अंतर्द्वंद्व
कहानी | कावेरीपरिचय करवाया किस्कू जी ने, "दुमका में हिंदी अफसर हैं मैडम शालू।"
उसमें से कुछ लोग पढ़े-लिखे थे, कुछ कम पढ़े-लिखे, कुछ अनपढ़। औरतें एकदम अनपढ़। अपनी आदिवासी भाषा में बातें कर रही थीं। शालू को किस्कू साहब की पत्नी सरल स्वभाव की लगीं। बेटे भी ढंग के लगे। परंतु बेटियाँ बातूनी एवं चंट स्वभाव की लगीं। तीन की पढ़ाई-लिखाई कम हो पाई थी। जल्दी शादी करके उनकी पत्नी आश्वस्त होना चाहती थीं।
बेटियों से परिचय उनकी पत्नी ने करवाया, “ये बड़ी कनक, इसके तीन बच्चे हैं। ये मँझली बिजली, इसके चार बच्चे हैं। इसका पति बेरोज़गार है। यहीं रहती है। बाक़ी तीन छोटी हैं। अभी पढ़ रही हैं। बेटे भी पढ़ रहे हैं। भई, खाना खिलाओ। थकी-माँदी आई हैं। खाना खा कर आराम भी करेंगी।”
पत्नी खाना लाने गई। किस्कू जी बैठकर त्यौहार के बारे में बताने लगे, “सरहुल पर्व धान कटने के बाद ख़ुशी से मनाया जाता है। ससुराल से बेटियाँ मायके आती हैं। कई प्रकार के भोजन एवं अजीब क़िस्म से गोश्त पकाया जाता है। आप तो शाकाहारी हैं, इसलिए आपके लिए खीर बनाई गई है।”
उनकी पत्नी खाना ले आई। शालू ने किस्कू जी की पत्नी से कहा, “आपका नाम तो अभी तक जान ही नहीं पाई।”
उन्होंने शर्माते हुए कहा, “सूर्यमुखी”।
खाना खा लेने के बाद किस्कू जी ने अपनी बेटियों से कहा, “आंटी के लिए मेरे कमरे में बिस्तर लगा दो। मैं ऊपर छत पर ही सो जाऊँगा।”
शालू को किस्कू जी का सामीप्य अच्छा लग रहा था। इच्छा हो रही थी कि इस निश्छल पति-पत्नी के बीच बैठकर बातें करती रहूँ।
“जाइए मैडम, आराम करिए,” किस्कू जी ने आग्रह किया।
बिजली तेज़ी से कमरे में घुसी। पटक-पटक कर बिस्तर लगा दिया। अनमने ढंग से मच्छरदानी बाँधी, “लीजिए मैडम, सो जाइए।”
एक हृदया आदमी से आत्मसात होना क्या गुनाह है? शीलू को बिजली पर ग़ुस्सा आया। कैसी बिगड़ैल बेटी है। मुझे क्या समझ रखा है। एकाएक शालू के मन में स्वाभिमान जाग उठा। उसने सिर्फ़ आदिवासी संस्कृति को नज़दीक से देखने का मन बनाया था। किस्कू जी के प्रति कोई दैहिक आकर्षण नहीं था। हाँ, उनके व्यक्तित्व से प्रभावित थी। शालू को वैवाहिक जीवनयापन करना होता तो कब की शादी कर लेती। परंतु उसे समाज सेवा करनी थी। लेश मात्र भी रोमाँस अपने भीतर नहीं आने देती। परंतु बेटियों का व्यवहार और किस्कू जी का भोलापन शालू को अंदर से विचलित करने लगा। इतने बच्चों के पिता, फिर भी सरल और शांत व्यक्तित्व अजीब तरह का। शालू जितना मन से फिजूल बातें निकालती, उतनी ही उसके अंदर घुसने लगतीं। रात में नींद ठीक से नहीं आई।
सवेरे जल्दी उठने की आदत है शालू को। घर के सामने खुला मैदान है। शालू की इच्छा हुई थोड़ा टहल लें।
“गुड मॉर्निंग शालू जी!” सामने किस्कू जी खड़े थे। उत्तर में शालू भी मुस्कुरा दी।
“बाहर कुर्सी निकलवाऊँ?” किस्कू जी ने पूछा। सहमति में शालू ने गर्दन हिलाई।
“अरे हेमू, ज़रा कुर्सी इधर लाना।”
हेमू कुर्सी ला कर देता है। किस्कू जी हेमू से परिचय करवाते हैं, “मेरे ऑफ़िस का चपरासी है। नेक आदमी है। कोई भी सामान इसके द्वारा भिजवाता रहता हूँ। उस दिन आप ऑफ़िस गई थीं तो यह यहीं पर आया हुआ था। शालू जी, कैसा लगा मेरा घर-परिवार?”
