहा। उनकी अनेक कविताएँ प्रेम और स्त्रीत्व को प्रमुख बना कर रची गईं, लेकिन बाद में उन्होंने अनेक कविताएँ लिखीं जिनमें सामाजिक सरोकार प्रमुख था, किन्तु समाज व साहित्यिक जगत आँख मूँद कर उन्हें मातृत्व की कवयित्री मानता रहा। क्यों कि यही उनके कोष में साहित्यिक गरिमा थी। यही सब कुछ महादेवी जी के साथ होता रहा। इसमें आश्चर्य इतना ही है कि महादेवी ने इसका का विरोध क्यों नहीं किया, हो सकता है कि उन्होंने इस बात की चिन्ता ही नहीं की, यह भी हो सकता है कि कही न कही वे भी आश्वस्त थीं। 

जहाँ तक प्रेम भाव का सम्बन्ध है, उसको देह के बिना स्वीकारना सम्भव ही नहीं है। प्रेम का भौतिक अवलम्बन देह ही हो सकता है, यही नैसर्गिक सत्य है। यही कारण है कि भक्ति, जो कि ईश्वर तक पहुँचने का सहजतम मार्ग माना जाता है, प्रेम को सीधे सीधे स्वीकारती है, प्रेम में शृंगार से भी परहेज़ नहीं करती है। भारतीय मन्दिर वास्तुशास्त्र कामशास्त्र का उपांग रहा है, मन्दिर निर्माण की परम्परा में शृंगार सहज रूप में आता रहा है। 

नियम से बनाये गए मन्दिरों में किसी ना किसी भित्ती पर शृंगारिक चेष्टाओं को उकेरना प्रमुख कार्य रहा है। देश के ऐसे अनेक पारम्परिक मन्दिर हैं जिसमें कामसूत्र के विभिन्न आसनों को मन्दिर की प्रमुख भित्ती पर स्थान दिया गया है। अतः भक्ति आसानी से शृंगार को स्वीकार कर लेती है, वास्तविकता तो यह है कि वह ज़िन्दगी को नहीं नकारती। किन्तु ज़िन्दगी के सामने यह समस्या है कि वह अपने को किस तरह से प्रस्तुत करे। यही पर वह विभिन्न आश्रय लेती है। मन्दिरों तक में प्रेम को स्वीकार करने वाला भारतीय समाज ज़िन्दगी में कभी प्रेम को स्वीकर नहीं पाता। यहाँ वह विभिन्न उपाय खोजता है। 

महादेवी के काव्य का पाठ इसी मानसिकता के चलते होता रहा है, तभी उनके प्रेम को रहस्य की चादर ओढ़ा दी गई। यहाँ पर समस्या वक्ता की नहीं बल्कि द्रष्टा की है। द्रष्टा वही देखता है जो वह देखना चाहता है। कवि के रूप महादेवी अपनी कविता का पाठ स्वयं नहीं कर सकतीं, वे सिर्फ़ शब्द परोस देती हैं, भाव उनमें हैं, और काफ़ी व्यक्त भी किन्तु वे इस बात की चिन्ता नहीं करतीं कि उनका पाठ किस तरह हो। यह सब इसलिए कि वे सहज कवयित्री थीं, कविता उनकी सहज अभिव्यक्ति है, जहाँ पर कोई दुराव छिपाव नहीं। वे निर्देशित नहीं करती कि मेरी कविता को ऐसे पढ़ो या वैसे पढ़ो। अब यह पाठक की मानसिकता पर निर्भर करता है कि वह किस तरह से पाठ करे। यहाँ यह ज़रूरत नहीं कि उनकी कविताओं को मात्र दैहिक चाह मान लिया जाए, किन्तु यह भी ज़रूरी ही कि ठेठ अलौकिक मान लिया जाए। कविता कविता है, वह सहज रूप में पढ़ी जानी चाहिये। यहाँ पर मैं एक उल्लेख दे कर बात ख़त्म करना चाहती हूँ। वेब पर अनेक साइट चलती हैं जिनमें कविता पोस्ट होती है, या कविता के बारे जिज्ञासा होती है। उसमें एक बार किसी विदेशी छात्र का सवाल था जिसमें महादेवी जी की बाल्य काल की नन्ही कविता जिसमें वे चुहुल भरे शब्दों में यह कहती हैं कि माँ के लड्डू गोपाल इतने भोले हैं कि हम उनके हिस्से का लड्डू खा जाते हैं लेकिन वे कुछ नहीं बोलते हैं, अनुवाद करते हुए पूछ रहा था कि यह सही है कि नहीं। उस छात्र ने गोपाल को परम ईश्वर बताते हुए लड्डू को संसार और खाने को भोग आदि मानते हुए वर्णन किया। हाल में अध्यात्मिकता विदेश में फ़ैशन बन रही है। सम्भवतः यह रूमी की ग़ज़लों की प्रसिद्धि के कारण हो। इस चुहुल भरी कविता की इतनी भारी भरकम व्याख्या देखते ही मुझे हँसी आ गई, फिर सोचा कि इसमें छात्र की ग़लती, जबकि उसके सामने महादेवी को प्रस्तुत ही अलौकिक रूप में किया गया। अतः हमें सोचना है कि हम किस तरह से कविता का पाठ करें, जिस से कविता व कवि के प्रति न्याय हो, और हम सच से आँखें मिला सकें। 

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