मन्तर
कहानी | सुनीता मंजू"अरे, बकरिया कहाँ गइल रे?" सरस्वती ने आवाज़ दी। सूरज ढलने लगा था। सभी पशु-पक्षी अपने बसेरों में लौटने लगे थे। उसकी गाय भी चंवर से चरकर आ गयी थी। बकरी का कहीं पता नहीं था, सो उसकी चिंता लाज़मी थी।
सरस्वती के पास एक गाय व एक बकरी थी। बकरी ने कुछ महीनों पहले ही दो नन्हें, प्यारे बच्चों को जन्म दिया था। दोनों बच्चे एकदम उजले और मुलायम थे। मानों सेमल की सफ़ेद रूई की ढेरी हो। अपने नाती-पोतों जैसे ही इन्हें प्यार करती थी सरस्वती। अपनी एकमात्र बेटी अनीता से वह चिल्लाते हुए कह रही थी कि "बकरिया कहाँ गइल?
अनीता आंगन में चूल्हा-चौका कर रही थी। वहीं से बोली, "तू ही त ले गइल रहलू हा बाँधे, हम का जानी?" सुबह ही तो बकरी को पोखरी के किनारे खूँटे से बाँध कर आई थी वह! वहाँ जाकर देखा तो बकरी नदारद!! खूँटा और रस्सी वहीं पर पड़े थे। उसने सोचा था कि बकरी रस्सी तुड़ाकर घर भाग आई होगी, इसलिए विशेष चिंता नहीं की। परन्तु घर आने पर और अनीता से पूछने पर, अब उसे किसी अनिष्ट की शंका होने लगी। बेचैन हो कर पूरे चमरटोली में घूमती फिरी, पर कहीं बकरी का कोई पता न चला। सरस्वती की बेचैनी देखकर फूलझरी को अचानक कुछ याद आया। सरस्वती को एक ओर ले जाकर बोली, "अरे चाची एक बात बताएँ। हम गये थे शाम को जंगल को तो, रामायण सिंह के बेटा आउर उसका एक दोस्त मोटरसाइकिल पर एक बकरी को दबाये, बथान के तरफ तेजी से निकल गये। हम ठीक से देख नहीं पाये कि वह बकरी आपकी थी या कोई और। पर पोखर की तरफ से पूरब बथान की ओर बहुत तेजी से गयी थी मोटरसाइकिल!!"
सरस्वती को काटो तो खून नहीं। वह अच्छी तरह से जानती थी, रामनारायण सिंह के बेटे पिंटू और उसके दोस्तों को। गाँव की लड़कियों को छेड़ना, शाम को बथान में जाकर शराब पीना, जुआ खेलना, रात भर फ़िल्में लगाकर देखना, यही काम था उसका। कई बार अगल-बगल के चंवर से बकरी, मुर्गे, सुअर इत्यादि चुराकर सभी दोस्त मिलकर मीट बनाते और शराब के साथ खा-पी जाते।
वह सीधे गयी रामनारायण सिंह के घर। वहाँ वह दालान में बैठे भूँजा खा रहे थे। देखते ही बोले, "का हो भौजी, ए ने कहाँ?" सरस्वती का पति बच्चा राम, रामनारायण सिंह से थोड़ा छोटा ही था। परंतु कहते हैं ना "छोटी जात की लुगाई, गाँव भर की भौजाई"। सरस्वती को ग़ुस्सा आया। बोली, "बूढ़ हो के हमरा के भौजी कहतानी। वह सब छोड़ीं, पहले अपना बेटा के करतूत सुनीं, हमार बकरी चुराके ले गए बाबू साहेब।" इतना सुनना था कि राम नारायण सिंह की बोटी-बोटी फड़क उठी। ख़ून गर्म होकर उबाल मारने लगा। यह नीच जात औरत सीधे मेरे बेटे को चोर बता रही है! ग़ुस्से से तमतमाते हुए बोले, "भाग! भगबे कि ना इहाँ से! हमारा बेटा चोर है, और तुम सब साध हो! है ना! जल्दी भाग हमारे नजरों के सामने से!"