शालू ने अंदर की कड़वाहट होठों पर नहीं आने दी। सहजतापूर्वक बोली, “बहुत अच्छा। मुझे तो मैटर चाहिए कि आदिवासी संस्कृति कैसे लुप्त हो रही है, उस पर बाहरी प्रभाव, पाश्चात्य प्रभाव कितना हावी हो रहा है?”
किस्कू जी ने कहा, “हाँ मैडम, इसलिए तो मैं आपको अपने गाँव ले आया हूँ। यहाँ की लोक संस्कृति अभी भी जीवित है। हर त्यौहार में मैं आपको यहाँ लाऊँगा। मुझे भी अपना गाँव पसंद है। इसी गाँव की मिट्टी में पला, बड़ा हुआ। मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी हुई। मेरे माँ-पिताजी की यही इच्छा थी कि मेरा बेटा अफसर बने। वह हाड़तोड़ मेहनत करते थे। नौकरी थी नहीं। खेत में उपज हुई तो साल ठीक से गुज़रा, नहीं तो महुआ उबालकर माँ खाने को देती थी। हम आदिवासी भूखे पेट सब खाने को तैयार रहते थे। चींटी के अंडे हम चाव से खाते थे। जिस वर्ष धान की फसल अच्छी हुई वह वर्ष अमन-चैन से गुज़रता था...”
बिजली इसी बीच आई और तुनक कर चाय दे गई। फिर किस्कू जी आगे बोले, “हमें आज ही वापस लौटना है। इंदिरा आवास के लिए रुपयों का आवंटन करना है। हम लोग रांची होते जाएँगे। पत्नी एवं बच्चों को वहाँ छोड़कर सीधे दुमका जाएँगे।”
शालू की एक-दो दिन और ठहरने की इच्छा थी। पहाड़, झरने, गाँव के बच्चे बहुत भा रहे थे। परंतु किस्कू जी की छुट्टी ख़त्म।
रांची में साफ़-सुथरा बड़ा सा मकान। आगे खुली जगह। करीने से लगे फूलों के गमले। डर्बिन डॉग, जिसे देखकर शालू डर गई। कुत्ता दोनों पैर उठाकर सीधा खड़ा हो गया। बारी-बारी से सबको सूँघने लगा। शालू के पास पहुँचा तो भय के मारे पीछे हट गई। किस्कू जी ने कहा, “आप स्थिर रहिए। कुछ नहीं करेगा। एक बार आपकी गंध पहचान जाएगा, तब कभी नहीं भूलेगा।”
नौकर को फोन से ख़बर कर दी गई थी। खाना तैयार था। किस्कू जी ने कहा, “हम दोनों को जल्दी खिलाओ। दुमका आज ही पहुँचना ज़रूरी है। आइए मैडम!”
बिजली को बहुत बुरा लग रहा था। उसने डाइनिंग रूम का परदा खींचकर शालू को ड्राइंग रूम में आने को कहा, “आपका खाना यहाँ लगा है।”
सेंटर टेबल पर खाना लगा हुआ था। किस्कू जी का चेहरा लटक गया। पता नहीं क्या सोचा। पर इतना वाकिफ़ थे कि उनकी बिगड़ैल बेटी गँवार है। भला एक टेबल पर खाना खाने से क्या हो जाता।
शालू मारुति के पीछे वाली सीट पर बैठ गई। किस्कू साहब आगे। चलते समय उनकी पत्नी ने नमस्ते किया। बोली, “एक बार रांची आइए।” बेटियों ने मुँह लटका कर नमस्ते किया।
शालू हैरान थी। आदिवासी समाज तो स्वच्छंद है। आपस में प्रेम से लोग मिलते हैं। परंतु इनका परिवार शहर में रहकर अपनी संस्कृति को भूल गया है। द्वेष और संदेह इनके अंदर घर कर गए हैं। किस्कू जी चाह कर भी इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं कर पाए। वे मौन थे। पता नहीं उनके सरल हृदय में कौन सा विचार उठ रहा था।
शालू ने अपनी तंद्रा भंग की, “आप तो कह रहे थे, मेरे गाँव के लोग अब भी सरल हैं, पर आप का परिवार...! मैं क्या लिखूँगी आदिवासी संस्कृति पर?”
