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उमंगों की डोर

 

यह मेरे उम्मीद और उत्साह की पतंग है
तारों की रोशनी से बनी
लौटेगी नहीं यहाँ मेरे इस
आँगन में
सारे बंधनों से बँधी हुई
दिवास्वप्नों और चंचल
हवाओं के मध्य
गलियों के पार जिसने देखा हो
तिरोहित होते थके भानु
उदित होते क्षोभ रहित शशि में
अगर उसे
अपनी उड़ान के उद्वेग में जाना हो
बादलों और प्रवात की
अपनी रस-मुग्धता के साथ
हँसी के आंनद का
विवेचन करना हो। 
ओझल पथ और आकांक्षा से
लिप्त वसुधा की डोर तो
यहीं मेरे हाथों में
उलझी, कमज़ोर और पतली
फलक में रहने दूँ तुम्हें
या
अचला पर उतार लूँ। 
या फिर—
रख दूँ एक आदिम-सी हिलती
हुई खूँटी पर विस्मय के साथ
फिर जब पुनरागमन करूँ
तीसरे पहर की आभा में
तब
उड़ा दूँ भयमुक्त होने के लिए
जो हर बार नभ में
उड़ पाने की वजह है॥

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