महामारी के समय में दलित जीवन के संकट : सोशल मीडिया में उसकी प्रस्तुति
शोध निबन्ध | आशीष कुमार पाण्डेयपहले समाचार चैनलों के माध्यम से लोगों को सूचनाएँ प्राप्त होती थीं। आज देखने को मिलता है कि लोगों के माध्यम से समाचार चैनलों को सूचनाएँ प्राप्त हो रही हैं। कई बार यह जानकारी समाचार चैनलों तक फ़ेसबुक, ट्विटर या किसी अन्य सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के ज़रिए ही पहुँच पाती है। रिपोर्टिंग को लगभग समाप्त कर दिया गया है। रिपोर्टिंग का स्थान सोशल मीडिया ने ले लिया है। इस सोशल मीडिया में दलित समाज की स्थिति को देखने, समझने के लिए हमें कई पहलुओं पर ध्यान देना होगा।
ग़रीब का जीवन अत्यंत दुरूह होता है लेकिन ग़रीबों में भी यदि आप दलित हैं तो जीवन जीना और भी दुश्वार है। पग-पग पर कठिनाइयाँ आपका पीछा करती रहती हैं। कोरोना महामारी ने दलितों के जीवन को और भी संकटपूर्ण बना दिया है। इस लेख में हम दलित जीवन के संकट पर बात करते हुए कोरोना महामारी में उनकी स्थिति और सोशल मीडिया पर उसकी किस प्रकार प्रस्तुति हो रही है, इस बारे में बात करेंगे। साथ ही सोशल मीडिया पर दलित वर्ग के आम लोगों की उपस्थिति और मज़बूत एवं सशक्त कैसे हो इसमें क्या-क्या सुधार की आवश्यकता है इस पर भी बात होगी। मसलन लोग अपने गृह जनपद से दूर जिस स्थान पर जाकर छोटे-मोटे काम करके अपना जीविका उपार्जन करते हैं वहाँ पर किन-किन सरकारी दस्तावेज़ों में उनका नाम दर्ज हैं।
दलितों का जीवन मानवद्वेष से बजबजाता, आर्थिक रूप से निस्तेज और हर दृष्टि से दुर्बल किसी भी व्यक्तियों से बदतर हैं। उनके हाथ में सिर्फ़ खोए हुए अवसरों की फ़सल और एक व्यर्थ व बर्बाद हो चुकी विरासत के सिवा कुछ नहीं बचा हैं। ग़रीबी का आकलन सिर्फ़ आय के आधार पर नहीं बल्कि स्वास्थ्य की ख़राब स्थिति, कामकाज की ख़राब गुणवत्ता और हिंसा का ख़तरे जैसे कई संकेतकों के आधार पर किया जाना चाहिए।
कोरोना महामारी आने के बाद दलित वर्ग के लोगों का शहर से गाँव की ओर बड़ी संख्या में पलायन हुआ है और गाँव में काम या रोज़गार का इस महामारी के चलते, पहले से ज़्यादा अभाव है। सोशल मीडिया में ये भी पढ़ने को मिला कि गाँव के दबंग लोग दलितों से काम करा कर पैसे नहीं देते हैं और उल्टे मारपीट भी करते हैं। चूँकि दबंग की पहुँच शासन प्रशासन तक ज़्यादा है इसलिए केस उलटा दलित पर ही होता है।
विदित हो कि वैश्विक महामारी कोरोना संकट से जनित लॉकडाउन की अवधि में सरकार द्वारा यह निर्णय लोक-कल्याणकारी निर्णय लिया गया है कि ग़रीबी रेखा से नीचे गुज़र-बसर करनेवाले प्रत्येक उपभोक्ता (बीपीएल कार्ड धारक परिवार) को अंतःस्थल पर अनाज मुहैया कराया जाएगा। यह बात ध्यान देने वाली है कि यदि यह निर्णय सफल होता तो इसमें ज़्यादातर लाभ निर्धन दलितों को ही होता लेकिन व्यापक स्तर पर समस्या दृष्टिगोचर हुई है कि व्यक्तियों