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दलित साहित्य के यक्ष प्रश्न

साहित्य जगत के साहित्य के वर्गीकरण के अनेक स्वरूप हैं, समकालीन, प्रगतिवाद, नारीवाद, बाल साहित्य तथा दलित साहित्य। दलित साहित्य की दिशा में श्री रामगोपाल भारतीय के इस भागीरथ प्रयास में कुछ दलितों की दशा और दिशा से जुड़े अनेक यक्ष प्रश्नों के उत्तर देश के लगभग सभी प्रान्तों से दस्तावेज़ साहित्यकारों के विचार प्राप्त करने की एक सकारात्मक कोशिश की है। इस माध्यम से दलित समस्याओं के समाधानों तक पहुँचने की एक अर्थपूर्ण कोशिश में देश भर के प्रधान लेखकों ने अपने अपने विचारों को अभिव्यक्त किया। इस साधना रूपी प्रयास के एवज़ : “दलित साहित्य के यक्ष प्रश्न” नामक संग्रह 2009 में प्रथम संस्कारण के रूप में श्री नटराज प्रकाशन द्वारा मंज़रे-आम पर आ पाया। मैं श्री रामगोपाल भारतीय जी की तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ जो मुझे भी देश के इस समस्या प्रधान विषय पर अपने विचार अभिव्यक्त करने का मौक़ा दिया...!


 
रामगोपाल भारतीय:

आप दलित साहित्य किसे मानती हैं, जो दलितों द्वारा लिखा गया है अथवा अन्य के द्वारा लिखा गया दलित साहित्य भी?

देवी नागारनी:

यह दलितों द्वारा या अन्य साहित्यकारों द्वारा लिखा हुआ साहित्य हो सकता है। यह वह साहित्य है जिससे दलितों में एक स्वाभाविक स्वाभिमान जागृत हो, उनमें अपने ऊपर होने वाले अन्याय के एवज़ प्रतिकार करने की चिंगारी सुलग उठे। जो उन्हें सामाजिक-आर्थिक असमानता का हाशिये पर न धकेल दे,  उन्हें स्वाधीनता की राह दिखाये, वही साहित्य दलित साहित्य है, फिर चाहे लिखने वाला कोई भी क़लमकार हो।  

रामगोपाल भारतीय:

आप दलित साहित्यकार किसे मानती हैं, दलित समाज से जन्मत: जुड़े साहित्यकार अथवा अन्य सभी साहित्यकार जो दलित साहित्य लिख रहे हैं?

देवी नागारनी:

साहित्यकार वही होता है जो लेखनी के माध्यम से सच को प्रकट कर सके, सच के सामने आईना रख सके, लाचारी के, मुफ़लिसों के पर्दे को हटाकर उनमें से झाँकती हुई हर मजबूरी को संप्रेषित कर सके, जातिवाद की राजनीति से ऊपर उठकर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाए। सामाजिक क्रांति में क़लम के माध्यम से भाग ले और उस चिंगारी को बुझने न दे जब तक लक्ष्य हासिल नहीं हो जाय। अब तो देश और भाषाओं की सीमाएँ सिमट रही हैं, साहित्य के माध्यम से एकमत होकर एक पूर्ण समाज का संकल्प कर रहे हैं। शिक्षा के कारण हर भाषा में साहित्य उपज रहा है और प्रखर स्वर से सामने आ रहा है। आज़ादी के बाद यही एक क्रांति सबल रूप से आई है जो आदमी को पग-पग तरक़्की की ओर ले जा रही है। गाँव से नगर, नगर से शहर और अब देश-विदेश में साहित्य लेखन के माध्यम से भाषा के प्रचार-प्रसार के द्वारा जो साहित्य दलितों द्वारा लिखा गया है वह उनकी जी हुई अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है, उनकी विडंबनाओं की, उनके सीमित दायरों की कहानी है। इसी लेखन द्वारा वे अपनी माँग, अपनी अस्मिता की पहचान पूरी तरह पाने की माँग सामने रखते है, कुंठित दायरों से बाहर आने की आज़ादी चाहते हैं। उन कुनीतियों को सामने लाने वाला फिर चाहे कोई दलित साहित्यकार हो या कोई अन्य। जो बुलंद आवाज़ में अपनी माँग सामने लाये और इन्साफ़ के पैमाने पर खरा उतरे वही दलित साहित्यकार है।    

रामगोपाल भारतीय:

वर्तमान में दलित की दशा और दिशा क्या है?

