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बदलते भारतीय परिदृश्य में दलित

भारतीय परिदृश्य में क्या बदलाव हुए हैं? कैसे बदलाव हुए हैं और कब से हुए हैं? उन बदलाव का समाज और साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा है? ख़ास कर दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और स्त्रियों के संबंध में। यूँ तो समाज में समय-समय पर बदलाव स्वाभाविक रूप से होते रहते हैं, जैसे– खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा, मौसम, विचार इत्यादि के स्तर पर। इसके अनेक कारण हो सकते हैं जैसे– कुछ सामाजिक, कुछ आर्थिक, कुछ शैक्षिक, कुछ सांस्कृतिक कुछ राजनैतिक या कुछ प्राकृतिक हो सकते हैं। उन सबका मानव जीवन पर न्यूनाधिक प्रभाव पड़ता ही है क्योंकि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। आज न सिर्फ़ भारत में बल्कि दुनिया के लगभग सभी देशों में कोविद-19 महामारी प्राकृतिक आपदा के कारण सबकी दिनचर्या बदल गयी है। मध्यम और उच्च वर्ग के लोगों के काम करने के तरीक़ों में सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि हम वर्क फ़्रॉम होम के धीरे-धीरे अभ्यस्त हो रहे हैं या यह कहें कि हम कोरोना महामारी के भय से मजबूर हो कर अपनी जीवन शैली और कार्य पद्धति बदल रहे हैं। इसका प्रामाणिक उदाहरण तो यह है कि आज हम सब कार्य चाहें कक्षाएँ हों या ऑफ़िस सब अपने-अपने घरों में बैठ कर इन्टरनेट के द्वारा एक दूसरे से जुड़ कर रहे हैं। अब से बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व क्या कभी किसी ने सोचा होगा कि स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय और ऑफ़िस घर बैठ कर संचालित हो सकेंगे। एक तरफ़ यह प्राकृतिक आपदा में बहुत बड़ा विकल्प है, इसके लिए विज्ञान का चमत्कार ही कहेंगे जो शिक्षा ज्ञान-विज्ञान के द्वार खोलती है। इस बदलाव ने बहुत कुछ छीना है तो बहुत कुछ नये अनुभवों से रूबरू कराया है। 

बदलाव हमेशा सकारात्मक ही हों यह ज़रूरी नहीं है, और बदलाव सभी पर एक जैसा प्रभाव डालते हों यह भी आवश्यक नहीं होता है। कोरोना के दौर में लॉकडाउन के बाद सबसे नकारात्मक प्रभाव मज़दूर वर्ग की जीविका पर पड़ा है। बहुत से मज़दूर, ठेली, रेहड़ी धंधे करने वाले लोगों के काम इस दौर में अचानक बन्द हो गये। इस संकट की घड़ी में बहुत से मज़दूरों के लिए भोजन, आवास और यातायात की समस्याएँ कोरोना से भी अधिक भयावह बनी हैं। कुछ मज़दूर मिलों, फ़ैक्ट्रियों में काम करते थे और वहीं उनके रुकने का आसरा था जब कोरोना में मिलें फ़ैक्ट्रियाँ बन्द हो गयीं तब ऐसी स्थिति में मज़दूरों के सामने दोहरे संकट आ गये थे। वे बेरोज़गार तो हुए ही थे। आवास विहीन भी हो गये थे। पूँजीवादी युग में महानगरों में उनका क़द वैसे ही छोटा था। कोरोना महामारी के कारण लॉकडाउन में उनका क़द और भी छोटा हो गया था। इसी कारण देश के अनेक महानगरों से हज़ारों की संख्या में अपने छोटे-छोटे बच्चों, यहाँ तक कि गर्भवती पत्नियों को साथ लेकर वे लेकर गाँव की ओर पैदल निकल पड़े थे क्योंकि लॉकडाउन के कारण यकायक यातायात से सभी साधन बन्द हो गये थे। क़रीब दो माह शहरों से गाँव की ओर मज़दूरों का पलायन बहुत तेज़ी से हुआ था। कुछ मज़दूर जुगाड़ गाड़ी बना कर निकले थे, तो कुछ पैदल ही भाग छूटे थे।  

