राष्ट्रीय एकीकरण एवं सद्भावना में हिन्दी का योगदान
आलेख | साहित्यिक आलेख अनीता रेलन ‘प्रकृति’15 Nov 2022 (अंक: 217, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
इससे पूर्व कि हम विषय को रूपायित करें हमें राष्ट्र को पारिभाषित कर लेना चाहिए।
राष्ट्र: राष्ट्र से हमारा अभिप्राय–भाषा-जाति संस्कृति, इतिहास, सामान्य स्वार्थ आदि में अटूट एकता-युक्त जन समूह, प्रगति की ओर अनवरत प्रयत्नशील एकता की शृंखला में आबद्ध देश होता है, “राजा राष्ट्र विरक्षधिंति।” जिसे “वेलफ़ेयर स्टेट” भी कहा जा सकता है।
एक उत्तम राष्ट्र की पूर्णता के लिए समन्वय-सांमजस्य-समरसता अपेक्षित है। भारत का मनीषी ऐसे ही संतुलित राष्ट्र की कामना करता रहा है कामना करता रहेगा। राष्ट्र की उन्नति एवं एकता की भावना के लिए यह संदेश नितान्त ग्राह्य है कि हमें न केवल अपने समर्थक, सहयोगियों के लिए इस संदेश को प्रसारित करना है अपितु विरोधीजन के साथ भी मिलकर चलना होगा।
राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में एकीकरण तथा सद्भावना से अभिप्रायः
राजनैतिक व्यवस्था, सामाजिक एकता, समान भारतीय भावना, समान धर्म, समान भाषा, समान इतिहास। हमारे वेदों में भी प्रार्थनाएँ व्यक्तिगत न होकर सर्वथा सामूहिक हैं, पूरे मानव-समुदाय के लिए हैं, एक दूसरे की भावनाओं को समझने समायोजित करने और आत्मसात करने की दृढ़ इच्छा एवं शक्ति लिए।
राष्ट्रीयकरण एवं सद्भावना में आर्य–समाज, ब्रह्म समाज, सनातन धर्म सभा, रामकिशन मिशन जैसी संस्थाओं ने अपने-अपने तरीक़े से योगदान दिया।
पर इनमें सबसे अधिक आवश्यकता पड़ी विचारों के आदान-प्रदान की। किसी भी तरह के सम्प्रेषण के लिए एक माध्यम की आवश्यकता होती है। वह माध्यम अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम होना चाहिए—जो भाषा ही हो सकती है। भाषा का विकास, संबंधित राष्ट्र के लिए, राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय ध्वज का जो महत्व है, वही राष्ट्र भाषा का भी है। राजभाषा की उन्नति में ही राष्ट्र की उन्नति निर्भर करती है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के शब्दों में:
“निज भाषा उनति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल॥”
अब प्रश्न उठाता है कि आख़िरकार हिन्दी ही क्यों? बहुभाषी देश भारत में संवैधानिक तौर पर २२ भाषाओं को मान्यता प्राप्त है इसके अतिरिक्त १२१ भाषाएँ ऐसी हैं जो भारत में बोली समझी जाती हैं; जो समृद्धिशाली राष्ट्र की भाषाई सम्पन्नता का द्योतक है। हर भाषा का अपना स्वाभिमान है, अपनी आन-बान है।
यदि हम भाषाओं को जोड़ने की कड़ी को देखें तो पाएँगे कि हिन्दी ही वह स्वर्णिम कड़ी है जो मज़बूती से सबको बाँधे है। यदि हम भाषाओं के माध्यम से राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करना चाहते हैं तो हिन्दी के प्रति जो हमारे कर्तव्य हैं उनको पूरा करने में एक नई तेजस्विता अपेक्षित है।
सांस्कृतिक रचाव-वसाव तथा जनशक्तिः