देवी नागारनी:

कुछ कहा नहीं जा सकता। सच लिखने में कितनी आज़ादी ली जाती है, कितनी पराधीनता के स्वरों में सामने आती है। एक का सच दूसरे का झूठ साबित हो सकता है। जब तक वह साहित्य पथ-प्रदर्शन करने में सक्षम नहीं, तब तक मार्गदर्शन भी मुश्किल है। रोशनी ही अँधेरों का अंत ला सकती है।    

रामगोपाल भारतीय:

क्या दलित साहित्यकार दलित समाज के प्रति न्याय का रहे हैं?

देवी नागारनी:

सवाल फिर उठता है की वे स्वतंत्र लेखन को सामने ला रहे हैं या किसी अन्य गुट के प्रति अपनी वफ़ादारी का प्रमाण सामने ला रहे हैं। पथ प्रदर्शन करने के लिए अग्निपथ पर चलना पड़ता है। रोज़मर्रा जीवन की उलझनों का समाधान ढूँढ़ने वाले दलित सहित्यकार भी आम इसान हैं। कोई मापदंड तो है नहीं कि परखा जाय कि कौन कितना दूध पानी में मिला रहा है, या पानी दूध में मिला रहा है। आम इंसान की मानिंद कहीं न कहीं लेखक भी अपने हिस्से की भूख मिटाना चाहता है, और उसके लिए किन-किन तक़ाज़ों से उसे गुज़रना पड़ता है, यह तो समय  और परिस्थितियाँ तय करती हैं। न्याय-अन्याय ज़मीरों की भाषा है, जिसकी आत्मा ज़िंदा है, वह सच का साथी है और तो सभी सुराखों वाली नैया के खेवट बने हुए हैं। 

रामगोपाल भारतीय:

क्या अन्य साहित्यकार दलित समाज के प्रति न्याय कर रहे हैं?

देवी नागारनी:

न्याय अन्याय के मतभेद से ऊपर उठना है, जो सच है उसका साथ देकर मानवता के उसूलों को ज़िंदा रखना है। समाज एक समूह है जहाँ एक से एक जुड़कर दो बनते हैं और फिर संगठन। अच्छा अपनी अच्छाई न छोड़े और बुराई को बुराई न रहने दे, अपना कार्य निष्ठा और सकारात्मक सोच के संकल्प को मार्गदर्शित करते रहें। मंज़िल ज़रूर दिखाई देगी। 

रामगोपाल भारतीय:

वर्तमान परिवेश में दलित साहित्य की क्या आवश्यकता है और उसकी सीमाएँ क्या हैं?

देवी नागारनी:

दलित साहित्य के माध्यम से दलितों को सम्मान, साहस और समानता पूर्ण अधिकारों से अवगत कराया जा सकता है। हाँ वक़्त की दरकार हो सकती है पर सीमाएँ किसी भी परिधि में क़ैद नहीं की जा सकतीं। शिक्षा की रोशनी में वे ख़ुद अपना, अपने वजूद का मूल्यांकन कर पाएँगे, अँधेरों से एक सुरंग खोदकर वे उजाले में अपनी मान्यता, धर्म, जाति के बंधनों से जब ख़ुद को मुक्त करा पाएँगे, तब प्रगति का शाही मार्ग उन्हें विकास के पथ पर आगे ले जाएगा। Sky is the limit . 

रामगोपाल भारतीय:

क्या कुछ दलित साहित्यकार पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं?

देवी नागारनी:

यह एक स्वाभाविक मानसिकता की उपज हो सकती है, और इस भावना से मुक्ति पाना इतना आसान नहीं है। समाज में वर्गीकरण के तहत अगर जाति-भेदभाव पर अंकुश नहीं लगता, दलितों  के लिए उन्नति की राहें खुलने के संभावनाएँ तब तक बस एक सपना बनकर रह जाती हैं, अगर इस संदर्भ में जातीयता प्रबल है, फिर तो दलितों पर लिखा साहित्य भी निरर्थक है। 

रामगोपाल भारतीय:

क्या कुछ ग़ैर-दलित साहित्यकार पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं?