“ठीक है। एक बार और आपको गाँव ले चलूँगा। दो-चार दिन ठहरने पर वहाँ की संस्कृति समझ में आएगी। रही बात मेरे परिवार की, पता नहीं कैसा दुष्प्रभाव इन पर छा गया है। आपको अपमानित होना पड़ा। मुझे काफ़ी दुख है।”
“छोड़िए! मुझे उससे क्या लेना-देना? आप और आपका परिवार समझे, मुझे तो आदिवासी संस्कृति पर आलेख तैयार करना है और उसमें नारियों की सामाजिक स्थिति को दिखाना है।”
फिर मौन! गाड़ी सरपट दौड़ रही थी। रांची से दुमका का सफर। शालू को लग रहा था, प्रकृति की गोद में बैठी स्वप्न देख रही है। किस्कू जी का भरा पूरा व्यक्तित्व, बात करने का अंदाज़, शालू गहरी नज़रों से उनकी ओर देख रही थी।
प्रेम अंकुर पनपने लगा था। इसमें बुराई क्या है? प्रेम को बुरा मनुष्य ने बनाया है। शुद्धता और जाति बंधन के नाम पर जकड़ दिया है। शालू को लगा प्रेम तो सहज अनुभूति है। बिना कोशिश के प्रकृति प्रदत्त आकर्षण रुके नहीं रुकता। प्रकृति के आंगन में बेजान और मूक प्राणी भी परस्पर प्रेम में आकृष्ट तथा स्फुरित रहते हैं। सागर को पूर्ण चंद्र से, कमल को सूर्य से, मोर को मेघा-घटा से, भँवरे को फूलों से, हंस को सरोवर से। इन युगलों के बीच की दूरी काफ़ी होती है, फिर भी ये प्रेम रस में खिले रहते हैं। नाचते, उछलते, गुनगुनाते एवं विह्वल रहते हैं। प्रेम में सचमुच दीवानगी होती है। शालू वहाँ बैठे किस्कू साहब की ओर देखती है।
दुमका पहुँचने के बाद किस्कू साहब अपने आवास के सामने उतर गए। ड्राइवर को उन्होंने कहा, “शालू को घर तक छोड़ आओ।”
शालू ने किस्कू साहब से संपर्क बनाए रखा था।
अपनी संतानों से बेहद प्रेम रखने वाले हैं किस्कू साहब। मजाल है कि उनके बच्चों के बारे में उनसे कोई शिकायत करे। सुनकर आग बबूला हो जाते हैं। उस व्यक्ति से बात करना छोड़ देते हैं। पत्नी से बेहिसाब प्रेम रखने वाले। उसकी हर बात पर अमल करने वाले। पत्नी की इच्छा हुई कि मुझे नौलक्खा हार चाहिए, तुरंत हाज़िर।
“ऐ जी, मुख्तार साहब का घर मार्बल का कितना सुंदर है। आप तो मोज़ायक करवाए हैं।”
“अच्छा भाई, हो जाएगा मार्बल।”
दूसरे दिन से काम शुरू। मोज़ायक तुड़वा कर क्यों बनायें, चलो दूसरा मकान बना देते हैं। एक नहीं चार चार मकान।
लोग सोचते हैं, ज़िले भर के मालिक किस्कू साहब, जो चाहें अपनी पत्नी और बच्चों के लिए कर सकते हैं। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में कोई कसर नहीं। एक बेटी बेंगलोर मेडिकल कॉलेज में, दूसरी एमसीए चेन्नई में। एक बेटा पूना में इंजीनियरिंग, दूसरा मेडिकल में। लगता है, लालू यादव से कम नहीं है किस्कू जी बच्चा पैदा करने में! राबड़ी से कम उनकी पत्नी नहीं है– बच्चा पैदा करने की खान। फिर इनके लिए लक्ष्मी और सरस्वती दोनों को पकड़ कर रखना है। पत्नी चाहती है, पति के पद का पूरा उपभोग किया जाए।
किस्कू साहब घर-परिवार से कटे नहीं हैं। भाई-भतीजे के लिए भी कम काम नहीं किया। जब जहाँ मौक़ा मिला, भरपूर सहयोग दिया। किसी की शादी हो रही है, वहाँ मौजूद। लड़की की शादी है तो शरीर और रक़म दोनों रूप से हाज़िर। किसी की मृत्यु हो गई, वहाँ हाज़िर। अपने परिवार में कोई बेरोज़गार नहीं रहने दिया। जो जिस लायक है, उसे वैसी ही जगह रखवा दिया, यानी नौकरी पर लगवा दिया।
अपने अच्छे कर्मों के बावजूद उनकी पत्नी अशांत रहती है। बेटियों में बिजली बहुत तेज़ है। शादी के बीस साल हो गए हैं, परंतु अपने मायके से पैर नहीं उखाड़ पा रही है। शादी में ससुराल गई और शिकायत का पुलिंदा लेकर आई। सास खाना नहीं देती है, घर का सारा काम करवाती है। पैसे और रुतबा वाला ससुर नहीं है। ऊपर से ढेर सारे बच्चे। बहुत दुख है। माता-पिता के लिए स्वाभाविक है, बेटी को दुख से उबारना। फिर यहाँ क्या कमी है कि बेटी ससुराल में भूखी मरे! इतनी संपत्ति! कई जगह मकान। उनकी देखभाल भी चाहिए। किस्कू साहब हर तीन साल पर स्थानांतरित होते हैं। जहाँ रहते हैं वहाँ एक मकान। इसलिए कोई बात नहीं। रहो बेटी, आराम से रहो।
