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दुर्गी

उसके  हाथ-पैर काँप रहे थे। हाथ-पैर ही नहीं, पूरा शरीर काँप रहा था...। स्वर तीव्र होते-होते गले में रुँध गये थे। तेज़ बोलना उसका स्वभाव नहीं था। आज सहसा चिल्लाने से उसका गला रुँध गया। वह इतनी दुर्बल कभी नहीं थी कि यह घटना उसके मन मस्तिष्क पर इतना दुष्प्रभाव डाल सके। वह तो साहसी थी। 

विवाह के समय जब वह बल्यावस्था में थी, तब बहुत डरती थी। पिता व भाई के अतिरिक्त किसी भी परपुरुष से उसे भय लगता था। उसे स्मरण हैं अब भी, बचपन के वे दिन जब वह गाँव के सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती थी। उस दलित बस्ती से जहाँ वह रहती थी वहाँ से विद्यालय कुछ दूर मुख्य गाँव में था। घर से विद्यालय की दूरी तय करने में वह संकोच व शर्म से कंधे व आँखें झुकाये रहती थी। कभी भी सीधी हो कर, गर्दन उठा कर वह चल नहीं सकी। यदि किसी पुरुष के स्वर कानों से टकरा जाते, "दक्खिन टोले की चमारों की लड़की देखने में सुन्दर लागत है, बाभन की लड़कियों जैसी..." बस, सुनते ही वह लज्जावश ज़मीन में और गड़-गड़ जाती। 

किसी प्रकार पाँचवी तक की पढ़ाई पूरी कर पायी थी। शब्दों को मिला-मिला कर पढ़ना और थोड़ा बहुत धीमी गति से लिखना आ गया था उसे। उसकी इतनी शिक्षा पर उसके पिता कलसी का सीना गर्व से चौड़ा रहता। बाज़ार-हाट जाते समय पिता की उँगली थामें वह भी बाज़ार जाती। कलसी जब भी ख़रीदी गई वस्तुओं के दाम जोड़ने के लिए कहता थोड़े प्रयत्नों से ही सही-सही पैसे जोड़़ देती। उस समय पिता के चेहरे पर स्पष्ट हो रहे गर्व के भाव उससे छुपे न रह पाते। 

दुर्गावती... हाँ यही नाम रखा था उसके पिता ने उसका। विद्यालय की पंजिका में लिखने तथा मास्टर जी के हाज़िरी के समय पुकारने के अतिरिक्त कभी भी उसने अपना पूरा नाम नहीं सुना। माँ-बापू उसे दुर्गा कहते। गाँव वाले उसे दुर्गी कहते। दुर्गावती पीछे छूटती गई। दुर्गी सामने आती गई। दुर्गावती ’दुर्गी’ पुकारी जाने लगी।

उसे स्मरण है विवाह के पूर्व का वो दिन... वह सवर्णों के मुख्य गाँव पिपरी के गिरधर चौधरी के खेत में काम कर रही थी। उस समय उसकी उम्र यही कोई तेरह-चौदह वर्ष की रही होगी। वह माँ के साथ साहब लोगों के खेतों में काम पर जाने लगी थी। फसलों की कटाई, खेतों की निराई, गुडा़ई के काम उसे आ गये थे। गिरधर चौधरी के पास बहुत ज़मीनें थीं अतः मज़दूर व अन्य लोग भी चापलूसी में उन्हें राजा बाबू कहते थे। जब कि वो राजा नहीं थे, ये सत्य भलिभाँति दुर्गी जानती थी। उन्हीं का मुख्य आदमी था जोगिन्दर जो कि उनके खेतों का काम देखता था। अधेड़ उम्र के जोगिन्दर ने उस दिन निराई की घास हटाने के बहाने उसका हाथ पकड़ लिया था, तो उसने उसे धक्का देते हुए एक ज़ोरदार थप्पड़ मारने का प्रयत्न किया। थप्पड़ कितना ज़ोरदार था ये तो वह नहीं जानती थी। वो थी तेरह-चौदह वर्ष की बालिका और जोगिन्दर लम्बा, हट्टा-कट्टा, अधेड़ पुरुष। किन्तु उस थप्पड़ से जोगिन्दर का सम्मान सबके सामने अवश्य चूर-चूर हो गया। उसकी माँ गाँव की सीधी-सादी औरत। वह समझ भी न पाई कि क्या हुआ? दुर्गी... दुर्गी... चिल्लाती हुयी उसे रोकने के लिए दौड़ पड़ी। तब तक दुर्गी के हाथ जोगिन्दर के बालों तक पहुँच गये थे। वह चिल्ला रही थी, कमीना... कुत्ता...नीच... मुझे छूता है। हरामी का जना... गन्दा... काम सिखाने के बहाने मुझे छूता है... बदमाशी करता है। "और भी न जाने क्या-क्या वह बोलती गयी। गालियाँ तो उसे ख़ूब आती हैं। गालियाँ सुनते-सुनते, गालियाँ देते-देते वह बड़ी जो हुई थी। 