सरस्वती बेचारी क्या करती। ग़लती उसी की थी। कम से कम दो चार आदमीग, पंच को लेकर आना चाहिए था उसे। अकेले तो उसे भगा ही देंगे यह राजपूतान वाले। घर पहुँची तो बच्चा मज़दूरी से लौटकर घर आ गया था। गेहूँ की दौनी का काम चल रहा था। थ्रेशर पर महिलाओं का क्या काम? इसलिए सिर्फ़ पुरुषों को ही मज़दूरी मिल पाती थी, बड़े-बड़े किसानों के थ्रेशिंग मशीन पर। 100 ₹ रोज़ के हिसाब से। बच्चा भी मोहन सिंह के थ्रेशिंग मशीन पर काम करता था। सरस्वती ने सारी बात बताई। वह कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला, "चलो मालिक के पास। वह कुछ कह सुन देंगे तो बात बन जाएगी।"
अनीता बोली, "पहले खाना तो खा लो, फिर कहीं जाना।" लेकिन सरस्वती और बच्चा को चैन कहाँ? 3000₹ से हाथ धो लेना इतना आसान नहीं था। वह लोग तो एक-एक पैसे के मोहताज थे। बेटी सयानी हो गई थी। उसकी शादी भी सिर पर थी। दूसरा कोई कमाने वाला नहीं। कोई सहारा नहीं। तुरंत ही दोनों मोहन सिंह के दालान में पहुँचे। वहाँ सभी लोग बैठकर टीवी देख रहे थे। उत्तर प्रदेश के किसी ज़िले में, दबंगों ने एक हरिजन का घर जला दिया था। जिसकी ख़बर किसी समाचार चैनल के संवाददाता को लग गई थी। पूरे ज़िले में आक्रोश फैल गया था। हर चैनल पर यही ख़बर छाई हुई थी। पुलिस पर दबाव बन गया था, कि वह दोषियों को जल्द से जल्द गिरफ़्तार करें। सब इस ख़बर पर अभी टीका-टिप्पणी कर ही रहे थे, कि बच्चा आकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। मोहन सिंह ने तुरंत चैनल बदलकर आस्था चैनल लगा दिया। फिर बोले, "क्या बात है बच्चा? इतनी रात को क्यों आए हो? सब ठीक है ना।" फिर थोड़ा ठहर कर बोले, "मज़दूरी तो सात दिन पर मिलती है। कोई ज़रूरत हो तो कहो।"
ऐसे प्यार भरे मीठे शब्द सुनकर गदगद् हो गया बच्चा। बोला, "मालिक हमारी बकरी कहीं मिल नहीं रही है। टोले के लोगों का कहना है कि पिंटू बाबू और उनके दोस्त बकरी को उठाकर ले गए हैं। और शायद उसे मारकर खा गए हैं।"
मोहन सिंह बोले, "ऐसी बात है! बहुत ही ग़लत काम किया है, राम नारायण सिंह के पिंटू ने! अच्छा, तुम चिंता मत करो। हम भिनसारे ही बात करते हैं राम नारायण सिंह से। अगर पिंटू बकरी ले गया है, तो तुम्हें बकरी मिल जाएगी। अगर मारकर खा गया है, तो हम उसका दाम अवश्य दिलवा देंगे। यह कोई बात है भला! अपने गाँव जवार के लोग सब अपने हैं। बहुत बुड़बक है पिंटूवा!! अच्छा अब जाओ और आराम से सो जाओ। सुबह हरीनाथ बाबा का गेहूँ दांवना है। भिनसारे चले आना मशीन पर।"