एक 12 साल की दलित लड़की ‘ज्योति पासवान’ साइकिल चलाना जानती थी, अतः उसने जनधन खाते से 500 रुपये निकाल कर किसी तरह पुरानी साइकिल ख़रीदी और अपने बीमार पिता को साइकिल पर बैठा कर आठ दिनों में 1200 कि.मी. की यात्रा तय कर के अपने गाँव सिंहबाड़ा, दरभंगा, बिहार पहुँची। दिल्ली में उसके पिता रिक्शा चलाते थे। ट्रक की टक्कर से उनको चोट लग गयी। ज्योति पासवान पिता की सहायता के लिए गाँव से स्कूली पढ़ाई छोड़ कर दिल्ली आई थी। यहाँ आई तो कुछ महीनों के बाद ही कोरोना महामारी के कारण काम बंद हो गया था। भूखों मरने पर गाँव जाने की सोची मगर बस और ट्रेन बंद थीं। इस बेटी की बहादुरी के चर्चे सोशल मीडिया और बाद में मीडिया में छाये रहे। अमेरिका की मीडिया और ट्रंप की बेटी इंवाका ने भी नोटिस लिया। इसके अलावा न जाने कितने मज़दूर अपने गाँव तो पहुँचे मगर उनमें से बहुत से मज़दूर अपने घर नहीं पहुँच सके। उन्होंने भूख-प्यास से त्रस्त रास्ते में ही दम तोड़ दिया था। इनके लिए कुछ राहतें मीडिया में चमक रही थीं। कुछ राहत शिविर ऊँट के मुँह में जीरा वाली कहावत अधिक चरितार्थ हुईं। पूरे देश में इन मज़दूरों की संख्या हज़ारों से लाखों में बदल गयी थी। आनंद विहार, दिल्ली और मुबंई की सड़कों पर मज़दूरों का सैलाब ऐसा लग रहा था जैसे अंग्रेज़ी राज्य में हज़ारों की संख्या में मारिशस, सूरीनाम इत्यादि देशों में अंग्रेज़ों और फ्रांस सरकार के साथ एग्रीमेंट पर अघोषित ग़ुलामों को भेजा गया था क्योंकि यूरोप में उन्नीसवीं सदी में ग़ुलाम प्रथा क़ानूनन रूप से समाप्त हो चुकी थी मगर ग़ुलामों की आवश्यकता बनी हुई थी। भारत दलितों, आदिवासियों के लिए ग़रीब देश ही रहा है। यह बात अलग है कि यहाँ अमीर लोग भी रहते हैं जो दलितों को जातीय आधार पर अघोषित ग़ुलाम बनाये रखना आज तक न सिर्फ़ चाहते हैं बल्कि उसी तरह की नीतियाँ बन रही हैं। वे ग़ुलामी के चक्रव्यूह से निकलना भी चाहें तो निकल नहीं सकते। 