देवी नागारनी:

हाँ, इस स्थिति से ग़ैर-दलित साहित्यकार भी गुज़र रहे हैं। असामनता और अत्याचार का विचारधारा पर प्रभाव पड़ना मुमकिन है। दलित साहित्य अपने विमर्श और चिंतन के कारण ही अपनी पहचान पाता है, इसके विपरीत अगर साहित्य कुछ बदलाव लाने में मददगार सिद्ध नहीं बन पड़ता, तो फिर पन्ने काले करने से कोई मतलब नहीं। क्रांति साहित्य की उपज होनी चाहिए।  
 रामगोपाल भारतीय:

स्वतन्त्रता पूर्व व स्वतन्त्रता पश्चात साहित्यकारों में आप किन-किन साहित्यकारों को दलित साहित्य का दर्जा देना चाहेंगे?

देवी नागारनी:

संतों की वाणी में गुरु नानक, रविदास, कबीर ने उल्लेखनीय तंज़ में दलितों के बारे में दोहावली, मुक्तक के रूप में साहित्य का सृजन किया। स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात अनेक साहित्यकारों ने क़लम की ज़ुबानी उनकी अवस्था को बयान किया। उनमें एक नाम डॉ. भीमराव अंबेडकर का विशेष महत्व रखता है। स्वतन्त्रता के बाद जिन हस्तियों ने दलित साहित्य को आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई, उनमें उल्लेखनीय हैं– सारिका के संपादक कमलेश्वर जी, डॉ. महीपसिंह जी, डॉ. रेणु दीवान, हंस के संपादक राजेंद्र यादव, वाङ्ग्मय के संपादक फेरोज अहमद, दिल्ली विश्वविद्यालय से डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी। अन्य कई समाज सुधारक जो अपने ढंग से इस लड़ाई में जुटे रहे ऐसे अनुभूति से अभिव्यक्ति तक का सफ़र करने वालों में – नागार्जुन, रामधारी सिंह दिनकर, अदम गोंडवी जो क़लम से तलवार का काम लेने के पक्षधर  रहे, अपने जीवन को इस लक्ष्य के लिए समर्पित कर दिया।

अब उस कड़ी में अन्य कई दलित साहित्यकार अपनी क़लम के तेवरों से पहचान पा रहे हैं,  जिनमें मुख्य है- मोहनदास नैमिशराय, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ. कुसुम वियोगी, स्नेही, कालीचरण, सूरज पल चौहान , रजनी तिलक आदि..!

रामगोपाल भारतीय:

क्या सरकारी या निजी स्तर पर दलित को प्रोत्साहन दिया जा रहा है?

देवी नागारनी:

सरकारी और निजी तौर पर अब जागरूकता के कारण दलित साहित्य को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। आदिवासी आज़ादी का अर्थ तब ही पूर्ण रूप से जान पाएँगे, जब दलित अपने आज के स्तर से ऊपर उठकर समाज के हर क्षेत्र में अपना स्थान बनाकर, अपनी पहचान पाएगा। 

रामगोपाल भारतीय:

क्या मीडिया में दलित सवालों (साहित्य) को उचित प्रतिनिधित्व मिल रहा है?

देवी नागारनी:

इस आज़ाद देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी है। ऐसे मुक्त समाज में प्रेस का भी कर्तव्य है, बिना किसी भय, किसी दबदबे से मुक्त होकर लोगों तक सही जानकारी पहुँचाए। अब कौन अपना दायित्व पूरी निष्ठा और ईमानदारी से निभाता है, इसका कोई मापदंड तो नहीं है। अगर ऐसा हो तो मसाइल घटते जाएँगे और उन्हें बार-बार उठाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। पर लगता है प्रैस पर भी कहीं न कहीं अंकुश होंगे। यही मानकर, जो छपता है उसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी भी एक मुद्दे को लेकर हम उसके विकास की ओर जाती दिशा में कितना आगे बढ़ रहे हैं। जवाबों की तलाश में सवाल आधे-अधूरे आज भी लटक रहे हैं।

रामगोपाल भारतीय: 

क्या साहित्य-पुरस्कारों के चयन में दलितों को उचित प्रतिनिधित्व है?

