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ज्ञान नहीं तो जिज्ञासा कहाँ? 

 

ज्ञान से हमारा तात्पर्य अध्ययन, जाँच, अवलोकन तथा अनुभव द्वारा अर्जित तथ्यों के प्रति जागरूकता है। 

ज्ञान मस्तिष्क को अधिक सुचारु रूप और प्रभावी ढंग से कार्य करने में मदद करता है। ज्ञान की शक्ति से हम अपने शरीर की इंद्रियों पर जीत प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान से हमारे मन और बुद्धि का भटकना बंद हो जाता है। 

ज्ञान एक बोझ है यदि वह तुम्हारा भोलापन ले ले। 

ज्ञान एक बोझ है यदि वह तुम्हें विशेष होने का एहसास कराए। 

ज्ञान एक बोझ है यदि वह जीवन में प्रसन्नता ना लाए; जीवन में संकलन ना लाए। 

ज्ञान एक बोझ है यदि वह तुम्हें मुक्त न करे। 

यक़ीनन इससे परे ज्ञान मन को शुद्ध करता है। ज्ञान की उत्पत्ति जिज्ञासा से होती है जैसा कि विषय बताता है। 
ज्ञान नहीं तो जिज्ञासा कहाँ? जिज्ञासा नहीं तो नए-नए शोध कहाँ? 

जिज्ञासा ज्ञान का आधार है। 

गाँधी जी कहा करते थे—जिज्ञासा के बिना ज्ञान नहीं होता जैसे दुख के बिना सुख नहीं होता। 

महाभारत के गुरु द्रोणाचार्य जी के काफ़ी दृष्टांत मिलते हैं: 

 गुरु जी पांडवों को ज्ञान देने लगे। 

“आज का पहला पाठ है ‘सत्य बोलो’।” 

गुरु जी ने अगले दिन पूछा, “क्या आपको पाठ याद हो गया?” 

सभी ने बताया कि हो गया। 

अगले दिन गुरु द्रोणाचार्य जी ने बताया—क्रोध को जीतो। 

द्रोणाचार्य जी ने फिर सबसे पूछा, “क्या पाठ याद हो गया?” 

युधिष्ठिर को छोड़कर सभी ने कहा, “पाठ याद हो गया गुरुजी!” 

द्रोण जी को बड़ा विस्मय हुआ और वह युधिष्ठिर से बोले, “इतना आसान पाठ आपको याद नहीं हुआ?” 

अगले दिन फिर द्रोणाचार्य जी ने बोला कि अब पाठ को अच्छे से याद करके आना। अगले दिन फिर वही प्रश्न और फिर वही उत्तर कि पाठ मुझे याद नहीं हुआ। 

द्रोणाचार्य जी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। 

बाक़ी चारों भाइयों को पाठ याद हो गया और ख़ाली युधिष्ठिर को नहीं हुआ। उन्होंने बहुत ज़ोर से एक चाँटा उसके गाल पर धर दिया। 

युधिष्ठिर विचलित नहीं हुए। 

तब द्रोणाचार्य जी ने पूछा, “अब तो पाठ याद हो गया होगा?” 

युधिष्ठिर ने एकदम से कह दिया, “पाठ याद हो गया गुरु जी।” 

गुरु द्रोणाचार्य जी ने कहा, “अगर चाँटा खाकर ही पाठ याद होना था तो मैं पहले लगा देता।” 

युधिष्ठिर से रहा नहीं गया। उन्होंने कहा कि गुरुजी ऐसी बात नहीं है। आपने इतने प्यार से पाठ पढ़ाया था तो याद तो होना ही था। अगले दिन अपने ‘क्रोध को जीतो’ बोला तो वह पाठ मुझे इसलिए याद नहीं हुआ क्योंकि इतने प्यार से पढ़ाए पाठ और इतने प्यार से पूछे हुए प्रश्न के लिए मैं क्या जवाब देता? 

जब आपने क्रोध कर मुझे बोला कि दिमाग़ में भूसा भरा हुआ है तो भी मैंने बोल दिया पाठ याद नहीं हुआ। 

इसके बाद आपका ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था और आपने मुझे चाँटा मार दिया; तब लगा मुझे पाठ याद हो गया क्योंकि चाँटे के बावजूद भी मुझे ग़ुस्सा नहीं आया। मतलब मैंने ‘क्रोध को जीत लिया’। 

बस यह सुनते ही द्रोणाचार्य गुरु युधिष्ठिर को गले से लगा लेते हैं और वह भाव विह्वलित हो जाते हैं, व्याकुल हो जाते हैं। 

कर्म से रहित ज्ञान पंगु के समान होता है। उससे न तो कोई वस्तु प्राप्त की जा सकती है और न ही कोई कार्य सिद्ध होता है। 

जो मन वाणी और कर्म से अपने कर्त्तव्य कर्म को करता है, इसी ज्ञान युक्त कर्म के द्वारा ही उसकी सिद्धि होती है। 

हितोपदेश का एक छोटा सा वाक्य है—‘ज्ञानमं भारमं क्रिया बिना’। 

आचरण के बिना ज्ञान केवल भार होता है। 

जीवन में ज्ञान अत्यंत आवश्यक है पर सत्य का पता लगाने के लिए कोरा ज्ञान पर्याप्त नहीं होता। हालाँकि ज्ञान विचारों को प्रोत्साहित करता है और उसकी अनुभूति होना सार-सार का विवेक है जो मनुष्य को चिंतन कि उन गहराइयों तक ले जाता है जहाँ जीवन की गहराइयों का सारतत्व छिपा है; जहाँ सारस का उदाहरण बिल्कुल सटीक बैठता है: 

“उठ जाग मुसाफ़िर भोर भाई अब रैन कहाँ जो सोवत है!” 

ज्ञान नहीं तो जिज्ञासा कहाँ से आएगी? अगर हम कुछ सोचने-समझने की शक्ति नहीं रखेंगे तो किसी के प्रति जिज्ञासा, इच्छा उसके प्रति अनुभूति पैदा ही नहीं हो पाएगी। 

यह सच है समस्त इंद्रियों को भली प्रकार समाहित करते हुए पापों से अपनी आत्माओं की निरंतर रक्षा करते रहना चाहिए। पापों से आरक्षित आत्मा संसार में भटका करती है और सुरक्षित आत्मा संसार के सारे दुखों से मुक्त हो जाती है। पापों से आत्मा की रक्षा करने का अत्यंत शक्तिशाली उपाय अपनी अनुभूतियों को जागृत करना और जागृत किये रखना ही है। 

ज़रा सी असावधानी होने पर अनर्थ हो जाता है और व्यक्ति ऊँचाइयों के उन तूफ़ानों पर नहीं चढ़ पता जिस पर मनुष्य और मनुष्यता के नाते उसे चढ़ाना चाहिए। 

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