बच्चा पूरी तरह आश्वस्त होकर चल दिया। परंतु सरस्वती को शंका थी कि, कल भी कुछ नहीं होने वाला। रास्ते भर बच्चा सरस्वती को समझाते जा रहा था, "अरे, तुम क्या जानोगी हमारे गाँव को! हम बचपन से हियां रह रहे हैं। बहुत एका है हमारे गाँव में। गाँव जवार की बात ही एक होना चाहिए भाई। सहर थोड़े है, कि कोई किसी का पुछवैया नहीं होता। पंच, मालिक, मुख्तार, कोई नहीं होता वहाँ। अरे मोहन सिंह तो हमारे जोड़ी हैं। हम बचपन से साथ-साथ एक ही गाँव में रहे हैं। लड़काईं में, हम बाबूजी-माई के साथ कटनी करने जाते थे इनके खेतों में। और यह भी वहाँ आकर मिट्टी का हाथी बनाकर हमें डराते थे। हा ...हा ...हा.. वह भी क्या दिन थे। तू चिंता मत कर। कल सब ठीक हो जाएगा।"
घर पहुँचकर सरस्वती ने बकरी के बच्चों को चावल का माड़ पिलाया। वह अपनी माँ के लिए में.... में.... करते-करते सो गए। फिर सब ने खाना खाया। खाना खाते-खाते, अनीता को सब वृत्तांत विस्तार से सुनाने लगा बच्चा। "मालिक हमारा बहुत मान करते हैं अनीता। देखना, तेरे ब्याह में भी कुछ सहारा देंगे।" अनीता से अब सुना नहीं गया। ग़ुस्से से बोली, "हम यह राजपूतान के रग-रग जानते हैं। उधर से गुजरने पर ऐसे घूरनें लगता है सब, जैसे की खा जाएगा। हमको भरोसा नहीं है, कि इ मोहना कुछ करी।" कहते-कहते उसका दम फूल गया। बच्चा ने तुरंत टोका, "चुप!! कैसे बोल रही है रे? मालिक हैं अपने।"
अनीता भीतर जाकर चटाई पर लेट गई। अब बाबू जी से कौन उलझे। उसे वह दिन याद आ गया , जब बोरिंग पर मोहन सिंह ने अकेले पाकर, उसे बाँहों में भरना चाहा था। वह हाथ में लिए हंसिये से उसकी पीठ पर मार कर भाग आई थी। उसनें यह बात किसी से नहीं कही थी। आगे ओसारे में खाट पर बच्चा तथा चटाई पर सरस्वती निश्चिन्त होकर सो गये।
उधर मोहन सिंह का बेटा पप्पू खाना लेकर आया, तो डरते-डरते बोला, "बाबूजी, पिंटू के साथ हम भी शामिल थे। वह बकरी तो हम लोग सब मिलकर भून कर खा गए।"
मोहन सिंह बोले, "अरे तो का आफत पड़ गई? खा गए तो खा गए, बात खत्म। ई नान्ह जात के बकरी, मुर्गी, सूअरी, चाहे बहु-बेटी हो। हमारे लिए सब पाक है।"
बीच में ही मोहन सिंह बोले, "बच्चे हो एकदम। अरे हाथी का दाँत खाने का और दिखाने का और होता है। थोड़ा देस दुनिया का भी खबर रखा करो। अभी टीवी पर समाचार नहीं देखे। अगर इन लोगों का हम पर से विश्वास उठ गया, तो मुसीबत हो जाएगी। इन लोगों को सहर की हवा लग गई, तो सब फुर्र हो जाएँगे। फिर हमारा काम कौन करेगा।"
पप्पू बोला, "कल बच्चा से क्या कहेंगे?"
मोहन सिंह बोले, "अरे तुम चिंता मत करो। उसको हम और रामनारायण समझा लेंगे। इसलिए तुम को भी सिखा जाते हैं अपना मंतर। अंग्रेजों का मंत्र था- ’फूट डालो शासन करो’ हमारा मन्तर है- ’उल्लू बनाओ शासन करो।’ अब ये तुम्हारी काबलियत पर है, कि उल्लू कैसे बनाओगे। ईश्वर के नाम पर, धर्म के नाम पर, गाँव जवार के नाम पर या फिर अम्बेडकर के नाम पर।"
इस विशेषांक में
कहानी
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