दुर्गी का ऐसा रौद्र रूप देख कर जोगिन्दर पीछे हट गया। किन्तु एक नीच जाति की लड़की का ये साहस कि वह उसकी बात न माने उसका अपमान करे। जोगिन्दर दूर खड़ा तिलमिला रहा था। सभी मज़दूर काम छोड़ कर खेत में हो रहे तमाशे को देखने लग गये। अपना ये अपमान जोगिन्दर की सहनशक्ति के परे था। वह भी चिल्ला रहा था, "...कुतिया... रं... काम आता नहीं। बातें बनाती है। कल से काम पर न आना... कल से दोनो माँ-बेटी को काम पर आने की जरूरत नाय है।"

अपने सम्मान की धज्जियाँ उड़ते देख वह दुर्गी व उसकी माँ के चरित्र... स्त्रीत्व पर आक्रमण कर रहा था, जो कि सबसे सरल है मार्ग है स्त्रियों के मनोबल को तोड़ने का। दुर्गी को अब भी स्मरण है उसकी दलित बस्ती के अनेक स्त्री-पुरुष उस समय खेतों में काम कर रहे थे किन्तु उस समय कोई भी उनके समर्थन में खड़ा न हुआ। 

दूसरे दिन से दुर्गाी व उसकी माँ वहाँ काम पर न जा सकी थीं। दुर्गी को यह संतोष था कि अपने अपमान का प्रतिकार करने का साहस उसने किया था। काम का क्या है? परिश्रम करने वालों को कहीं भी काम मिलता है। यह तथ्य वह जानती थी।

आज इतने वर्षों के पश्चात् उसे पुनः वैसी ही परिस्थिति का सामना करना पड़ रहा है। उसे पुनः उसी साहस की आवश्यकता पड़ गयी है। अन्तर मात्र यह है कि आज वह अकेली है। उस समय उसकी माँ उसके साथ थी। अकेली होने पर भी दुर्गी का साहस कम नहीं हुआ है। 

उसे स्मरण आ रहे हैं किशोरावस्था के वे दिन जब दुर्गी का ब्याह तय हो चुका था। उसी शहर के दूसरी दलित बस्ती में रहने वाले जीवन राम के साथ। जीवन भी मज़दूरी करता था। वह हृष्ट-पुष्ट परिश्रमी व सुदर्शन नौजवान था। उसमें विशेष बात यह थी कि वह दलित बस्ती में रहने वाले अधिसंख्य लड़कों की भाँति दुर्व्यसनों से दूर था। मात्र अपने काम से मतलब रखना व व्यर्थ के लड़ाई झगड़ों से दूर रहना उसका स्वभाव था। 

जीवन उससे अत्यन्त प्रेम करता था। वह उससे कहा करता कि उसे पत्नी के रूप में पा कर वह बहुत ख़ुश है। दुर्गी की किसी बात को टालता नहीं था। उसकी प्रत्येक इच्छा पूरी करने  का प्रयत्न करता था। 

उस दिन भयानक काले बादल छाये थे। शहर जल से आप्लावित हो गया था। स्थान-स्थन पर नालियाँ रुक रही थीं। सुबह से काम पर गया जीवन सड़कों की सफ़ाई कर घर आ कर भोजन करने के उपरान्त आराम कर रहा था। तीन बज रहे थे। उसी समय उसके सुपरवाइज़र का फोन आया, नालियों की सफ़ाई होनी है तुरन्त आओ।" जीवन ने सायकिल उठाया और चल पड़ा।

