तुम्हारा न होना
काव्य साहित्य | कविता डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
कई दिनों से
सूरज तो आता है
मेरी देहरी पर
प्रभात की उँगली थामे
किन्तु मेरी देहरी में
धूप ही नहीं उतरती।
गौरैया भी चहकती
तो है मेरे आँगन में
पर उसके चहचहाने के
गीत नहीं गूँजते।
मेरी पलकों की ड्योढ़ी पर
नींद तो रहती है
पर आँखें हैं कि
बंद ही नहीं होतीं . . .
और ख़्वाब हैं कि
ख़ुद-ब-ख़ुद चले जाते
किसी और जहां में।
घड़ी की सूइयाँ चलती तो हैं
समय के साथ
किन्तु वक़्त है कि
रुका-सा रहता है।
समस्त क्रियायें हो रही हैं
स्वतः ही
फिर भी सब ठहर-सा
गया है
कहीं भी कुछ भी
न होना
ये सब तुम्हारा ही
ना होना है!!
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