देवी नागारनी:

नहीं, उनका प्रतिनिधित्व न के समान है। बरसों से शोषित पीड़ित मानवता के बारे में जब एक सच्चा साहित्यकार लिखता है, तो दलित जाति का प्रतिनिधित्व करने वाले उन्हें सर आँखों पर बिठा देते है। श्रद्धा से उनका सर झुक जाता है और वे आश्वस्त अवस्था का सुख भोगते हैं, कि उस एक पल में उनके जीवन का अंधकार उजालों में तब्दील होने वाला है। यही सबसे बड़ी उपलब्धि है दलित साहित्यकार के लिए और यही पुरस्कार भी। बावजूद इसके अपनी तारीफ़ किसे अच्छी नहीं लगती, अब पुरस्कार पाने की ललक उनसे क्या कुछ नहीं कराती... ये तो राम जाने...!  
 रामगोपाल भारतीय:

आपकी राय में दलित साहित्य के संवर्द्धन हेतु और क्या उपाय किए जाने चाहिए?

देवी नागारनी:

दलित अधिकार केंद्र के माध्यम से अपनी आवाज़ को सत्ता तक पहुँचाने का प्रयास करना चाहिए। विकसित समाज में उन्हें शिक्षा, रोज़गार, और राजनैतिक प्रतिनिधित्व के अवसर भी मिलने चाहिए। जब तक वे आम-जनता का हिस्सा नहीं बनते, तब तक वे पिछड़े वर्ग के ही रहेंगे। शिक्षा मूल है जो उनकी अंधेरी राहों को रौशन कर पाएगी। जो धर्म और जात के नाम पर बुने हुए जाल में धँसे हुए हैं, उन्हें मुक्ति द्वार की चौखट पर बलि न चढ़ाया जाय। स्वतंत्रता सही माइने में उनके जीवन शैली व सामाजिक सुविधाओं से व्यक्त होनी चाहिए। अगर आज़ादी के नाम पर, मजबूरियों की जकड़न का अहसास साथ हो तो आज़ादी बेमानी सी लगती है। मानवता अपने अधिकारों से वंचित हो, यह आज़ादी पर ग़ुलामी का अंकुश है।  

रामगोपाल भारतीय:

साहित्य की किन विधाओं में दलित साहित्य अधिक लिखे जाने की आवश्यकता है?

देवी नागारनी:

साहित्य एक ऐसा माध्यम है, जिसमें से नए समाज और संस्कृति के अंकुर फूटकर अपने आपको व्यक्त करते हैं। जाति वर्ण के नाम पर अमानवीयता अपना परिचय आप देती है। डॉ. अंबेडकर सामाजिक क्रांतिकारी रहे और सविंधान–निर्माता बने, इस तरह का सामाजिक परिवर्तन व प्रयास प्रवाहित रहना चाहिए। महात्मा फुले ने छुआ-छूत के भेद भाव को जड़ों से उखाड़ने का प्रयत्न किया, बावजूद इसके आज भी पिछड़े क्षेत्रों में कहीं-कहीं जनमानस को नल से, या कुएँ  से पानी भरने से रोका जाता है। जाति-सूचक सिर्फ़ शब्द ही नहीं बर्ताव भी है, जिसके कारण  उन्हें पानी भरने के लिए कोसों दूर जाना पड़ता है, उन्हें चक्की से आटा पिसवाने नहीं दिया जाता। कई स्कूलों में सामान्य शागिर्दों के साथ उन्हें बैठने की मनाही होती है। छूत-छात के इस बर्ताव से मानुष-अमानुष साफ़-साफ़ दिखाई देते हैं। इन छोटी-छोटी क्षतिकारक बातों से व भावनात्मक स्थितियों से गुज़रते हुए पीड़ा और मान-हानि की अवस्था को झेलना अति मुश्किल हो जाता है। आक्रोश के बीज पनपने लगते है, ख़ून में ग़ुस्से का उबाल महसूस किया जाता है, पर बेबसी...हाय बेबसी...! आज़ादी के नाम पर अब भी ग़ुलामी की बेड़ियाँ जकड़ती रहती हैं। इस पिछड़ी जात के लोगों की बस हुकूमत बदली है, पहले विदेशी थी अब स्वदेशी है।    

रामगोपाल भारतीय:

क्या महानगरों में दलित साहित्यकार छोटे नगरों व ग्रामों के दलित साहित्यकारों की उपेक्षा कर रहे हैं?