कोरोना काल के लॉकडाउन में मौत के आँकड़े भी सरकार ने इकट्ठा करने की इच्छा ज़ाहिर नहीं की। यदि की होती तो मज़दूर कोरोना से उतने नहीं मरे जितने लॉकडाउन के बेइंतज़ामी में भूख से मरे। इस महामारी ने मानों मनुष्य की संवेदना का क़त्ल ही कर दिया है। एक दृश्य ऐसा देखा गया जिसमें एक बच्चा भूख से विक्षिप्त सड़क पर किसी मरे हुए जानवर का माँस खा रहा था। संवेदना को झकझोरने वाला एक और वीभत्स चित्र तो ऐसा देखा गया जिसमें मज़दूर इंसान के मृत शरीर को जानवर खाते हुए दिखाई दिए। मज़दूरों का पलायन अभी रुका नहीं है। वे पहले कोरोना महामारी से बचने के भय से और शहरों में कोई आर्थिक और आवास का ठिकाना न होने की वज़ह से जान बचाने के लिए गाँव की ओर तमाम जोखिम उठाते हुए जत्थों में निकलते पड़े थे। यह एक अलग तरह की त्रासदी है। गाँव में अगर रोटी का जुगाड़ होता तो वे शहर की ओर पलायन नहीं करते। अब वे फिर गाँव से शहरों की ओर लोग जीविका के लिए पलायन कर रहे हैं। महानगर इन्हें चार पैसे तो दे देता है मगर ढ़ंग का  तो इनके पास आवास होता है और न पानी और न शौच की व्यवस्था होती है। इन मज़दूरों का गाँव से पलायन करीब 1980 के बाद शुरू हो चुका था, इसमें तेज़ी 1990 के बाद आई। सन् 2000 के बाद तो शिक्षित बेरोज़गारों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। दोहरी शिक्षा नीति का परिणाम ही है कि सरकारी स्कूलों की स्थिति निरंतर गिरी है ख़ास कर हिन्दी भाषी प्रदेशों के स्कूलों की। वहाँ पहले से ही अंग्रेज़ी छठी कक्षा से पढ़ाई जाती रही है। छठी कक्षा में आने के बाद यह ज़रूरी नहीं कि सरकारी स्कूलों में अंग्रेज़ी के अध्यापक हों। अध्यापक तो न साइंस के हैं, न गणित के न इतिहास और भूगोल के। यदि कहीं किसी स्कूल की क़िस्मत अच्छी हो और अंग्रेज़ी का अध्यापक मिल भी जाए तो एबीसीडी से शुरू करके यानी नर्सरी कक्षा के कोर्स से सीधे छठी कक्षा तक लेबल को एक साथ समझना किसी छात्र के लिए आसान नहीं होता है। एक अध्यापक या शिक्षा मित्र पूरे स्कूल को ऐसे सम्भालता था, अभी भी वही स्थिति बनी हुई है। नई शिक्षा नीति में भी इन सरकारी स्कूलों को कोई राहत नहीं है। यहाँ पढ़ने वाले बच्चे पहले ही की तरह छठी कक्षा से अंग्रेज़ी पढ़ा करेंगे। दूसरी तरफ निजी स्कूलों के बच्चों को प्रीनर्सरी से ही अंग्रेज़ी में बोलना और लिखना सिखा दिया जाता है। इन निजी स्कूलों के विभिन्न लेबल हैं। यानी जितना मीठा डालो उतनी मिठास आएगी। शिक्षा की यह दोहरी नीतियाँ देश को दो भागों में बाँट रही हैं। अमीर और ग़रीब मानों दो धुर्वों में बँटे हुए स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं या यह कहें कि एक मालिक दूसरा ग़ुलाम जैसी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक व्यवस्थाएँ आँखों के सामने साकार हो रही हैं। सवाल उठता है कि ये ग़रीब लोग कौन हैं? कहाँ से आये हैं? निश्चित ही ये भारत के ही के मूलनिवासी हैं, फिर ये इतने विवश क्यों हैं? ये मेहनतकश भी हैं फिर इनको श्रम का मेहनताना इतना कम क्यों मिलता है? वे कोरोना महामारी के लॉक डाउन जैसे आपातकाल में एक दो माह भी अपनी जमा-पूंजी से पेट नहीं भर सके। क्या कारण हैं वे बेघर क्यों हैं? क्योंकि इन सवालों का संबंध समाज और दलित साहित्य से है और बदलते भारत से भी इनका संबंध है। सवाल है कि देश में अच्छे दिन और विकास के नारे खूब प्रचारित तो हुए मगर इनकी झोली में न अच्छे दिन आए और न इनका कोई विकास हुआ। यदि हुआ होता तो ये इस तरह गाँव से शहर और शहर से गाँव रोज़ी-रोटी के लिए भागते नहीं घूम रहे होते। सवाल यह भी है कि आख़िर ऐसा क्यों और कब तक होता रहेगा? कब ये अपनी अघोषित ग़ुलामी से मुक्त होंगे? होंगे भी या नहीं? बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने जो देश की तस्वीर देखी थी क्या यह वही तस्वीर है? क्या देश को आज़ाद कराने के लिए शहीद भगत सिंह, राजगुरू, सुभाषचंद बोष ने अपनी क़ुर्बानियाँ दी हैं तब देश के ये दलित, आदिवासी अपने ही देश में अपनों के ग़ुलाम क्यों बने हुए हैं?  
 

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