रात्रि के आठ बज गये थे। काम पर गया जीवन अब तक नहीं लौटा था। दुर्गी जीवन के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। व्याकुल हो रही थी। ससुर के यह कहने पर कि,  "साहब लोगों की कालोनी में सफाई हो रही है। तीन बजे तो गया है। इतनी शीघ्र काम पूरा कहाँ हो पायेगा? ऐसे इमरर्जेंसी के कार्यों में समय लगता है। तू जा खाना खाकर सो जा। फिक्र मत कर।" दुर्गी की व्याकुलता कुछ कम हुई। 

रात गहराती जा रही थी। जीवन अब तक नहीं लौटा था। दुर्गी की आँखों से नींद उड़ चुकी थी। वह जीवन के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। व्याकुल हो रही थी। सुबह से हो रही बारिश अब थम गयी थी, किन्तु असमान अब भी काले बादलों से आच्छादित था। रह-रह कर बिजली गरज-चमक रही थी। उसने खाना नहीं खाया। जीवन की प्रतीक्षा करते-करते न जाने कब उसकी आँख लग गयी थी। सहसा शोर-शराबे की आवाज़ सुन कर उसकी आँख खुल गयी। उसने अनुमान लगाया कि अभी रात्रि आधी ही व्यतीत हुई है। आधी रात को उसकी सास को ये क्या हो गया है? क्यों छाती पीट-पीट कर रो रही है। क्या उसकी तबीयत ख़राब हो गयी है? वह घर के बाहर की ओर भागी जहाँ दरवाज़े पर उसकी सास व श्वसुर दोनों बैठे विलाप कर रहे थे। उसके वहाँ पहुँचते ही उसकी सास ने उसे अंक में कस कर दबा लिया। दुर्गी समझ नहीं पा रही थी कि सास के करुण विलाप व ससुर के रुँधें गले की सिसकियों का अर्थ। वह प्रश्नवाचक दृष्टि से ससुर को देखने लगी। "जीवन... जीवन..." जीवन का नाम सुनते ही उसने सास से पूछा "जीवन... जीवन को क्या हुआ..?"

"जीवन हमें छोड़ कर चला गया रे..." रोते-रोते सास के दाँत बँध गये।

दुर्गी जड़ हो कर बैठ गयी। ... न कोई दुख... न कोई पीड़ा...। सब कुछ जीवन के साथ चला गया। वह रोई अवश्य छुप-छुप कर रातों में... अकेले में... दोपहर के सन्नाटे... में...। एक क्षण के लिए भी जीवन को विस्मृत करना असंम्भव था। महीनों दुर्गी व्याकुल रही। न खाने की सुध न पीने की। वह जीवन की स्मृतियों से लिपटी रही। किन्तु कब तक...? उसके बूढ़े अस्वस्थ श्वसुर व सास की देखभल भी तो करनी थी। अब वे जियेंगे तो किसके सहारे..? ले-देकर अब दुर्गी ही तो उनका सहारा है। 

दुर्गी के श्वसुर सुमेर ने दिन-रात एक कर दिया जीवन के स्थान पर दुर्गी को सफ़ाईकर्मी की नौकरी दिलाने के प्रयास में। जीवन सुमेर का इकलौता पुत्र था। वह निगम में सरकारी सफ़ाईकर्मी था। उसके स्थान पर दुर्गी को नौकरी मिल जाये तो दुर्गी को जीने के लिए कुछ सहारा मिल जाये। जब से सुमेर सेवानिवृत्त हुआ है उसकी थोड़ी-सी पेन्शन और जीवन के वेतन से घर चल रहा था। सुमेर की पेन्शन का अधिकांश पैसा उसकी व सास की दवाइयों पर व्यय हो जाता। जीवन के वेतन से ही घर चल रहा था। सुमेर दौड़ता रहा अधिकारी टरकाते रहे। दिन पर दिन व्यतीत होते जा रहे थे। देखते-देखते छः माह व्यतीत हो गये। सुमेर के पेन्शन के थोड़े से पैसों से घर चलाना असम्भव होने लगा। टूटी खपरैल व फूस के झोंपड़े से निर्धनता बाहर झाँकने लगी थी। सुमेर दौड़-भाग करते-करते थक गया किन्तु बात बन नहीं रही थी।

