अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित
पीछे जाएं

अस्पृश्यता : आधुनिक भारत में प्राचीन रोग

(गुजराती साहित्य के संदर्भ में)
 

अस्पृश्यता (UNTOUCHABILITY)  को आज रोग बना दिया गया है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि भारत इस बात पर विकास के नाम पर पिछडेपन में जा रहा है। कहते हैं कि भारत इक्किसवीं सदी में पहुँच चुका है। ग़लत, भारत आज भी पुरानी सदी में ही है। विकास मात्र भौतिकता का हो लेकिन समाज के बाक़ी हिस्सों का न हो तो उसे विकास नहीं कहा जाता। समाज के सारे अंगों का जिस दिन विकास होगा तभी भारत का सच्चा विकास होगा। 

गाँधीजी ने कहा था कि – "अस्पृश्यता का प्रचलन मेरे लिए असहनीय है। मैं इसे क़तई पसंद नहीं करता… अस्पृश्यता की प्रथा को जड़ से ख़त्म कर देना चाहिए।" अस्पृश्यता हिन्दु धर्म में ही वर्ग विभाजन का काम करती है। फिर भी जड़ बनी मानसिकता के चलते हिन्दु ही हिन्दु का दुश्मन हो, उस तरह का व्यवहार किया जाता है, निम्न वर्ण के लोगों के साथ। अस्पृश्यता सचमुच मानवता के विरुद्ध किया गया जघन्य अपराध और क्रूरतम हिंसा है। छूआछूत का प्रचलन प्राचीन भारत में तो था ही पर वर्तमान में भी यह कम नहीं हुआ। साहित्य में कई लेखक, कवि मित्रों ने अपनी रचनाओं में इस विषय पर ख़ूब लिखा है। आज तो हिन्दी साहित्य में दलित विमर्श के नाम से बहुत कुछ लिखा जाने लगा है। जो भी हो एक बात तो माननी होगी कि इस विषय को लेकर एक प्रकार की जागृति भी आयी है। लोगों को पता चला है कि दलित पर कितना अत्याचार हुआ या हो रहा है। दलित लेखकों की आत्मकथा बहुत कुछ कह जाती है। 

हिन्दी साहित्य की तरह गुजराती साहित्य में भी इस विषय पर बहुत कुछ लिखा गया है। गुजराती के सिद्धहस्त लेखक विनोद गाँधी की कहानियों में अस्पृश्यता को लेकर चर्चा देखने को मिलती है। उन्होंने अपने अनुभवों का ही चित्रण अपनी कहानियों में किया है। उनकी कहानी 'सब भूमि गोपाल की' हिन्दु धर्म में फैली छूआछूत की बीमारी की बात को उजागर करती है। मनुष्य जन्म एक ही बार मिलता है, फिर भी मानवता की धज्जियाँ उड़ाती है यह कहानी। अपने को उच्चवर्ण में बड़े गर्व के साथ गिनने वाला ब्राह्मण वर्ग ग़रज़ होने पर गधे को भी बाप कहने में शर्म महसूस नहीं करता और साथ ही साथ काम पूरा हो जाने पर उन्हें दुत्कार देने में भी कोई शर्म का एहसास भी नहीं करता। यही बात कथा में देखने को मिलती है।

गाँव के ब्राह्मण जटाशंकर की मृत्यु पर बाँस की अरथी की ज़रूरत पड़ने पर  हरिजन बस्ती में जाकर रेवाशंकर का भोला भंगी से बाँस की अरथी माँगना, पर उस समय भोला के चाचा की मृत्यु के लिए तैयार की गई बाँस की अरथी को न दे सकने की मजबूरी भोला द्वारा जताना, तब रेवाशंकर का भोला को हाथ जोड़कर समझा कर उसके चाचा की बाँस की अरथी माँग लेना। भोला का सहज स्वभाववश अपने चाचा की अंतिम विधि के लिए तैयार की गयी बाँस की अरथी रेवाशंकर को मुफ़्त में दे देना। कहानीकार का इशारा इसी बात पर है कि ज़रूरत पड़ने पर उच्च वर्ग दलित वर्ग से मदद लेने में को कोई छूआछूत नहीं मानता। तब वो लोग अपना उल्लू सीधा करने की फ़िराक़ में स्वयं को भगवान का ख़ास दूत कहकर अपने काम पूरे करवा लेता हैं पर काम हो जाने पर मन में छिपे गंदे विचारों को वक़्त आने पर खोल देने में उन्हें तनिक भी लज्जा नहीं आती। इसी बात पर लेखक ध्यान खींचते हुए जिस घटना का वर्णन करते हैं, उसको देखने से ही बात की सच्चाई का प्रमाण मिल जाता है। जैसे गाँव के शमशान में हरिजन टोली के प्रवेश करने पर उनकी जात दिखाना तथा उनका अपमान करते हुए कहना –