धन-दौलत ने किसको विचलित नहीं किया! संपत्ति की रक्षा कर रही बिजली अब पूरे घर की मालकिन है। नौकर को इतना सीधा रखती है कि कोई नौकर चार महीने से ज़्यादा नहीं टिक पाता। जाड़ा, गर्मी, बरसात, सब उसके लिए एक समान दिखता है। चार बजे भोर में नौकर को जगा देती है। पानी भरो। घर पोंछो। बरामदा धोओ। पौधों में पानी दो। गाय को खाना दो। थका-माँदा कभी उठने में देर कर दे तो सटाक! हाथ में छड़ी वह हमेशा रखती है। बेचारा चिल्लाता है- “हम शादीशुदा हैं, आप क्यों मारती हैं? मेरी बीवी सुनेगी तो?" बीवी की याद आते ही वह स्वचालित यंत्र बन जाता है। होली में जाना है। उसके लिए साड़ी ले जाना है। बारह बज जाते हैं। घर के व्यक्ति खाना खा लेते हैं, तब उसको नाश्ता मिलता है। दिन में चार बजे खाना। वह बिजली को हंटर वाली दीदी कहता है। पता नहीं, दुकानदार कहीं उसको भड़का न दे। पहले भी कई नौकरों को भगा दिया है। अपने साथ लेकर ही दुकान जाती। नौकर के प्रति हमेशा चौकस रहती।
किस्कू साहब की बीवी अपनी बेटी की बुद्धिमत्ता पर ख़ुश रहती। सारा लेन-देन बिजली के हाथों होता। घर का किराया वसूलना, किराएदार से घर खाली करवाना, दूध, पेपर और सब्ज़ी वाले को पैसा देना। घर-गृहस्थी चलाने में दक्षता हासिल कर ली है। कोई मेहमान आए तो किस कैटेगरी का है, किसके साथ कैसा व्यवहार करना है, किस को बैठने के लिए कहना है, किसको दरवाज़े से लौटा देना है, किसे चाय देनी है, किसको भोजन खिलाना है, उसे सब मालूम है। रुपए देखते-देखते उसकी आँखों की चमक भी बढ़ गई है। हमेशा माँ से कहती रहती है- “माँ एक जगह का घर मेरे नाम कर दो।” उसका कहना बुरा नहीं। वह भी उनकी संतान है। घर की देखभाल करती है। बस बुरा है, दूसरी बेटियों पर उसका चढ़ बैठना। माँ सीधी और सरल है। किंतु संपत्ति की पहचान उसे भी है। यदि एक बेटी घर माँग रही है तो पाँचों बेटी को देना होगा। बाप रे! फिर पुत्रों के लिए क्या बचेगा? बेटियों की शादी में ख़र्च करो, फिर संपत्ति भी दो। वह बिजली से सतर्क रहने लगी है। पता नहीं कब झटका मार दे! वैसे भी बिजली झटका मारने में तेज़ है। घर की मालकिन है। जब-तब हर जगह हाथ साफ करती रहती है। तभी तो अपने पति को गड्डी की गड्डी रुपए देती है। बच्चों को महँगे स्कूल में पढ़ाती है। ख़ुद फ़ैशन में रहती है।
किस्कू साहब अपने पद के अनुसार काफ़ी व्यस्त रहते हैं। उन्हें घर के ऊल-जलूल से कोई मतलब नहीं है। बस, जो पत्नी और बच्चे कहें, उन्हें पूरा करना है।
बिजली की नज़र अपने पिता के खुले हाथ और खुले दिल पर भी रहती है। माँ को समझाती रहती है, “देख माँ! पापा को सब रिश्तेदार खाली ठगते हैं। हम लोगों को कभी कोई रिश्तेदार कुछ देता है? बड़े पापा की बेटी की शादी में पापा ने कितना ख़र्च किया, पर मेरी शादी में बड़े पापा ने कितना दिया?”
किस्कू साहब की पत्नी सूर्यमुखी की आँखें फैल जाती हैं, “तू ठीक कहती है बेटा! तेरे पापा एकदम बुद्धू हैं।”
जैसे ही किस्कू साहब घर पहुँचते हैं, उनकी पत्नी सवालों की बौछार लगा देती है, "अयं, तू कितना मनमानी करो ही। अब बिना हमरा पूछे एक पइसा न घरवाला के दे सके ही। घरवाला हम्मर बाल-बच्चा के बियाह में केतना देलो हे?”
किस्कू साहब हँस के टाल देते, “अरे हमारे पास है, देते हैं। उनके पास क्या है?"