दुर्गी ने निश्चय कर लिया कि आज वह भी सुमेर के साथ कार्यालय जायेगी। साहब से मिलकर अपनी व्यथा... अपनी पीड़ा बतायेगी। वह कार्यालय आयी। सुमेर ने कार्यालय के उसे बाहर बरामदे में लगी बेंच पर उसे बैठा दिया व स्वयं भी बैठ कर प्रतीक्षा करने लगा साहब के बुलाने की। दो घंटे के पश्चात् बड़े साहब ने उन्हें भीतर बुलाया वह सुमेर के साथ बड़े साहब के कक्ष में दाख़िल हुई। बड़े साहब कुछ देर तक उसे घूरते रहे, तत्पश्चात् कुछ प्रश्न पूछे जिनके उत्तर दुर्गी ने दिये। 

"तुम्हारे अनुसार दोष तो सरकार का है ना?" बड़े साहब ने व्यंग्यात्मक लहज़े में कहा। दुर्गी कुछ बोल नहीं पा रही थी।

"तुम्हारा आदमी शराब पी कर नाले में उतरा था। फिर तुम्हें नौकरी क्यों चाहिए?" बड़े साहब ने आगे उसी लहज़े में कहा। 

"साहब, मेरा आदती शराबी-जुआड़ी नहीं था। वह किसी भी नशे का आदी नहीं था। वह तो सरकार का नौकर था। सुपरवाइज़र के बुलाने पर वहाँ सफाई करने गया था। सरकार! घर में वही अकेला कमाने वाला था,"अब दुर्गी में कुछ-कुछ साहस आ गया था। हाथ जोड़ते हुए दुर्गी ने कहा।

बड़े साहब कुछ देर तक मेज़ पर काग़ज़ उलट-पुलट कर काम करते रहे। दुर्गी व सुमेर मेज़ के समीप उसी प्रकार खड़े थे।

"हूँ... .हाँ... तुम्हें नौकरी मिल सकती है। किन्तु कुछ पैसे लगेंगे,"बड़े साहब मेज़ से दृष्टि उठाई तथा दुर्गी व सुमेर की ओर देखते हुए कहा।

"पैसे ...? क्यों साहब? वह तो सरकार का नौकर था। सरकार की इतनी दया भी न होगी कि वो उसकी जगह उसके परिवार को सेवा करने दें," अब सुमेर ने दोनों हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए कहा।

"होगी... ज़रूर होगी। किन्तु उसके लिए पैसे तो देने ही होंगे," बड़े साहब ने दृढ़ता पूर्वक कहा। 

दुर्गी समझ गयी कि बिना पैसे दिये बात नहीं बनने वाली है। अतः उसने विनम्रता पूर्वक पूछा, "कितने पैसे लगेंगे साहब?"

"पचास हज़ार," उसने दुर्गी की ओर देखते हुए कहा। 

"प... प... पचास हज़ार? घर में पेट भरने के लाले हैं। छः माह हो गये जीवन को गये हुए। न उसके काम का कोई पैसा मिला, न कोई पूछने आया। घर में हमारी देखभाल करने वाला वही एक था। हम इतने पैसे कहाँ से लायेंगे साहब...?" लगभग रुआँसा होते हुए सुमेर गिड़गिड़ाया। 

"पैसे तो लगेंगे। पैसों का इंतज़ाम हो जाये तो आना," कह कर बड़े साहब उठ कर चले गये। सुमेर व दुर्गी कुछ देर तक वहीं खड़े सोचते रहे फिर सुस्त क़दमों से कार्यालय से बाहर निकल आये। 

घर आकर दुर्गी ने अपनी दो जोड़ी सोने की झुमकी व एक जोड़ी चाँदी की पायल सुमेर के सामने रखते हुए कहा, "बाबू! ये गहने शादी में मुझे सुमेर ने चढ़ाये थे। झुमकियाँ भारी हैं। आजकल सोना भी महँगा है। बेच दो इन्हें। मुझे भरोसा है कि बड़े साहब को देने भर के पैसे अवश्य मिल जायेंगे।"