"ख़बरदार, अगर कोई स्मशान में दाख़िल हुआ तो…"

हरिजन डाघुओं की टोली वहीं ठिठककर खड़ी रह गई। जटाशंकर की अंत्येष्टि में आये हुए और वापिस जा रहे डाघु भी स्तब्ध हो गये।

पूरा वातावरण शांत हो गया।

"वापिस निकलो, बाहर निकलो, बाहर! साल्लो, तुम्हारे बाप का स्मशान है? अंदर जा रहे हो?" कोई बड़ी मूँछोवाला रोबीला आदमी बाहर निकला।

हरिजनों की टोली में से भोला आगे आया और बोला – "माई-बाप ! पिछले महीने ही ग्राम सभा में तय हुआ था कि गाँव के स्मशान में अब से सभी बिरादरी के शव जलेंगे।"

"कैसी ग्राम सभा, बे भोलिया ढे.....”!

"माई–बाप पूछिये, हमारी जात के मईजीभै सरपंच को....”

"कैसा सरपंच और कैसी बात और ऊपर से कैसी तेरी जात… बड़े जातवाले..., जा रहे हो कि… नहीं तो करें बापुगिरी...!”

फिर भी भोला खड़ा रहा। उसने सवर्ण डाघुओं की ओर नज़र की। भोला को विश्वास था कि रेवाशंकर गोर कुछ मदद कर देंगे। आज ही सुबह मैंने उन्हें अरथी देकर मदद की थी। इसलिए रेवाशंकर थोड़ी भी शर्म रखकर कुछ कहेंगे, उसने कहा… "रेवाशंकर गोर आप तो कुछ बोलिए…”

रेवाशंकर क्या बोले?
"भोलिया, रेवाशंकर क्या करेंगें? ऐसा कहेंगें कि हाँ, जाओ, अग्निसंस्कार करो। भोलिया आँखे दिखा रहा है? जाओ, जाओ....तुम्हारी जगह पर जलाओ। आज तो तुम लोग हमारे स्मशान में घुस रहे हो, कल को हमारे घरों में घुसोगे.....नफ्फटो जाओ...."1

स्पष्ट दिखायी देता है कि व्यक्ति की मृत्यु पर भी छूआछूत का माजरा बरक़रार रहता है। लेखक कहानी के अंत में इस भेदभाव पर करारा व्यंग्य भी करता है और कहता है –

"आधे घण्टे बाद स्मशान की दीवार के अंदर जटाशंकर की जल कर राख हो रही चिता में से उठते हुए धुएँ की लकीर और दीवार के बाहर की ओर से भोला के चाचा की जलने लगी चिता में से उठनेवाली धूएँ की लकीर ऊपर उठकर आकाश में एक-दूसरे में लीन होती दिखाई दे रही थी।"2

इसी प्रकार उनकी दूसरी कहानी 'प्रसाद' में शहरी सभ्यता के बीच हो रही छूआछूत की भावना का दृश्य वर्णन देखने को मिलता है। संभ्रांत समाज कहने को भले पढ़-लिखकर साक्षर हो गया, फिर भी उसके मन में दबे हुए, पिछड़े, निम्न लोगों के प्रति व्यवहार उनके छुआछूत भरे व्यवहार में झलक जाता है। निम्नवर्ण के प्रति उनकी मानसिकता में कोई फ़र्क नहीं आया। आज भी ऐसे लोग समाज में हैं जो निम्नजाति के लोगों के प्रति एक अपमानभरा व्यवहार करते रहते हैं। संविधान में भले ही अस्पृश्यता पर क़ानून बनाया गया हो पर मानसिकता के चलते कोई क़ानून काम नहीं आता। थोड़े समय पहले गुजरात में ऊना काण्ड हुआ था। जिसने पूरे भारतवर्ष में इस विषय पर बहस चलायी थी। ज़ाहिर में सरे-बाज़ार उन दमित– पिछड़े, निम्नजाति के लोगों को समाज के ही कहे जानेवाले कथित उच्च वर्ग के लोगों ने मारा था। इस घटना का वीडियो भी वायरल हुआ था। यह क्या बताता है? अस्पृश्यता के रोग को ही!

