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शब्द भी शून्य हो जायेंगे

 

जहाँ पर, 
सारे शब्द भी शून्य
हो जायेंगे . . .
तब भी मैं
तुम्हें पढ़ लूँगी, 
जहाँ तक, 
इस इला से सारी
आवाज़ें, सारे स्वर
नभमय हो जायेंगे . . .
उस वक़्त भी मैं
सुन लूँगी तुम्हें, 
जहाँ पर, 
नदियों के सारे सुर-ताल
गुम हो जायेंगे . . .
उस समय भी मैं
गुनगुना लूँगी तुम्हें, 
जब तक, 
मेरी समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ
शिथिल नहीं हो जातीं
तब तक मैं
छू सकती हूँ तुम्हें, 
तुम तब तक
बिसरने वाले नहीं
जब तक मैं मृत्यु-शैय्या को
प्राप्त नहीं कर लेती। 
एक बात और—
शायद उसके उपरांत भी
मैं इतनी सामर्थ्य
रख पाँऊ कि—
मेरी आवाज़ें . . . 
उन सात सुरों को
अपनी ग्रीवा में
समाये हुए हों। 
सान्ध्य बेला के समय
उतर आई लालिमा भी
मेरे कपोलों को
सिंदूरी रंग लिए
सुबह तक जागी रहें . . .
तुम न जान पाये हो, 
और—
न ही जान पाओगे . . .
इस मिलन की दीप्ति को, 
देखा है तुमने—
इस निसर्ग के शृंगार को . . . 
रंग चढ़ा है, 
तुम्हारा ऐसा कि— 
मेरी हथेली ही क्या
इस पूरी कायनात का
रंग ही रंगहीन हो गया है। 
मुझे न उस मधुमास की
चाह नहीं, 
मैं तो इस खिज़ा के
प्रेम में डूबी हूँ इतना कि
जिसकी समस्त सूख चुकी
डालियों में जो स्मृतियाँ
लटकी हुईं हैं न
शायद मैं
उन्हें भी चुन लूँगी . . .
देखा तुमने मुझे—
मैं आज भी
उसी प्रतीक्षा में . . . 
सितारों की मध्यम रोशनी में
एक दिवा जलाये
हुए बैठी हूँ . . .
कि—
कहीं कोई तारा ही
तुम्हारे आने की ख़बर दे दे . . . 
तुम ये क्या
बिल्कुल भी नहीं 
जानते हो कि—
अप्रीति की गर्द के
फलस्वरूप भी
कहीं कोई कोमल
अनुभूतियाँ हैं—
जो दर्द को, व्यथाओं को
सुन भी लें
और पढ़ भी लें। 
देखा तुमने—
मौन उस वक़्त भी 
चीत्कार नहीं करता
तुम शायद यह भी
नहीं जानते हो कि—
प्रत्याशा के बिना प्रेम
अपना सौंदर्य तक
खो देता है . . . 
और पवित्रता खो देती है
अपना मूल्य!! 

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