हिन्दी की बात करते समय अपनी बात को भाषा तक सीमित करना, वस्तुतः हिन्दी के स्वरूप को ही सीमित करना है। हिन्दी मूलतः भाषा ही नहीं एक भाव है, इसके पीछे संपूर्ण भारत की सदियों पुरानी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक विरासत मौजूद रही है। यद्यपि अपभ्रंश के बाद से तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में इसका स्वरूप उभरना शुरू हो गया था; इसकी ‘नाल’ संस्कृत भाषा के जलकुंड से जुड़ी हुई है।
उन्नीसवीं शताब्दी तक हिन्दी भाषा इतना व्यापक रूप ले चुकी थी कि स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने एक मत से हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारा। स्वाभाविक था, राष्ट्रीयकरण के लिए एक भाषा की आवश्यकता थी जिससे पूरे राष्ट्र को एक साथ संबोधित किया जा सके। चूँकि हिन्दी भाषा सबसे अधिक बोले जाने वाली, सबसे अधिक व्यवहार में लाई जा सकने वाली भाषा थी, अतः बिना हिचक इस भाषा को सभी का स्नेह एवं सम्मान प्राप्त हुआ। यहाँ तक कि अहिंदी भाषियों का भी। सर्वसम्मति से 14 सितंबर 1949 हिन्दी को राजकाज की भाषा के रूप में भी स्वीकार कर लिया गया। भारतीय संस्कृति, सभ्यता की मूल चेतना को आबद्ध करने का माध्यम तथा राष्ट्रीय भावनात्मक एकता की प्रवाहमान हिन्दी के पाँव कहीं द्रुतगति से चले तो कहीं लड़खड़ाते हुए। जहाँ भी पाँव लड़खड़ाये व देश की एकता में, समन्वय में, दूरी आने लगी, वहीं हिन्दी भाषा ने भावाभिव्यक्ति से थाम लिया। हिन्दी में भारत की संस्कृति, सभ्यता तथा अस्मिता की सुगंध बसती है; हालाँकि सभी भाषाओं में आत्मा बसती है जो एक दूसरे के बिना अधूरी हैं। हमारा भक्तिकाल का आंदोलन—जिसने राष्ट्र के जन-जन को झंकृत कर दिया था तथा प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की अटूट शक्ति पैदा कर दी थी, आधुनिक काल में वही स्वतंत्रता आन्दोलन की भाषा बन गई।
मैथिलीशरण गुप्त जी के शब्दों में, “हम कौन थे, क्या हो गये और क्या होंगे/अभी आओ विचारें आज मिलकर यह समस्याएँ अभी।” यही नहीं माखन लाल चर्तुवेदी जी के वक्तव्य “मुझे तोड़ लेना वन माली उस पथ पर देना फेंक/मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ पर जावें वीर अनेक।” ने देश की युवा पीढ़ी में प्राण फूँक दिए थे, वहीं बाल कृष्ण शर्मा नवीन जी के शब्दों ने “कवि तुम ऐसी तान सुनाओ/जिससे उथल-पुथल मच जाए” देश की एकता को ललकार दिया। एकीकरण का यह उदाहरण क्या कम है, कोई भी व्यक्ति जब कश्मीर के कन्याकुमारी की यात्रा करता है चाहे वह किसी भी भाषा का भाषी हो, सभी स्थानों पर हिन्दी में उसका काम चल जाता है। क्या आप कभी कुंभ के मेले में गए हैं? एकीकरण और सद्भावना की मिसाल, उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम के लोग ही नहीं अपितु विदेशी भी बड़े सहज भाव से हिन्दी के सहारे मेले का सुख पाते हैं, बिना अँग्रेज़ी में डुबकी लगाए।
