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एक ही परिप्रेक्ष्य


हमेशा अनुरक्ति को, 
एक ही परिप्रेक्ष्य में, 
क्यूँ नापा जाता है? 
 
जबकि अनुरक्ति, 
प्रत्येक आत्मीयता में, 
विद्यमान होती है, 
प्रत्येक लगाव में, 
प्रत्येक अहसास से, 
सहचर तक, 
विहंगों से लेकर, 
विधाता तक, 
मंजरियों से लेकर, 
मधुप तक, 
निस्यंद से लेकर, 
सुवास तक, 
प्रत्येक पुष्पमाला से लेकर, 
विधाता के प्रति आस्था तक, 
गेह में गूँजती, 
हर्षध्वनि तक, 
माँ के आँचल से लेकर, 
पिता की फटकार तक, 
और तो और—
रेशमी धागे की
पतली-सी गाँठ तक, 
किसी की स्मृत करने भर से
नयनों में झलक आने वाली
उन आँसुओं की बूँदों तक
यह तो प्रत्येक जगह
व्याप्त है। 
 
अनुरक्ति का कोई छोर
ही नहीं रहता, 
वो तो हर इंसान के
अंतर्मन में है, 
और ये अनुरक्ति किसी की
मोहताज नहीं है।
 
उस अनुरक्ति के अंदर
समाई पूरी कायनात है, 
ऐसा कुछ नहीं, 
जहाँ इसकी सम्भावना न हो, 
इंसान ने स्वयं की ग़लतियों
के कारण
अनुरक्ति के प्रति ग़लत
धारणाएँ बनाई है, 
सत्य धारणाएँ हैं . . . 
अनुरक्ति नहीं . . .॥ 

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