का राशन कार्ड अपने गृह प्रदेश में बना हुआ हैं। जबकि अवसर की अनुपलब्धता के कारण वह नौकरी किसी दूसरे प्रदेश में करने को अभिशप्त है। ज्ञात हो राशन कार्ड निर्गत करने का कार्य प्रदेश सरकार करती है। ऐसे में यदि उपभोक्ता दूसरे राज्य में रहकर काम कर रहा है और सरकार यदि राशन देने की घोषणा कर भी देती है तो ऐसे में उसे राशन कार्ड न होने के कारण राशन नहीं मिल पाएगा। दलित वर्ग के लोगों के सामने बहुत बड़ी समस्या दिखी। एक दूसरी दलित वर्ग के लोगों के साथ ये भी समस्या आती है कि कई ज़रूरी काग़ज़ नहीं होने के कारण उनका राशन कार्ड ही नहीं बन पाता या जान बूझ कर काग़ज़ का अड़ंगा लगा दिया जाता है कि उनका काग़ज़ न बन पाए। लेकिन जिनका राशनकार्ड बना भी था वो तो केवल गृह राज्य में ही मान्य था। हालाँकि 1 अगस्त से यह नियम बदला गया है।
भारतवर्ष की लगभग आधी आबादी जीविकोपार्जन हेतु कृषि कार्य पर आश्रित है। विश्वसनीय समाचार पोर्टल 'द वायर' की 16 अगस्त 2019 की एक रिपोर्ट बताती है कि ‘कृषि एवं ग्रामीण विकास का राष्ट्रीय बैंक' (नाबार्ड) ने अपनी अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वेक्षण (एनएएफआईएस) रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश के आधे से ज़्यादा किसान परिवार कर्ज़ के दायरे में हैं। व्यक्ति पर औसतन एक लाख से ज़्यादा का कर्ज़ है। नाबार्ड ने यह रिपोर्ट वर्ष 2015-16 की अवधि में देश के 245 जिलों के 2016 गाँवों में स्थित 40,327 परिवारों के मध्य सर्वेक्षण के आधार पर तैयार की है।1
खेती करने वाले किसानों में भी कई श्रेणी के किसान हैं जैसे ज़्यादा खेती वाले ज़मींदार, कुछ कम ज़मीन वाले बट्टदार किसान, ज़मीन किराए पर लेकर खेती करने वाले किसान, भूमिहीन दलित किसान व अन्य। इन अलग-अलग किसानों के सामने अलग-अलग समस्या कोरोना वायरस महामारी के आने के बाद आई हैं। जिसका ज़िक्र मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर बहुत कम हुआ हैं। चाहे वह सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म हो या मुख्यधारा की मीडिया। दलित किसानों की बात तो बिल्कुल भी न के बराबर हुई। जो भी किसान है उसकी रबी के फ़सल की कटाई मार्च-अप्रैल में होने वाली थी। उस समय भारत में कोरोना ने दस्तक दे दी। इससे फ़सल की कटाई पूरी तरह से प्रभावित हुई। उनकी लगभग पूरी खड़ी फ़सल बर्बाद हो गयी। भारत के गाँवों में अभी ऐसी सुविधा नहीं है कि किसान आसानी से अपनी सब्ज़ी, अनाज बाज़ार या मंडी तक पहुँचा पाए। उसके बाद जब खरीफ की फ़सल बोने की बारी आई तो पूर्वी भारत में जहां-जहाँ कोरोना की संख्या बहुत ज़्यादा है, वहाँ दोहरी मार के रूप में बारिश और बाढ़ आ गई। इसका भी मीडिया या सोशल मीडिया में बहुत कम ज़िक्र हुआ है। इसमें ध्यान देने वाली बात यह है कि जो ग़रीब दलितों का पलायन गाँव की तरफ़ हुआ था। उन्होंने कुछ लगान ले कर खेती करने का छोटा प्रयास किया भी था। वह फ़सल या तो बारिश के पानी के कारण सड़ गई या सामान्य मानसून ना होने के कारण अच्छी तरह से उग नहीं पाई। यानी यह कहें कि फ़सल की बुआई में जो ख़र्चा आया वह भी शायद नहीं निकल पाएगा।
