शिव और शिवतत्व
आलेख | चिन्तन डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’1 Mar 2025 (अंक: 272, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
सृष्टि की सबसे सुंदर अवधारणा ‘सत्यं, शिवं, सुन्दरम’ है। सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर है और सुंदर ही कल्याणकारी है। तभी तो ये पूरी कायनात इतनी ख़ूबसूरत है। शिव से जुड़ा होना अर्थात् सम्पूर्ण प्रकृति का साथ होना है। यह शिवतत्व ही है जहाँ से सब कुछ आया है, जहाँ सब कुछ क़ायम है और जिसमें सब कुछ समाहित होता है, सब विलीन हो जाता है। ऐसा कोई माध्यम ही नहीं है जिससे हम कभी भी बहिर्गमन कर सकें। शिव विश्वरूप है, जिसका अर्थ ही है कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड उनका रूप है, जो कल्याणकारी है, और जो फिर भी निराकार है।
शिवत्व का मूल गुण है—आत्मा के लिए निर्धारित लक्ष्य, जो स्वयं के बंधनों से छुटकारा पाना अर्थात् शिव का स्वरूप प्राप्त करना। वास्तव में अगर हम शिव के भक्ति में जाना चाहते हैं, डूबना चाहते हैं, शिवभक्त बनना चाहते हैं, तब तो हर दिन मौन में बैठने का समय निकालें, अपने मन को उनकी दिव्य उपस्थिति और ऊर्जा पर केन्द्रित करें। ध्यान के माध्यम से हम अपने और सम्पूर्ण ब्रह्मांड के बारे में गहरी समझ को प्राप्त कर सकते हैं, जो अंततः दिव्य अर्थात् स्वयं शिव के साथ सम्बन्ध में जोड़ने में सहायक होगा। हम अगर देखें तो शिव पुरुष और प्रकृति सृष्टि का पर्याय है। शिव का व्यक्तित्व और स्वरूप समग्रता का प्रतीक है। यह चरित्र मानवीय जीवन के उच्चतम आदर्शों की पराकाष्ठा को चित्रित करता है। जहाँ पर सम्यक दृष्टि व मित्रवत भाव की शिक्षा मिलती है। शिवतत्व तो वह गंगा है, जहाँ का स्पर्श जितना प्रगाढ़ होगा, उतना ही हमारा व्यक्त्तिव, चरित्र सात्विक बुद्धि से युक्त समागम को प्राप्त होगा।
शिव स्वयं ही परस्पर विरोधी शक्तियों के बीच सामंजस्य बनाये रखते हैं। शिव अर्धनारीश्वर हैं अर्थात् पुरुष और प्रकृति का सम्मिलित स्वरूप। शिव गृहस्थ में होने के उपरांत भी वीतरागी हैं। अर्थात् काम और संयम का सम्यक संतुलन शिव हैं। जहाँ भोग भी है और विराग भी है। शक्ति भी है और विनयशीलता भी। उनमें आसक्ति इतनी अधिक दृष्टिगत होती है कि अपनी पत्नी के यज्ञवेदी में कूदकर जान देने पर उनके शव को लेकर तांडव करने लगते हैं और विरक्ति इतनी की पार्वती का शिव से विवाह की प्रेरणा जन्म लेने पर प्रयत्नशील काम को अपने पूरे शरीर में भस्म करने के बाद पुनः ध्यानमग्न हो जाते हैं।
शिव का शाब्दिक अर्थ ही है उच्चतर चेतना। हम यह भी कह सकते हैं कि शिव अर्थात् शुद्ध5, परम् पदार्थ या सृष्टि का आधार। सम्पूर्ण प्रकृति का आधार ही इन दो कारकों पर आधारित है। एक है शिव—जो शुद्ध है, अपरिवर्तशील चेतना है और दूसरी है शक्ति—अर्थात् क्रिया के द्वारा अनन्त विकास, और जहाँ शिव और शक्ति दोनों विद्यमान हों, जो साथ में वार्ता करते हों, तो वही ब्रह्मांड है और वही सृष्टि।
मनुष्य के तीन शरीर हैं—स्थूल, सूक्ष्म और कारण और जो इनमें बहिर्गमन कर गया वही शिवत्व को प्राप्त कर गया। स्थूल—शरीर का परिचायक है, सूक्ष्म—मन का और कारण—अहंकार का। अर्थात् सत्व, रज और तम। ध्यान सत्व का प्रतिनिधित्व करता है और सक्रिय जीवन रज का और तम-आलस्य, नीरसता, सुस्ती और निष्क्रियता का। अब हम इन तीनों शरीर को देखें तो शिवतत्व को प्राप्त करना इतना आसान नहीं है।
शिव शुभ का भी प्रतीक है क्योंकि यह आत्मा के वास्तविक स्वरूप को दर्शाता है जो कि त्रिगुणों से अछूता है, पारलौकिक है, और कभी-कभी तो बदलते हुए ब्रह्मांड से परे दिखलाई देता है। शिव का वास्तविक अर्थ सर्वोच्च चेतना, पवित्रता और एक जागरूकता है जो जगत के सारे भ्रम से अप्रभावित है। शिव वह है जो अस्तित्व में नहीं है और भौतिक रूप में भी अस्तित्वहीन है।
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