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मैं लिखना चाहती हूँ

 

सुनो—
मैं लिखना चाहती हूँ
कि—
हज़ार बार भूलने के
बावजूद भी
ख़ूब चीखने-चिल्लाने के
उपरांत भी
तुम मुझे इतना क्यूँ याद आते हो! 
  
मैं लिखना चाहती हूँ
कि—
जितनी दूर तक जाती है
मेरी आँखें
प्रत्येक उस शख़्स में
क्यों दृष्टिगत होता है
तुम्हारा चेहरा! 
 
मैं लिखना चाहती हूँ
कि—
भावनाओं का ये जो समंदर
जो मेरे अंतःकरण में व्याप्त है
तुम्हारा नेह बनकर
क्या तुम्हें नहीं दिखलाई देता
उसमें बूँद भर प्रेम मेरा! 
 
मैं लिखना चाहती हूँ
कि—
जब आँखें भीग जाने पर
जहाँ पर कुछ दिखलाई नहीं देता है
उस लम्हा भी
मैंने उन भीगी पलकों में
सिर्फ़ तुम्हें ही क्यूँ पाया? 
 
मैं लिखना चाहती हूँ
कि—
जिन प्रतिबिंबों को देख
अक्सर लोग भयभीत हो जाते है
आख़िर में मैं क्यूँ तुम्हें
उन छायाओं में ढूँढ़ती रही हूँ! 
 
मैं लिखना चाहती हूँ
कि—
जिन रहगुज़र पर
न जाने कितने लोग आये
और गए
मैं उन्हीं रास्तों पर
तुम्हारे क़दमों के निशां ढूँढ़ती रही . . .।
 
मैं लिखना चाहती हूँ
कि—
अलगाव की वेदना का 
ये जो दंश है
जिसे लोग घुटकर मर जाते है
मैं उसी दंश को
अंत तक क्यूँ ज़िन्दा रहकर
सहती रही हूँ . . .॥ 

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