सोशल मीडिया पर मध्य वर्ग का अघोषित नियंत्रण है; अर्थात ऐसे लोग जिनके परिवार में थोड़ी बहुत सरकारी नौकरी से आमदनी हो रही हो और थोड़ी बहुत खेती किसानी या अन्य चीज़ों से। सोशल मीडिया पर दलित समाज में भी जो निम्न स्तर यानी दैनिक भोगी, रिक्शा इत्यादि चलाने वाले लोग हैं। उनकी बिल्कुल भी उपस्थिति दर्ज नहीं हैं। यह ज़रूर बात हैं कि उनके मुद्दों की बात करने वाले लोग अभी भी सोशल मीडिया पर हैं। उसमें से कुछ लोग तो ख़ुद दलित वर्ग से ही आते हैं, कुछ पिछड़े वर्ग से आते हैं। लेकिन जब-जब भी वह दलित वर्ग के लोगों की बात सोशल मीडिया पर करते हैं तो कुछ दिनों तक हुआ मुद्दा चर्चा का विषय रहता है। कोरोना के समय में भी ऐसी बातें हुई हैं। कई ऐसे फ़ेसबुक पेज एवं व्यक्ति हैं जो लगातार आदिवासी, दलित वर्ग, पिछड़े वर्ग, शोषित वर्ग की बात अपने फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर करते रहते हैं।
Dom Parisangh नामक फ़ेसबुक पेज पर 5 जुलाई 2020 को मजबूर, मज़दूर, दलित, पिछड़ा, आदिवासी, ग़रीब, किसान अपना दुख दर्द पूरे जीवन भर नहीं भूल पाएँगे नाम का एक विडियो है। 13:12 मिनट का यह वीडियो दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर का हैं, जो कहते हैं जिस तरह बिना तैयारी के नोटबंदी हुई थी उसी शैली में बिना किसी तैयारी के लॉक डाउन कर दिया गया जबकि विदेशों में लॉक डाउन करने से पहले काफ़ी कुछ सोचा समझा गया था। लाखों लोग पलायन किए जो लोग पैदल जा रहे हैं वही लोग हैं, जो आम जन जीवन में भी मारे जाते हैं प्रायः दलित, पिछड़े, आदिवासी। उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि जिन-जिन देशों में अब अनलॉक किया जा रहा है वहां-वहाँ कोरोना वायरस कम हो रहा है। लेकिन भारत में जैसे-जैसे अनलॉक की प्रक्रिया बढ़ रही है वैसे-वैसे कोरोना के मामले अधिक आ रहे हैं। सरकार आँकड़ा भी छुपा रही है। जितने लोग कोरोना वायरस से नहीं मरे उतने लोग सरकार के बदइंतज़ाम से मर गए। भूख, बीमारी, थकान से मरने वालों की संख्या कहीं कोरोना वायरस ने वालों की संख्या से ज़्यादा है।2
स्वराज इंडिया, प्रशांत भूषण, रवीश कुमार, पुण्यप्रसून वाजपेई, डीडब्ल्यू न्यूज़ , न्यूज़क्लिक, वायर, द प्रिंट, क्विंट , प्रिंट की संवाददाता ज्योति यादव, नीलम पांडेय, स्वतंत्र पत्रकारिता करने वाली मशहूर पत्रकार बरखा दत्त तमाम ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता जो कई तमाम मुद्दों पर हमेशा अपनी बात रखते रहे हैं। कोरोना महामारी में जब मज़दूर पलायन करने को विवश हुए तब उन्होंने हाशिए पर रह रहे लोगों की बात बहुत ही गंभीरता से उठाई क्योंकि मेनस्ट्रीम मीडिया में उन्हें स्थान नहीं मिल रहा था। इसलिए उन्होंने अपनी बात सोशल मीडिया के माध्यम से ही रखी।
