अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित
पीछे जाएं

किताब

बहुत अर्से पहले प्राइमरी कक्षा में
मैंने लाइब्रेरी से ली हुई किताब गुमा दी
फिर टीचर को डरते डरते बताया
उन्होंने कहा, 'अब तुमको ही लाइब्रेरी में बंद कर दूँगी'
मैं सोचती रही कैसी लगूँगी अलमारी में बंदी होकर
सब खुली हवा में मुझे देखा करेंगे 
और मैं बन्द पसीजी रहूँगी भीतर उमस से
तब कहाँ जानती थी बंदी जीवन का इतिहास
जहाँ गहरे साँस लेने पर भी साँस ठहरा दी जाती थी 
और वर्तमान से भी कोई साबका नहीं था तब तो,
साँसें अब भी नियंत्रित हैं, जल्द ही ज्ञात हुआ मुझको।
 
घर मे कॉमिक्स पढ़ने की मनाही थी
सो मैंने संगी साथियों से माँग कर
कभी छीन कर, छुप-छुप कर पढ़ीं
चाचा चौधरी, मोटू पतलू की हरकतें
तेनाली रामा और बीरबल के क़िस्से,
 
एक दिन घर में हाथ लग गई बुद्धचरित 
जिसको पढ़ कर मन करुणा से भर गया
मगर यशोधरा कहीं नहीं थी बुद्धचरित में
यशोधरा ने क्या किया तमाम उम्र
कैसा जीवन जीया होगा सोचा मैंने कितनी ही बार!
 
इतिहास की किताबें पढ़ते हुए
राजा-रानियों के क़िस्सों में स्त्री कहीं नहीं मिली!
इतिहास के पन्नों से बेदख़ल रही
स्त्री का कहीं कोई इतिहास नहीं था
मैं स्त्री को खोजती रही तलाशती रही
उम्र के एक पड़ाव पर आकर पता चला
स्त्री गुमा दी गई थी चौके-बर्तनों में
और मैं खोज रही थी उसे किताबों में!
 
बीच सफ़र मुझे कुछ स्त्रियाँ मिलीं
जो ख़ुद ही अपनी किताब थीं,
मैं भी अपने लिए एक किताब बन गयी
इस किताब में मेरे सपनों की उड़ान थी
सुकून की नींद थी, अब सिरहाना थी किताब
किताब ने सोख लिए मेरे बहुत सारे दुख।
किताब आज भी गीली है
अपने सीलेपन से द्रवीभूत करती हैं मुझे
 
बेशक कई पृष्ठों से ग़ायब हैं शब्द
खा गए हैं दीमक उन्हें पर अर्थ मुकम्मल हैं 
एक कोमल स्पर्श अभी बचा हुआ है वहाँ
जिसे ज़माने भर की दीमक चट नहीं कर पाई
पर मैं जब भी खोलती हूँ अपनी किताब
तो मुदित हुए बिना नहीं रहती।
 
मैं  चाहती हूँ हर बच्ची के हाथ में किताब
जिसमें उसके स्वप्न ज़िंदा रहें,
उनकी उम्मीदें बरक़रार रहें
और किताबें भरी हों प्रेम के स्पंदनों से
जहाँ वो बैठ सके सुकून से
ख़ुद के साथ, ख़ुद के पास,
जैसे आजकल मैं रहती हूँ एक किताब की तरह
ख़ुद के साथ, ख़ुद के पास॥

इस विशेषांक में

कहानी

कविता

गीत-नवगीत

साहित्यिक आलेख

शोध निबन्ध

आत्मकथा

उपन्यास

लघुकथा

सामाजिक आलेख

बात-चीत

अन्य विशेषांक

  1. सुषम बेदी - श्रद्धांजलि और उनका रचना संसार
  2. ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार
  3. फीजी का हिन्दी साहित्य
  4. कैनेडा का हिंदी साहित्य
पीछे जाएं