जीवन की माँ दुर्गी से लिपट कर रो पड़ी। रोना तो दुर्गी को भी आ रहा था। किन्तु जिन आँसुओं के सैलाब को उसने अब तक नेत्रों में रोक कर रखा था, वे जीवन की माँ के स्नेह भरे आलिंगन से नेत्रों से बाहर निकल बहने लगे, और वह जीवन... जीवन... चिल्ला कर रोने लगी। 

झुमके ले कर बेचने गया सुमेर शाम को सुनार की दुकान से लौट कर बाहर दालान में बिछी ढीली चारपाई पर बैठ कर पसीना पोंछ रहा था। दुर्गी ने उसे देखा तो तीव्र गति से उसके पास आ गई। 

"क्या हुआ बाबू...  कितने पैसे मिले? "

सुमेर ने कुछ नहीं कहा। कुर्ती की जेब में हाथ डाला और कपड़े में बँधी झुमकियाँ व पायल दुर्गी के समक्ष रखते हुए कहा, "नहीं बेचा। इन सबके बस तीस हजार ही दे रहा था वह सुनार। बेचने से पहले तुमसे पूछना जरूरी समझा इसलिए इन्हें लेकर वापस आ गया।"

"तीस हजार... ? बस्स? उस समय तो पच्चीस हजार की एक जोड़ी झुमकी थी। ये दो जोड़ी झुमकियाँ हैं, उस पर से एक जोड़ी पायल भी है। इतने कम पैसे क्यों दे रहा है वह सुनार?" दुर्गी ने जानना चाहा। 

"सुनार कह रहा था कि सोने की टँकाई व गर्दा झाड़ कर पैसे कट जायेंगे बचे पैसे तीस हजार ही मिलेंगे," सुमेर ने दुर्गी को समझाते हुए कहा। 

"ठीक है बाबू, जितने पैसे मिलें ले आओ। बड़े साहब को कुछ कम पैसे दे कर अपनी विवशता बतायेंगे तो वह हम पर दया कर अवश्य मान जायेंगे," दुर्गी ने कहा। 

"ठीक है बिटिया। कल हम फिर से सुनार की दुकान जायेंगे। आज जी बहुत थक गया है," कह कर सुमेर उसी ढीली चारपाई पर गठरी की मानिंद लेट गया। 

पूरे तीस हज़ार रुपये ले कर दुर्गी व सुमेर आज आज कार्यालय आये हैं। दुर्गी साहसी है। वह बपचन से ही संघर्ष करती आयी है। अब जीवन के न रहने पर जब सब कुछ टूट कर बिखर गया है, तब दुर्गी ने स्वयं को भी सम्हाला है साथ ही साथ वृद्ध सास-श्वसुर का भी सम्बल बनी है। उनके भीतर साहस का संचार कर उनमें जीने की इच्छा बलवती की है। शनै-शनै सब कुछ सामान्य होता लग रहा है। अब दुर्गी, सुमेर व उसकी सास सब दुर्गी के गर्भ में पल रहे जीवन के अंश के लिए जीना चाहते हैं। 

बड़े साहब ने आज चपरासी से शीघ्र ही उन्हें अपने कक्ष में बुलवा लिया है। दुर्गी व सुमेर ने एक साथ कमरे में प्रवेश किया। 

बड़े साहब ने तुरन्त पूछा, "पैसों का इन्तज़ाम कर लिया क्या...?"