आइए हम इंडिया को भारत बना रहने में अपना-अपना योगदान दें—हम समग्रता में विश्वास करते हैं; साझा चूल्हा है हमारा। केरल में बैठा विद्वान हिन्दी में बात करता है, तमिलनाडु में सब्ज़ी बेचने वाला हिन्दी समझ लेता है। हमारे तीर्थ स्थान चहुँ दिशाओं में स्थापित हैं, इसका मतलब है एक दूसरे की क़द्र एक दूसरे का सम्मान। भारत–भारतीयता तथा भारतीय संस्कृति से निरन्तर जोड़े रखने का सशक्त माध्यम है हिन्दी। हिन्दी भाषा के अखिल भारतीय महत्व का पहला कारण है—वह भारत की सबसे बड़ी जाति की भाषा है। दूसरा कारण उत्तर भारत, बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र तक की भाषाओं में तथा हिन्दी में समानता है। शब्दों का भंडार है। डॉ. ग्रियसेन के शब्दों में—हिन्दी का अपना एक बृहत् भण्डार है। उसमें गूढ़ से गूढ़ विचारों को प्रकट करने की क्षमता है। तीसरा—व्यापारियों द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित। चौथा—स्थान-स्थान पर काम करने वाले मज़दूरों द्वारा संपर्क में आने से।
भूमण्डलीकरण के इस दौर में भी दुनिया भर में हिन्दी के प्रति एक ‘अंडर-करंट’ सा प्रवाहित हो रहा है। तत्संबंधी प्रयास जब कभी अस्पष्ट, बिखरे-बिखरे लगने लगते हैं तभी एकजुटता और तारतम्यता का आग़ाज़ मात्र उसे अपने आभामंडल युक्त आग़ोश में ले लेता है, चाहे वह बाज़ार का क्षेत्र हो, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन–अध्यात्म व साहित्य का। नये दौर में हिन्दी का बदलता स्वरूप उसकी बदलती प्रयुक्तियाँ, संरचना तथा शैली हिन्दी पंडितों को भी माथे पर हाथ रखने को मजबूर कर देती है। पारंपारिक स्वरूप से बाहर आकर हिन्दी को एक ग्लोबल भाषा के रूप में भी नई पहचान मिली है। आज युवा पीढ़ी को भी इससे परहेज़ नहीं है। यह हिन्दी बिदांस है, यानी बंधनों से मुक्त, व्याकरण की क़ैद से निकली। नई प्रौद्योगिकी तथा कम्प्यूटर आदि के क्षेत्र में हिन्दी का बढ़ता प्रयोग इसका स्वयं सिद्ध परिचायक है। आज आर्थिक, तकनीकी, क़ानूनी और वैज्ञानिक विश्लेषण लिखने के लिए, हिन्दी विशेषज्ञों की आवश्यकता निरंतर बढ़ रही है, इन नए क्षेत्रों में रोज़गार की संभावनाएँ भी बढ़ी हैं।
हिन्दी में ‘डब’ की जा रही अँग्रेज़ी फिल्में, उनका उत्तरोत्तर बढ़ता और प्रसारण, धार्मिक चैनलों का 24 घण्टे हिन्दी में चलना—राष्ट्र की एकता को मज़बूती देता है। हाल ही के समाचार पत्रों में तमिल जैसे क्षेत्रों में भी हिन्दी सिखाई जाने पर युवाओं द्वारा बल दिया जा रहा है क्योंकि वह एक सीमा व क्षेत्र तक सीमित भाषा नहीं—वह रोज़गार परक भाषा है। हिन्दी वह भाषा है जिसमें कंठ और हृदय का संगम है। बाक़ी भाषाएँ मात्र कंठ तक आ कर रह जाती हैं। हिन्दी ने अत्याचार एवं अन्याय के विरुद्ध हमेशा सर उठाया है तथा उन स्थितियों को चुनौती दी है जो भारत वर्ष के लिए घातक हैं—प्रसाद जी के शब्दों में:
“प्रबुद्ध शुद्ध भारती स्वयं प्रभास समुज्जवला
स्वतंत्रता पुकारती बढ़े चलो-बढ़े चलो।”