देवी नागारनी:

हाँ, इसका प्रमुख प्रभाव उनके लिखे साहित्य से होता है, जो महानगरों के साहित्यकारों से कई गुना बेहतर व उचित व समाधानों के तत्वों से लबालब होता है, पर छप नहीं पाता। और तो और उन्हें चोंचलेबाज़ी और साहित्यिक राजनीति का शिकार होना पड़ता है।   

रामगोपाल भारतीय:

क्या दलित साहित्यकार कहीं-कहीं राजनीति के शिकार हैं?

देवी नागारनी:

हाँ होते हैं, जब राजनीति पूरे समाज पर अपना असर दिखती है तो भला सामान्य इंसान और ऊपर से दलित साहित्यकार कैसे उस प्रभाव से बच पाये। आज कई साहित्यकार इस कुंठा से ग्रसित हैं, इसी कारण भी लेखक को इस प्रकार की राजनीति से दूर रहना चाहिए। 

रामगोपाल भारतीय:

क्या दलगत राजनीति प्रतिबद्धता दलित साहित्य का मार्ग अवरुद्ध कर रही है?

देवी नागारनी:

आज हर दल अपने फ़ायदे की सोचता है। गुटबंधी में बज़ारवाद का स्वरूप व चलन आम दिखाई देता है। हालाँकि साहित्य का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं, बावजूद इसके राजनैतिक सत्ता अपना प्रभाव ज़रूर दिखाती है।  

रामगोपाल भारतीय:

क्या दलितों के इतिहास का पुनर्लेखन ज़रूरी है?

देवी नागारनी:

दलितों के साथ किए गए भेद-भाव के क़िस्से अक़्सर सामने आते रहते हैं, जिससे यह अंदाज़ा तो लगाया जा सकता है कि जातीय सूचक शब्द का प्रयोग उनकी पहचान की तरह उनके परिचय के साथ चिपका हुआ है। अगर लेखन इसका उपचार बन सकता है तो ज़रूर इसका पुनर्लेखन होना चाहिए।   

रामगोपाल भारतीय:

सवैधानिक सरंक्षण के बावजूद आज भी दलितों पर दबंगों के अत्याचार जारी है, आपकी राय में उन्हें रोकने के क्या उपाय हैं?

देवी नागारनी:

सामाजिक दृष्टि से पिछड़े हुए लोग आवाज़ भी उठाते हैं तो वह सत्ता तक पहुँचने में असमर्थ है। उनके साहित्य के इतिहास का पुनर्लेखन ज़रूरी है –उसमें उनकी शिक्षा का, राजनीति के पद ग्रहण करने का, स्वाभिमानी बने रहने का संदेश हो। वे इतने प्रबल हों कि उन पर कोई आक्रमण कर न पाये, वे अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठा पाएँ। पुलिस विभाग में भी ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा में भर्ती हों, ताकि वे अपने जाति वर्ग के रक्षक बन सकें। 

रामगोपाल भारतीय:

कोई भी सुझाव / परमार्श जो आप इस विषय में देना चाहेंगे?

देवी नागारनी:

व्यक्ति समाज और राष्ट्र का विकास पहचान से होता है, कर्म की पहचान। पर उसकी अदाइगी का मौक़ा भी मिलना निहायत ज़रूरी है। साहित्य एक द्वार है जिसके माध्यम से जन-जन तक प्रगतीशील विचारधारा को पहुँचाया जा सकता है, सुधी पाठक अपने आस-पास हो रही कुनीतियों और असमानताओं से बखूबी वाकिफ़ है। दलितों के प्रोत्साहन हेतु लेख, कहानियाँ, नाटक, समीक्षाएँ व अन्य साहित्य समस्याओं को समाधानों के साथ ले आए, ऐसी आशा की जा सकती है। क़लम एक योग्य हथियार है जिसकी धार तलवार का काम बख़ूबी कर पाती है। बस चिंतकों, विचारकों और साहित्यकारों को इस ओर ध्यान देना है और अपनी लेखनी के माध्यम से असमानताओं के अंतर में परिवर्तन लाने में सार्थक सहकारी होना है।

इस विशेषांक में

कहानी

कविता

गीत-नवगीत

साहित्यिक आलेख

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आत्मकथा

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