परंतु पत्नी है कि एक बार नहीं हज़ार बार एक ही बात को दोहराए तो किस्कू साहब कैसे नहीं सुनेंगे! आख़िरकार, घर-परिवार के निकट रिश्तेदारों से दूर होते गए।
पत्नी सूर्यमुखी अपने पति और बच्चों से पूरा सहमत थी। साल में चार महीना पति के पास, फिर बच्चों के पास। रांची में स्थायी मकान है। वहाँ बच्चों की पढ़ाई-लिखाई स्थिर से होती है। किस्कू साहब ने सोच-विचार कर ऐसा किया है। पर्व-त्यौहार में रांची आ जाते और परिवार के साथ रहते। जिला भर के मालिक को फ़ुर्सत कहाँ! पर्व के दूसरे दिन वापस।
बिजली की नज़र पिता पर बराबर लगी रहती है। जासूसी करना भी सीख गई है। पिताजी कहाँ किससे बात करते हैं, कौन वहाँ आता-जाता है, सब ख़बर चपरासी हेमू से लेती रहती है। हेमू भी एक नंबर का चुगलखोर। सामान पहुँचाने आता है तब नमक-मिर्च लगाकर बिजली से कहता है, “आजकल ऑफ़िस में एक मैडम आती है।”
बिजली के कान खड़े हो गए, “क्यों आती है हेमू, कैसी है, कितने दिनों बाद और किस समय आती है?"
हेमू मुस्कुरा कर कहता है, “साहब को दिन में फुर्सत कहाँ, रात में न किसी से बात करेंगे?”
“कैसी है रे वह हेमू?”
हेमू थोड़ा दाएँ-बाएँ झाँक कर कहता है, “कम उम्र की सुंदर और फैशन वाली है। कंधे तक बाल रखती है।"
बिजली सनक उठी। अपनी माँ सूर्यमुखी को सजाने के लिए तुरंत ब्यूटी पार्लर ले गई। सूर्यमुखी के बाल वैसे भी छोटे ही थे। कंधे तक सेट करवाए। फ़ेशियल, आइब्रो, मसाज, पता नहीं क्या-क्या...! सूर्यमुखी ना-नुकुर करती रही। बिजली समझाती रही। तू नहीं सजेगी तो सारा पैसा पापा उस औरत को दे देंगे। सूर्यमुखी अपने पति पर विश्वास करती थी। परंतु सोचने लगी, क्या पता, वह पढ़ी-लिखी है, मेरे पति उससे शादी ना कर ले। बिजली ने माँ को अच्छी तरह मॉडर्न बना दिया। माँ किसी मॉडल की तरह लग रही थी। घर पहुँची तो चिल्ला-चिल्ला कर रोना शुरू। बच्चों ने घेर लिया- क्या हुआ माँ को अचानक। पास-पड़ोस से कोई संबंध नहीं था, इसलिए भीड़ जमा नहीं हुई। घर में ही इतने बच्चे थे कि एक भीड़ लग रही थी। पूना से शंकर आया हुआ था। शंकर और नौकर के साथ माँ को दुमका भेज दिया, जहाँ किस्कू साहब पदस्थापित थे।
बिना ख़बर किए पत्नी बेटा और नौकर के साथ हाज़िर थी। किस्कू साहब को आश्चर्य हुआ। हेमू चपरासी का संकेत उन्हें याद आया, शब्बा के बारे में बिजली खोद-खोद कर पूछती है। उसी रूम में सजी-धजी पत्नी को देखकर क्षोभ और ग्लानि से वे भर गए। सब बिजली की करामात है। पत्नी ने फफक-फफक कर रोना शुरू कर दिया। किस्कू साहब कड़के, “यह क्या नौटंकी है? सारा जीवन मैंने तुम लोगों के लिए लगाया। क्या सुख सुविधा नहीं दी मैंने? फिर इस तरह का आक्षेप क्यों?”
बेटा शंकर भी किस्कू साहब की ओर अवहेलना भरी दृष्टि से देख रहा था। सूर्यमुखी चुप होकर किस्कू साहब की ओर लपकी। उनका कॉलर पकड़ कर घसीट कर कमरे में ले गई। किस्कू साहब चिल्लाते रहे, “तुम पगला गई हो क्या? विलायती औरतों की तरह मुझे मारोगी क्या?”