कुछ ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल एवं सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के उदाहरणों से दलितों पर महामारी के दौर में हुए अत्याचारों व अन्यायों को देखेंगे–
मध्यप्रदेश के गुना में एक दलित किसान दम्पत्ति की पुलिस ने बेरहमी से पिटाई की ताकि उन्हें सरकारी ज़मीन के एक टुकड़े से हटाया जा सके जहाँ पर उनकी फ़सल खड़ी थी। इसके बाद दम्पत्ति ने कीटनाशक पीकर अपना जीवन समाप्त करने की कोशिश की है।3
इस घटना का वीडियो सबसे पहले ट्विटर पर आया। उसके बाद देखते ही देखते फ़ेसबुक पर वायरल हो गया। उसके बाद तमाम मीडिया संस्थानों ने इसे जगह देने का प्रयास किया। लेकिन ऑनलाइन न्यूज़ चैनल बीबीसी ने इसे प्रमुखता से स्थान दिया एवं कई दिनों तक इस ख़बर का बुलेटिन चलाया।
एक और न्यूज़ देखते हैं। अभी हाल ही में ओड़िसा में एक दलित नाबालिग बच्ची के जुर्म की सज़ा गाँव के 40 दलित परिवारों को भुगतनी पड़ी। एक 14 साल के बच्चे द्वारा सूरजमुखी के फूल को तोड़ने की गुस्ताखी की सज़ा 40 परिवार सामाजिक बहिष्कार के रूप में पा रहे हैं। सोचिए ये कितना अमानवीय है।
ओडिशा के ढेंकानाल जिले की एक घटना बताती है कि आज़ादी के 73 साल बाद भी भारत में दलित किन हालातों में रह रहे हैं। ढेंकानाल जिले में एक मामूली बात से शुरू हुए विवाद के बाद सवर्णों ने दलितों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया। जिसकी वज़ह से दलितों के लिए हालात बेहद मुश्किल हो गए हैं।4
ऑनलाइन पोर्टल फ़ॉरवर्ड प्रेस की यदि बात करें तो कोरोना महामारी के दौर में जब ग़रीबों का पलायन हो रहा था। तो उन्होंने ग्राउंड रिपोर्ट के आधार पर यह बताने की कोशिश की है कि इसमें से ज़्यादातर लोग दलित या पिछड़े वर्ग के थे। जिन्हें यह डर था कि जो भी उनकी बची-खुची ज़मीन है शायद उसे कोई दबंग कब्ज़ा कर लेगा। इस ख़बर की शुरुआत इन शब्दों से हुई है- "बिहार के प्रवासी मजदूरों के बारे में जो कोरोना के दहशत के बीच अपने घरों को लौट रहे हैं। उनके मुताबिक इन मजदूरों में अधिकांश दलित और ओबीसी हैं। उनके लौटने की एक वजह यह भी कि सामंत कहीं उनकी जमीनें न हड़प लें"5
ट्विटर पर लगातार कई दिनों तक मज़दूरों एवं पलायन कर रहे लोगों का फोटो शेयर करके अनेक कैप्शन लिखे गए। कई लोगों ने इस पलायन को आज़ादी के विभाजन से भी जोड़ कर देखा तो कई लोगों ने इसे उससे भी बड़ी विभीषिका बताई।
महामारी के दौर में जैसा कि पहले भी ज़िक्र किया गया है कि दलितों पर अत्याचार पहले की अपेक्षा बढ़ा है। आइए हाल के दिनों में दलितों पर हुए अत्याचार को ट्विटर पर किस तरीक़े से स्थान मिला उस पर नज़र डालते हैं।
उत्तर प्रदेश कांग्रेस ने मैनपुरी में दलित युवक के साथ लिंचिंग पर यह ट्वीट किया है–