अर्थात् जीवन मूल्यों के पुर्नस्थापन में भी हिन्दी भाषा व उसका साहित्य महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। हिन्दी में प्रचार की ऐसी अद्भुत शक्ति है जो बेल के समान सम्पूर्ण भारत वर्ष पर फैल गई है; समस्त राष्ट्र को अपनी छाया में समेट लिया है। ठीक वैसे ही जैसे सम्पूर्ण भारत भूमि की जुताई करके हिन्दी के बीजों को छिटक दिया गया हो और चारों ओर एक ऐसी भाषा की फ़सल लहलहाने लगी है जिसमें फैलने की शक्ति ही नहीं वरन् अन्य भाषाओं से प्रभाव ग्रहण करके, बड़े स्वाभाविक रूप में रूपायित करने तथा रूपांतरित होने की क्षमता भी है। यही नहीं:
“विज्ञान के अद्भुत चमत्कार ने कर दिया चकित ज़ेहन
घर-घर उल्लास उर्मियाँ जागीं, मुश्किलें हुई आसान”
वर्तमान युग सूचना युग है जिसके पास जितनी अधिक जानकारी है, वह उतना ही ज्ञानवान। वही देश समर्थ है जिसके पास भाषाई एकता है तथा जिसका सूचना तंत्र मज़बूत है। विज्ञान के इस चमत्कार से हमारी अपेक्षाएँ और बढ़ी हैं, जिसने हर क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिए हैं। इन परिवर्तनों की आँधी ने हिन्दी के संदर्भ में भी कई सार्थक क़दम उठाए हैं जिसने राष्ट्र को ओर अधिक एकजुट कर दिया, दुनिया सिमट कर एक क्लिक मात्र पर आ गई है।
कम्प्यूटर पर हिन्दी में प्रयोग बहुतायत ये बढ़ रहा है। ई-मेल द्वारा रिज़र्व बैंक ने एक अच्छी शुरूआत कराई है। गत वर्षों में सी-डेक पुणे से ’लीला प्रबोध’ नामक एक सॉफ़्टवेयर विकसित किया था जिसकी सहायता से अहिन्दी भाषी कर्मचारी, कम्प्यूटर की सहायता से स्वयं प्रबोध स्तर तक का हिन्दी ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
गत वर्षों में संचार सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय में इसकी शुरूआत करते हुए सीडी के रूप में हिन्दी सॉफ़्टवेयर उपकरण और फाण्ट्स जनता को निःशुल्क उपलब्ध कराए हैं। जिसे मंत्रालय की वेबासाइटः www.hde. Gov.in पर रजिस्टर कर प्राप्त किया जा सकता है। जिसने आईटी क्षेत्र में ज़र्बदस्त क्रांति ला दी है। यही नहीं ऐसे-ऐसे उपकरण व सुविधाएँ प्रदान की हैं जिससे हम आप बिना अँग्रेज़ी जाने भी हिन्दी में कार्य कर सकते हैं। कहना ना होगा कि आज सूचना प्रौद्यिगिकी भी अपने प्रवाह के लिए भाषा का सशक्त माध्यम ढूँढ़ती है और जन भाषा से बेहतर कोई भाषा हो ही नहीं सकती। इस बात को बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तथा अमेरिका जैसे देश भी मान रहे हैं। इसका सीधा अर्थ है कि आज हिन्दी के प्रयोग ने बाज़ार का रुख़ अपना लिया है।
“मंज़िलें अभी और भी हैं बस रास्तों का ज़िक्र करना बाक़ी है”।
बदलाव की आँधियों के बाद एक बार तो लगा कि अँग्रेज़ी के प्रयोग की संभावनाएँ और अधिक बढ़ जाएँगी, जिससे हिन्दी के प्रयोग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, हिन्दी का योगदान वैसा ही जारी रहा, जैसा चल रहा था। अपितु स्वरूप कुछ-कुछ बदलने लगा क्योंकि बदलाव ही तो प्रकृति का सतत् नियम है—वादों-अपवादों की पगडंडियों से होती, जाति, धर्म, भेदभाव से ऊपर उठ हिन्दी ही एक मात्र ऐसी भाषा है जो आपकी और हमारी संवेदनाओं को भावनाओं को भीतर से छूने की हिम्मत रखती है।
“हिन्दी बहता नीर है, हिन्दी तर्क नहीं प्यार है,
सिंधु नहीं अविराम अविरल जलधार है”