शालू का ऐसे में आवास पर पहुँचना और क्लाइमेक्स में बवंडर होना, परिवार को भड़काना, कोई आश्चर्य की बात नहीं। किस्कू जी को पहले शालू ने फोन पर बता दिया, इसलिए वे फाटक के पास खड़े मिले।
“आइए शालू जी!” उनकी बोली से शालू ने अंदाज़ा लगाया। ज़रूर अंतर्द्वंद्व में डूबे हैं। शालू ने उनके मन की बात लेनी चाही, पर वे नहीं खुले। बड़े पद पर हैं तो मिलने वाले आएँगे ही। इसमें स्त्री और पुरुष का भेद क्यों? चपरासी चाय दे गया। शालू चाय की चुस्की के साथ किस्कू जी के मन का भाव पढ़ रही थी।
“ठीक है, चलूँ!” चाय की प्याली रखकर शालू उठ गई।
“ठीक है,” भरे मन से उन्होंने स्वीकृति दी।
शालू घर आकर चैन से नहीं बैठ पाई। बार-बार किस्कू जी का भोला चेहरा सामने आ जाता। पढ़ाई में टॉपर, ऑनर वाले। ज़िले भर के मालिक। फिर क्यों अंदर से सहमे हैं? फोन से बात करके पूछेगी। सामने उसने हिम्मत नहीं की थी।
नंबर मिलाया। उधर से भरभरायी आवाज़ आई, “अच्छा शालू जी, कहिए, क्या कहना है?”
“आज आप काफ़ी उदास दिखे।”
“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।” सिर दर्द का बहाना बनाकर फोन काट दिया।
दूसरे दिन अचानक सुर्खियों में बात छा गई। किस्कू जी की पत्नी ने शब्बा शेख की काफ़ी धुलाई कर दी। शब्बा का कहना था, “बहुत दिनों से प्रेम-प्रसंग किस्कू जी के साथ चल रहा था। यौन शोषण सात साल से किस्कू जी कर रहे थे। अब वह पत्नी का हक़ माँगने आई तो उनकी पहली पत्नी ने जमकर पिटाई कर दी। किस्कू साहब देखते रहे।”
बेचारे किस्कू साहब! शालू को पता नहीं कहाँ से किस्कू जी के लिए प्यार उमड़ आया। वह भी किस्कू जी के व्यवहार से प्रभावित थी। प्राण से ज़्यादा चाहने लगी थी। फोन पर कभी-कभी इज़हार कर देती थी, परंतु वे हमेशा मौन ही रहे थे। ऊपर से सब प्रकार से संपन्न, सुखी एवं शांत दिखने वाला मनुष्य भी मन के किसी कोने में कितना बिखरा, कितना टूटा है? कितना दुखी है? शालू को किस्कू साहब के प्रति नफ़रत की जगह सहानुभूति ही क्यों उत्पन्न हो रही है? उसके मन में घृणा क्यों नहीं आ रही? एक ग़रीब औरत की अस्मत क्यों लूटे? जब लूटे तो उसे हक़ मिलना चाहिए।
नहीं, वे ऐसे नहीं हो सकते। शालू ने नज़दीक से उन्हें देखा है। अपनी आदिवासी संस्कृति को उजड़ते हुए, पत्नी और बच्चों के व्यवहार से दुखी वे अंदर-बाहर संघर्षरत रहते हैं। ख़ासकर, उनकी बेटी बिजली कल्पना करके कहानी गढ़ती है और अपनी माँ को उकसाती रहती है। माँ को ज़्यादा भय संपत्ति बर्बाद होने से है। पति तो अपना है। उसे ठीक कर लेगी।
शालू ने नंबर मिलाया, “हेलो!”
उधर से दबी आवाज़ आई, “बहुत दिनों के बाद मैं याद आया।”
शालू की बाँछें खिल गईं, “ओह! लगता है मेरी याद आपको सताती है, तभी तो इतना नाम चमका है!”
“व्यंग्य-वाण आप भी छोड़ रही हैं। यह सब बकवास है।”
“सही बात क्या है? आपने बीच में चुप्पी साध ली।”
“मैंने समझा, मैं आपके काबिल नहीं।”
“ऐसी बात नहीं। मुझे पद और पैसे वालों से काफ़ी डर लगता है। नारी-नारी की दुश्मन है। अभी जो शब्बा के साथ हुआ वही मेरे साथ होता तो? मैं अपना स्वाभिमान नहीं छोड़ पाई। आपसे दूरी बनाए रखी।”
“मैंने नहीं सोचा था कि आप का अभाव मुझे बदनामी का जामा पहनाएगा। एक-दो बार वह आई थी मुझसे मदद माँगने। पैर पकड़कर गिड़गिड़ाई थी। बस, यही मेरे द्वारा उसका यौन शोषण किया जाना हुआ! मैंने उसे आप जैसी ही समझ कर उससे दो-चार बातें की थीं। ख़ैर छोड़िए, सांच को आंच कहाँ! मैं अपनी जगह सही हूँ।”
दूसरे दिन फिर शालू ने ही फोन लगाया, “आप ठीक तो हैं?”