मैनपुरी का यह वीडियो जहाँ कुछ लोगों द्वारा कचौड़ी का ठेला लगाने वाले दलित युवक सर्वेश नाम के व्यक्ति की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। यह यू.पी के जंगलराज का जीता-जागता उदाहरण है। बस प्रदेश की सरकार आँख मूँदे हुए है।6
नेशनल दस्तक ने उत्तर प्रदेश पुलिस को ट्वीट करते हुए यह ख़बर लिखी है 'उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिला के पुलिस पर दलित को पीट-पीट कर मारने का आरोप। बहुजनों में आक्रोश।'7
महामारी में जो मज़दूर दलित ग़रीब लोग पैदल यात्रा कर रहे थे उस पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित हिन्दू कालेज के इतिहास के प्रोफ़ेसर रतन लाल ने सरकार से सीधा और तीखा प्रश्न करते हुए ट्वीट किया है–
“दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद मज़दूरों की आपात स्थिति और ख़राब हालत से निबटने के लिए आंबेडकर ने 1945 में Social Security Fact Finding Committee बनवाया था. #कोरोना से निबटने के लिए सरकार ने अभी ऐसी कोई योजना बनाई है?”8
ऐसी कई अन्य रिपोर्ट्स एवं तमाम बातें फ़ेसबुक, ट्विटर, एवं यूट्यूब पर अलग-अलग लोगों द्वारा देखने को मिली हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर सुधांशु कुमार के साथ ऑनलाइन बातचीत के कार्यक्रम में पूर्व सांसद उदित राज एवं प्रोफ़ेसर दिलीप मंडल ने हाशिए पर रह रहे समाज के लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म से जुड़ने की अपील की। इस वीडियो को लगभग 30,000 से अधिक बार देखा गया है।
ट्विटर, फ़ेसबुक एवं यूट्यूब पर दलित समाज के लोगों की जो चर्चा बीते छह महीनों में हुई है। शायद ऐसी चर्चा पहले कभी नहीं हुई। दलित, पिछड़े, आदिवासी समाज के शोषित वर्ग से लेकर महिलाओं तक की सहभागिता भले ही सोशल मीडिया पर उतनी नहीं है। लेकिन कई सामाजिक संगठनों एवं सामाजिक सरोकार से सम्बन्ध रखने वाले लोगों ने उनकी आवाज़ को प्रमुखता से इस महामारी के दौर में उठाया है।
दलित जीवन के संकट और सोशल मीडिया में उसकी प्रस्तुति पर बात करते समय सोशल मीडिया कितना निष्पक्ष है इस पर भी बात करना समीचीन रहेगा। कोरोना के दौर में तथा उससे पहले भी सोशल मीडिया निष्पक्ष है कि नहीं इस पर प्रश्न उठाया गया प्रश्न उठाने वालों में मुख्य रूप से दलित चिंतक प्रोफ़ेसर दिलीप मंडल शामिल थे| उन्होंने ट्विटर से कई बार यह अनुरोध किया कि ब्लू टिक के लिए क्या नियम हैं? उसे सार्वजनिक करें। उन्होंने अपना ब्लू टिक भी वापस कर दिया था। जिसे बाद में ट्विटर ने लौटा दिया और कई दिनों तक यह मुद्दा गरम रहा कि ‘जो भी दलित वर्ग के या पिछड़े वर्ग के लोग हैं उनके साथ ट्विटर ब्लू टिक देने में भेदभाव कर रहा है’। ट्विटर की निष्पक्षता में एक प्रश्न प्रोफ़ाइल के साथ देखने को मिलती है कि फ़ॉलोअर्स की संख्या एक-दो घंटे में ही घटती बढ़ती रहती है। और लगभग 500 से 600 संख्या का बढ़ना घटना ट्विटर के निष्पक्षता पर प्रश्न खड़ा करता है।
