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मेरा विज़न—सिर्फ़ तुम

 

मैं तुम्हें ल्फ़्ज़ों में
समेट नहीं सकती
क्योंकि—
तुम एक स्वरूप ले चुके हो
उस कर्तार का—
जिसे मैं हमेशा से
ग्रहण करना चाहती हूँ
किन्तु—
समझा नहीं पाती तुम्हें
कि—
अपने विज़न को छोड़कर
यथार्थ जीने का द्वंद्व
वाक़ई में
कितना भयप्रद है।
 
नकार देती हूँ
सामाजिकता और सांसारिकता
में बँधे दायरों को
निर्गुण से सगुण की ओर
विमुख हो जाती हूँ।
 
फिर भी—
मैं तुम्हारे रूप को
नहीं ले पाती
वृहद्‌ या सूक्ष्म होकर तुम
वारिध बनते हो
तो कभी विहंगम
कभी कृष्ण तो कभी शिव।
 
और हाँ,
कभी-कभी तो
बयार बन चलते हो साथ
सहला लेते हो मेरे कपोलों को
ये सिर्फ़ तुम ही हो,
जो छू जाते हो मुझे।
 
तब यकायक ही मैं
अंकुरित हो जाती हूँ
और तुममें समा जाती हूँ
मेरी जड़ें बिखरी हुई हैं
तुम्हारी शिराओं तक।
 
तुम्हारा होना ही प्रेम की
परिणीति के साथ—
एक निष्कलंक प्रेम को
गढ़ता है मेरे लिये
जिसे जीती हूँ मैं
प्रतिपल स्वयं में॥

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