“हाँ मैं ठीक हूँ।”
शालू से रहा नहीं जा रहा है, “आपके अपमान से काफ़ी दुखी हूँ। क्या आप अपनी उस बेटी को समझ नहीं सकते जिसके कारण बदनाम हुए?” फोन उन्होंने काट दिया। अपने बच्चों की बुराई कभी नहीं सुन सकते। शालू उनकी भावना की क़द्र करती है।
किस्कू जी घर बाहर से परेशान हैं। सवर्ण नेता आँखें गड़ाए रहते हैं। मौक़ा मिलते ही परेशान करना शुरू कर बर्ख़ास्त करने की योजना बनाने लगे।
शालू अब किस्कू जी को बिखरने नहीं देगी। वह सम्मान की भूखी है। रुपयों के लालच ने शब्बा को गिराया।
क्या बिना आग के धुआँ उठ सकता है- यह किस्कू जी की पत्नी का सोचना है। जरूर मेरे पति के साथ वह चुड़ैल हमबिस्तर हुई होगी। किस्कू जी को परेशान किए रहती है।
शालू विचारों के जाल में किस्कू जी को फँसाए रहती है। वह नहीं चाहती है कि एक गोल्ड मेडलिस्ट व्यक्ति का व्यक्तित्व पारिवारिक कलह और यौन प्रसंग में सिकुड़ कर रह जाए। किस्कू जी ने कई बार बातचीत के सिलसिले में यह विचार प्रकट किया है, “उन्हें देश दुनिया के बारे में भी सोचना है।”
एक दिन अचानक किस्कू जी ने फोन किया। मैडम आपको गुवाहाटी चलना है। शालू सकते में आ गई, “बाप रे! किस्कू जी को क्या हो गया है। मुझे गुवाहाटी ले जाएँगे? क्यों, शब्बा की तरह मार खिलवानी है?”
“ज़रूरी काम से जाना है। आपका रिज़र्वेशन भी मैंने करवा लिया है। समय कम है। जल्दी तैयार हो जाइए। वर्द्धमान से गुवाहाटी एक्सप्रेस पकड़नी है।”
शालू झटपट तैयार हो गई। यात्रा के नाम पर वह ख़ुश रहती है। मनुष्य यात्री बन कर आया है इस धरती पर। फिर यात्रा सीमित क्यों? बंधन क्यों? शालू विचारों में खोई थी।
दोनों बर्थ नीचे के थे। गाड़ी निश्चित समय से लेट थी। दोपहर में गाड़ी खुली। सिलीगुड़ी –जलपाईगुड़ी। चाय बागान में चाय की पत्तियाँ तोड़ती नरम-नरम ऊँगलियाँ काफ़ी अच्छी लग रही थीं। किस्कू जी भी ध्यान से देख रहे थे। पैंट्री कार वाला व्यक्ति आया, “साहब रात का खाना।”
“हाँ लिख लो, दो लोगों का खाना।”
शाम ढलने लगी। चाय के पौधे सुनहरे रंग के दिखने लगे थे। रोशनी छनकर कभी खिड़की से आती कभी लुप्त हो जाती। अंधेरा छाने लगा। शाम को खाना खाकर अपने-अपने बर्थ पर लेट गए। शालू को नींद नहीं आ रही थी। 'नदिया के पार' वाला गाना याद आ रहा था, ‘पहली बार हम निकले हैं घर से किसी अनजान के संग हो’। परन्तु शालू तो किस्कू जी को बहुत दिनों से जान रही है। फिर वह गाना याद आया, ‘बहुत रात बीती, चलो मैं सुला दूँ। पवन छेड़े सरगम मैं लोरी सुना दूँ।” किस्कू जी करवट बदल रहे थे। फिर मुँह फेरकर सो गए। शालू को लगा, तुम्हें देखकर यह ख़्याल आ रहा है, जैसे फ़रिश्ता कोई सो रहा है। और अपने बर्थ से उठकर उनका माथा चूम लिया। मन हो रहा था उनके आग़ोश में समा जाए। फिर शब्बा की याद आई। मन को शांत कर लेट गई। गाड़ी की गति के साथ उसकी धड़कन तेज़ होती जाती है।
सुबह नींद खुली, चाय...चाय, गरम चाय...” अब आसाम में गाड़ी घुसी है, फिर भी हिंदी में चाय गरम बोल रहा है असमिया। सचमुच हिंदी पूरे संसार को बाँधकर रखेगी।
गुवाहाटी पहुँचकर एक होटल में ठहरने की व्यवस्था हुई। दोनों के कमरे अलग-अलग। शालू को लग रहा था, दो बेड वाला एक कमरा ज़्यादा अच्छा होता। कैसे भी इनके परिवार वालों को पता चलेगा तो क्या विश्वास करेंगे? पर मुझे इनके देवत्व पर पूरा भरोसा है।
शाम को कमेच्छा घूमने का प्रोग्राम। फिर रात में वकील साहब के यहाँ खाना खाने का प्रोग्राम। किस्कू जी ने बताया, ये वकील झारखंड के ही हैं। इनसे पता करके कुछ ज़मीन ख़रीदनी है और एक धर्मशाला का शिलान्यास करना है। जानती हैं शालू जी! उसका नाम क्या होगा? शालू निकेतन।”
शालू इतना बड़ा सम्मान पाएगी किस्कू जी? फिर इनकी पत्नी और बच्चे?