दुर्गी के चेहरे पर चमक आ गयी। "हाँ साहब! ये लीजिये," कह कर उसने थैले से पैसे निकाल कर बड़े साहब की मेज़ पर रख दिये। 

"कितने हैं...? पूरे पचास हैं...?" पैसों की ओर देखे बिना बड़े साहब ने दुर्गी से पूछा।

बड़े साहब के चेहरे को देख कर दुर्गी को घबराहट-सी होने लगी। "नहीं साहब! सब कुछ बेचकर तीस का इन्तजाम हो पाया है," उसने डरते हुए कहा। 

’तीस’ सुनकर बड़े साहब के चेहरे पर आ गयी चमक देखकर दुर्गी को अच्छा लगा। 

"तीस में क्या होगा? माँगे तो पूरे पचास थे," अपने चेहरे के भावों को छिपाते हुए बड़े साहब ने कहा।

"साब! घर में फूटी कौड़ी नहीं है। इसके गहने बेचकर जितने मिले वो सब ले आया," सुमेर ने गिड़गिड़ाते हुए कहा। 

"ठीक है, तुम बाहर चलो। इतने पैसों में देखें क्या हो सकता है?" सुमेर की ओर देखते हुए बड़े साहब ने कहा। 

सुमेर के साथ दुर्गी भी बाहर निकलने लगी। इस बीच बड़े साहब ने मेज़ पर रखे पैसे उठा कर रख लिए थे। 

"दुर्गी!  तुम यहीं रुको।" बड़े साहब की आवाज़ सुन कर दुर्गी रुक गयी। सुमेर बाहर जा चुका था। 

"बैठो," बड़े साहब ने कहा।

"जी," कह कर सकुचाते हुए वह सामने की कुर्सी पर बैठ गयी। 

"ठीक है। इतने में तुम्हारा कार्य करने का प्रयत्न करेंगे। "

दुर्गी चुपचाप बड़े साहब की बातें सुन रही थी। बड़े साहब उठ कर दुर्गी की कुर्सी के समीप आ कर खड़ा हो गया। उसके कंधे पर दोनों हाथ रखते हुए उसने कहा, "बदले में तुम्हे मेरी सेवा करते रहनी होगी। "उसके हाथों का कसाव दुर्गी के कंधों पर बढ़ता जा रहा था। 

अब तक दुर्गी साहब के इरादों को भलिभाँति समझ चुकी थी। वह तीव्र गति से कुर्सी से खड़ी हो गयी। क्रोध व आवेश के कारण उसका शरीर काँप रहा था। वह चिल्ला पड़ी, "मेरा पति सरकारी मुलाजिम था। वह ड्यूटी करते हुए मर गया। नियमानुसार उसके स्थान पर मुझे मृतक आश्रित कोटे से नौकरी मिलनी है। जिसके लिए तुम हमंे छः माह से दौड़ा रहे हो। अब जिस नौकरी पर मेरा स्वाभाविक अधिकार है, उसके लिए तुमने पैसे मांगे वह भी हम दे रहे हैं। तुम लोग सदियों से हमारा शोषण कर रहे हो, कब तक और करोगे..? अब हम शोषण नहीं सहेंगे। मैं प्रदेश के सबसे बड़े हाकिम से मिलूँगी। कहीं तो मुझे न्याय मिलेगा। मेरे पैसे वापस करो।"

दुर्गी ने बड़े साहब की ओर देखा वह सूखे पत्ते की भाँति काँप रहा था। उसे दुर्गी के इस रौद्र रूप में आ जाने की आशा न थी। शीघ्रता से उसने अपनी जेब से रुपये निकाल कर मेज़ पर रख दिये। दुर्गी ने भी उतनी ही शीघ्रता से मेज़ पर पड़े रुपये उठा कर बड़े साहब की आँखों में देखते हुए कहा,  "मैं अपना अधिकार ले कर तुम्हें दिखा दूँगी। तुम्हे तन और धन दिये बिना।" चिल्लाती हुई दुर्गी कक्ष से बाहर निकल गयी। उसने देखा बड़े साहब के कक्ष के बाहर तमाशाइयों की भीड़ इकट्ठी हो गयी है। वह सुमेर के पास गयी और उसका हाथ पकड़ कर उसे सहारा देती हुई वहाँ से चल दी।

अपने कमरे के बाहर  लगी लोगों की भीड़ देख वह पसीने-पसीने हो रहा था तथा खड़ा सोच रहा था... "समय की चेतना को समझने में कितनी बड़ी भूल कर है उसने।" क्लर्क को बुला कर उसने तुरन्त कहा, "दुर्गी की नौकरी का नियुक्ति पत्र बना कर उसके घर के पते पर भेज दो।"

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