सुनो द्रोणाचार्य
कविता | डॉ. मुसाफ़िर बैठासुनो द्रोणाचार्य!
अब लदने को हैं
दिन तुम्हारे
छल के
बल के
छल बल के
लंगड़ा ही सही
लोकतंत्र आ गया है अब
जिसमें एकलव्यों के लिए भी
पर्याप्त ‘स्पेस’ होगा
मिल सकेगा अब जैसा को तैसा
अँगूठा के बदले अँगूठा
और
हनुमानकूद लगाना लगवाना अर्जुनों का
न कदापि अब आसान होगा
तब के दैव राज में
पाखंडी लंगड़ा था न्याय तुम्हारा
जो बेशक तुम्हारे राग दरबारी से उपजा होगा
था छल स्वार्थ सना तुम्हरा गुरु धर्म
पर अब गया लद दिन-दहाड़े हक़मारी का
वो पुरा ख़्याल वो पुराना ज़माना
अब के लोकतंत्र में तर्कयुग में
उघड़ रहा है तेरा
छलत्कारों हत्कर्मों हरमज़दगियों का
वो कच्चा चिट्ठा
जो साफ़ शफ़्फ़ाफ़ बेदाग़ बनकर
अब तक अक्षुण्ण खड़ा था
तुम्हारे द्वारा सताए गयों के
अधिकार अचेतन होने की बावत
डरो चेतो या कुछ करो द्रोण
कि बाबा साहेब के सूत्र संदेश-
पढ़ो संगठित बनो संघर्ष करो
की अधिकार पट्टी पढ़ गुन कर
तुम्हारे सामने
इनक़लाबी प्रत्याक्रमण युयुत्सु
भीमकाय जत्था खड़ा है।
इस विशेषांक में
कहानी
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