संभ्रांत कहे जाने वाले समाज के बीच रहनेवाला साफ़-सुथरा दलित परिवार जो आर्थिक रूप से समृद्ध है, वह समाज में सवर्ण लोगों से भी साफ़-सुथरे स्वच्छ तन-मन से रहता है, फिर भी सवर्णों के मन में छूआछूत का भाव बना ही रहता है। इस स्थिति की ओर विनोद गाँधी की 'प्रसाद' कहानी इशारा करती है। कहानी में कुछ प्रसंगों में उच्च वर्ग के मन में रहने वाली छुआछूत का चित्रण साफ़ दिखायी देता है। जैसे कहानी के प्रधान चरित्र रमीला का कथा का आमंत्रण देने आई पड़ोसी रीटा बहन से चाय के लिए आग्रह करना पर रीटा बहन का बहाना बनाकर इन्कार करना, बाद में पड़ोसी के घर चाय पीते-पीते हँसते हुए बातें करते देखना, कथा समाप्त होने के पश्चात् सबको कटोरी में प्रसाद देना और रमीला को केले के पत्ते पर प्रसाद देना आदि की घटनाएँ सवर्णों के मन में रह रहे वर्णभेद की ओर इशारा करती है। कहानी के अंत में तो कहानीकार जातिगत भेदभाव पर मार्मिक पर तीखा संदेश देता है। रमीला ने अपने घर रखी कथा में रीटा बहन का जानबूझकर हाज़िर न रहना तथा रात को उनका घर वापिस आने पर रमीला का अपनेपन की भावना के साथ ख़श होकर पड़ोसी धर्म निभाते हुए प्रसाद देने आना, पर सुबह कथा के महाप्रसाद का कैसा हाल होता है, स्वयं लेखक के शब्दों में ही देखें –  

"दूसरे दिन सुबह साढ़े नौ को हाथ में एटैची लेकर ऑफिस जा रहे मनोज ने आँगन में से ही रमीला को आवाज़ दी। रमीला का बाहर आते ही मनोज ने पड़ोसी रीटा बहन के घर के कम्पाउन्ड बाहर रखे पत्थर की ओर अँगुली से इशारा करते हुए उस ओर ध्यान खींचा।

रमीला ने देखा तो उस पत्थर पर महाप्रसाद पड़ा हुआ था। एक-दो कौए प्रसाद की लिज्ज़त ले रहे थे। एक कौए की चोंच में काजु का टुकड़ा था। शायद वह उसे हड्डी का टुकड़ा समझ रहा था। दूर से एक गाय दौड़ती हुई और सींग घुमाती हुई आई और कौए को उड़ाती हुई, बचा-खुचा प्रसाद जीभ के एक झटके से झपट गई और चली गई। पत्थर पर महाप्रसाद में रहे घी की चीकनाहट के धब्बे दूर से दिख रहे थे।"3

संविधान जो भी कहे पर जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक समाज एक साथ नहीं चल सकता।'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना तभी चरितार्थ होगी, जब सारा भारतवर्ष समानता के साथ जियेगा। सोच तो सकारात्मक है, पर देश की राजनीति इस भावना को प्रज्वलित होने से रोक रही है। मेरा सीधा इशारा है- देश की चुनावी प्रक्रिया पर। जब भी देश में चुनाव आता है, विकास की बातें धरी की धरी रह जाती हैं और अंत में जातिवाद का राज कारण आ जाता है और राजनेता भी इसी जातिवाद के आधार पर चुनाव को जीत जाते हैं। फिर कहाँ से होगा देश का विकास!

संदर्भ सूची:

1. पृ.17/18 सगडीनो अग्नि, विनोद गांधी, प्रथम संस्करण, 2012 डिवाइन पब्लिकेशन्स,30, कृष्ण कोम्पलेक्स, पुराना मोडल सिनेमा, गांधी रोड़, अहमदाबाद – 380001
2.पृ.18 सगडीनो अग्नि, विनोद गांधी, प्रथम संस्करण, 2012 डिवाइन पब्लिकेशन्स, 30,कृष्ण कोम्पलेक्स, पुराना मोडल सिनेमा, गांधी रोड़, अहमदाबाद – 380001
3. वही, पृ. 64

इस विशेषांक में

कहानी

कविता

गीत-नवगीत

साहित्यिक आलेख

शोध निबन्ध

आत्मकथा

उपन्यास

लघुकथा

सामाजिक आलेख

बात-चीत

अन्य विशेषांक

  1. सुषम बेदी - श्रद्धांजलि और उनका रचना संसार
  2. ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार
  3. फीजी का हिन्दी साहित्य
  4. कैनेडा का हिंदी साहित्य
पीछे जाएं