आज व्यापार में टिकने के लिए भी क्षेत्रीय भाषाओं के साथ–साथ आम बोल-चाल की भाषा को प्रयोग में लाना ही होगा, जटिलता वा कलिष्टता को दूर करना होगा। लिपि को करवट लेते युग के अनुरूप ढालने में ही समझदारी है, चीन का उदाहरण इस विषय में सटीक बैठता है। जो बदलने की रफ़्तार के साथ-साथ ही नहीं अपितु तेज़ी से करवट लेता है।
हिन्दी देशभक्ति का भी परिचायक है। क्योंकि ग्रमीण क्षेत्र में जितनी लोक कथाएँ प्रचलित हैं सभी में किसी ना किसी रूप में राष्ट्रीय समरसता का भाव छिपा है। देश को आज़ाद बनाने में जितने भी देशभक्त शहीद हुए उनकी जीवनी पढ़कर हम राष्ट्र के एकीकरण में हिन्दी के योगदान को भली-भाँति जान सकते हैं। साथ ही हमें ध्यान भी रखना होगा कि हम वैश्विक आँधी में अपने युवाओं को ना बहने दें, देश की, राष्ट्र की अस्मिता, भारतीय संस्कृति, सभ्यता की वाहक जन-जन की वाणी हिन्दी की माँग को बरक़रार रखना होगा। उसके लिए नित नए शोध करने होंगे। जिससे हम भारतीय बाज़ार में ही नहीं अपितु दुनिया भर में भाषा के सौन्दर्य के सामर्थ्य को बनाए रख सकें। ऐसे में गाँधी जी के शब्द याद हो आते हैं: “मैं अपने घर के खिड़की दरवाज़े खुले रखना चाहता हूँ, ताकि बाहर की हवा आ सके पर वो हवा ऐसी आँधी ना बन जाए कि हमारे पाँव धरती से उखड़ने लगें”। अतः हमें सबको सम्मानित कर चलना है।
राष्ट्रीय एकीकरण में हिन्दी के योगदान को संक्षेप में मैं अपनी कविता में कुछ इस तरह पिरोये हूँ:
नए अंकुर ढोते किरचों पर जब कोई
किसी नई दिशा के मोड़ मुखरित होने लगते हैं
ज़हन में यकायक—
आठवीं शताब्दी से आरंभ इसका, देखो प्रगति कैसी कर रहा
दिल्ली में जन्मी-साधू-सन्तों, पीर फ़क़ीरों के पालने झूली-
उन्नीसवें उत्तरार्ध में आर्यसमाज संग पली बढ़ी
बीसवीं सदी में फली-फूली
आकाशवाणी के सान्निध्य में राष्ट्र वाणी बन उभरी,
14 सितंबर 1949 को राजभाषा स्वीकारा गया
जन-जन भाषा को सर्वश्रेष्ठ बताया गया,
पंत-निराला, महादेवी-बच्चन गुप्त-दिनकर, नगेन्द्र और नवीन,
तुलसी-सूर कबीर-नायक, मीरा-रसखान जैसे कवियों ने
शब्दों से प्यार जगाया था इन रचनाकारों की छवियों ने
क्या राष्ट्रीय? क्या अतंरराष्ट्रीय, कहाँ नहीं पहुँची यह-
हिन्दी भाषी तो हिन्दी भाषा
अहिन्दी भाषियों का योगदान भी कुछ कम नहीं-
केशव, दयानन्द, गाँधी, तिलक, बिनोवा और गोपालचारी,
किसी ने नहीं चलने दी राजभाषा पर आरी।
क़लम के धर्नुधरों ने ऐसी आवाज़ उठाई
जिसके आगे अंग्रेज़ियत की कूट नीति थर्राई।
सात बहनों के प्रदेश में सभी राज्य हैं भाई-भाई
राष्ट्रीय एकता की प्रतीक हिन्दी ही सबके मन में है समाई।
नई प्रौद्योगिकी के वटवृक्ष को आओ मिल कर सींचा करें
विश्व जगत में राष्ट्रभाषा, राष्ट्रध्वज का मस्तक ऊँचा करें।
राष्ट्रीयकरण में आई नित नई चुनौतियों को स्वीकर करें।
हिन्दी प्रचार–प्रसार के समर्थकों का आओ मिलकर सम्मान करें॥
अंततः मैं कहना चाहूँगी राष्ट्र भाषा हिन्दी ही वह पुल है जिससे किसी भी दुविधा को समाप्त किया जा सकता है। राष्ट्रीय एकीकरण एवं सद्भावना में न तो किसी के बलिदान को भुलाया जा सकता है न ही हिन्दी के योगदान को।
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