एक बूँद
काव्य साहित्य | कविता डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’15 Jul 2025 (अंक: 281, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
अस्तित्व बूँद का
बनता है तभी
जब विराट सत्ता से
पाती है पृथक
स्वयं की एक इकाई में
कर लेती है स्थिर।
बूँद स्वाति की
बन जाती है मोती
कपूर बन जाता है
कंदली वन में
वंशलोचन बाँस के कुंजों में
प्रकृति जल उठती है
ग्रीष्म की तपन में
तो–
पहली बूँद आसाढ़ की
बन जाती है सौंधी-सी गंध।
ढुलक जाती है एक बूँद
कपोलों पर तब
प्रेम का सागर बन जाती है
इस तरह
आवृत्ति में
‘स’ वर्ण की
शक्ति, शील, सौंदर्य को पा
धन्य समझता है—‘अहंकार मन’
फिर भी नहीं ‘शांति’
क्योंकि सिमट गई है––
विराट में ‘एक बूँद’!!
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