आइए हम बात करते हैं सुधार की, जिस प्रकार संविधान में संवैधानिक समानता की बात की गई है लेकिन मूर्त रूप में वह दिखाई नहीं देती। उसी प्रकार सोशल मीडिया पर सबको समान अवसर है यह बात कई बार खोखली साबित होती है। क्योंकि इस पर अवसर की समानता नहीं हैं | उदाहरण के लिए गाँव-शहरों में इंटरनेट और बिजली की स्थिति का अंतर, टेक्नोलॉजी में अमीर, ग़रीब, दलित में अंतर आदि। जिसमें अभी काफ़ी सुधार करने की ज़रूरत हैं। जन्म आधारित समानता ना होकर के योग्यता के अनुसार समानता होनी चाहिए जिससे सोशल मीडिया की पारदर्शिता ज़्यादा बनी रहेगी। दलित वर्ग आज सोशल मीडिया में कुछ भी लिखने से पहले कई बार सोचता है कि उस पोस्ट की प्रतिक्रिया में क्या-क्या बातें लिखी जाने लगेंगी। यही सोच कर वह कई बार पोस्ट नहीं भी लिखता है। कोई भी विचार तब जन्म लेता है जब स्वतंत्र चिंतन का अवसर उपलब्ध हो। जब उसके जीवन में स्वतंत्रता नहीं है तो विचार स्वतंत्र कैसे उत्पन्न होंगे? इसलिए ऐसा माहौल बनाना पड़ेगा जिससे दलित वर्ग कुछ भी लिखने से पहले स्वयं को निर्भय महसूस करे। कंप्यूटर कृत शिक्षा, इंटरनेट, मानसिक सम्मान, वैचारिक बातों को बढ़ावा देना होगा। तब वह कल्पना साकार होगी जिसकी अवधारणा सोशल मीडिया करता है।
समाज के प्रबुद्ध वर्ग की ज़िम्मेदारी होती भी है कि उस वर्ग के लोगों की बात प्रमुखता से उठाए। जिसकी बात हाशिए के नीचे ही दब जाती है शायद इसीलिए महात्मा गाँधी ने कहा था–
"हमें स्वयं को अपने धन का स्वामी नहीं, बल्कि न्यासी मानना चाहिए और अपनी सेवा के उचित पारिश्रमिक से अधिक को अपने पास न रखते हुए शेष को समाज-सेवा पर लगा देना चाहिए। इस व्यवस्था में, न कोई अमीर होगा, न कोई ग़रीब। सभी धर्म समकक्ष माने जाएँगे। धर्म, जाति या आर्थिक शिकायतों को लेकर उठने वाले तमाम झगड़े विश्व शांति को भंग करना बंद कर देंगे।"
संदर्भ सूची –
1- http://thewirehindi.com/54769/nabard-agriculture-report-farmer-income-rural/
2- https://www.facebook.com/domparisangh/videos/608891250005384/?extid=9VoHtdU3zv1TAxCu&d=null&vh=e
3- https://www.bbc.com/hindi/india-53425161
4- https://www.bbc.com/hindi/media-53922654
5- https://www.forwardpress.in/2020/04/news-analysis-bihar-corona-migration-labour-hindi/
6- https://twitter.com/INCUttarPradesh/status/1302992282166030336?s=08
7- https://twitter.com/NationalDastak/status/1300288715596595206?s=08
8- https://twitter.com/ratanlal72/status/1267075338070298626?s=08
परिचय-
आशीष कुमार पाण्डेय
शोधार्थी
हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
इस विशेषांक में
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