“नहीं किस्कू जी, धर्मशाला का नाम सूर्यमुखी रखें।”
किस्कू जी बिफर गए, “उस गँवार और मूढ़ औरत का नाम, जिसके नाम से मैंने मकान और जगह-ज़मीन ख़रीदी, परंतु बदले में क्या मिला? कोहराम, अशांति, अविश्वास। अब मैं तिल-तिल घुट कर नहीं रह सकता। हाँ, मेरे बच्चे हैं, उन्हें कोई कमी नहीं होने दूँगा। सबको सेट कर दूँगा।”
"धर्मशाला ख़ासकर उन आदिवासियों के लिए होगा जो झारखंड छोड़कर कई पीढ़ी पहले से यहाँ आ बसे हैं, जिनके बच्चे विकास नहीं कर रहे हैं। बाहरी-भीतरी कर कर उन्हें भगाया और मारा जा रहा है। वे जाएँगे कहाँ? उनकी पुश्तैनी चीज़ वहाँ कहाँ बची? वे यहीं रहेंगे। उनके लिए एक विद्यालय भी खोलूँगा जिसमें वे पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़े हो सकेंगे।"
शालू किस्कू जी के विचार में निमग्न हो रही थी। मन-मंदिर के देवता को गुन रही थी।
धर्मशाला का शिलान्यास किस्कू जी ने किया। जल्द ही काम शुरू करेंगे। कुछ रुपए वकील साहब को सौंप दिए, “आप ही को सब कुछ करना है।”
दूसरे दिन लौटने का आरक्षण था। गुवाहाटी-हावड़ा एक्सप्रेस से। शालू किस्कू जी की महानता के आगे नतमस्तक थी। उसे याद आ रहा है विवेकानंद और सिस्टर निवेदिता का संबंध, अपने बीच पवित्रता कायम रखे हुए थे। शालू के मन से साहचर्य का लोभ-भाव निकल जाता है।
दुमका पहुँचने पर वही कोहराम। किस्कू जी का चपरासी इस रहस्य का उद्घाटन उनके परिवार में कर चुका था। पूरा परिवार एक साथ पहुँचकर इन पर हमला के लिए तैयार था। खाने-पीने के लिए कौन पूछे, सबके चेहरे विकराल थे।
किस्कू जी ने पूरी शक्ति लगाकर कहा, “मारो मुझे। मैं मरने के लिए तैयार हूँ। परंतु अब मैं वह मौत नहीं मरना चाहता जो तुम्हारी तरस पर मिले। मैंने दुनिया देखी है। देखा है अपने मित्र प्रसाद जी को। खून सुखाकर धन-दौलत जमा किया। बेटे और बेटियों को निकम्मा बनाया। सारी सुविधाएँ उपलब्ध कराईं परंतु बेटे और बेटियों को संतोष नहीं। पूरी ज़िंदगी पाप की कमाई जोड़ता रहा। रिटायर होने पर लात मारकर घर से बेघर कर दिया गया।” पत्नी की ओर इशारा किया, “तुम भी बहू की गाली सुनकर मरोगी। हार्ट फेल हो जाएगा। मैं भी कुढ़कर आत्महत्या कर लूँगा। जाओ, तुम लोगों को जो करना है, करो। मैं समाज सेवा करूँगा। शालू देवी है, उसकी पूजा करूँगा।”
इस विशेषांक में
कहानी
- आरक्षण सुनीता मंजू | कहानी
- मन्तर सुनीता मंजू | कहानी
- अंतर्द्वंद्व कावेरी | कहानी
- सुरंग दयानन्द बटोही | कहानी
- ऋण – ऊऋण इला कुमार | कहानी
- प्रवचन डॉ. जयप्रकाश कर्दम | कहानी
- सेमिनार डॉ. रानी कुमारी | कहानी
- स्पोर्टस ट्रायल डॉ. रजनी दिसोदिया | कहानी
- कोढ़िन डॉ. रजनी दिसोदिया | कहानी
- आवरण अजय नावरिया | कहानी
- पफ़ डॉ. टेकचंद | कहानी
- दुर्गी नीरजा हेमेन्द्र | कहानी
कविता
- बहादुर लड़की डॉ. रजत रानी मीनू | कविता
- हम आदिवासी हैं वीना श्रीवास्तव | कविता
- न्याय होगा शोषितों के हाथ वीना श्रीवास्तव | कविता
- मृगतृष्णा की क़ीमत वीना श्रीवास्तव | कविता
- गमलों के सोवनियर वीना श्रीवास्तव | कविता
- श्रेष्ठाणु सतीश खनगवाल | कविता
- नहीं चाहिए रामराज्य सतीश खनगवाल | कविता
- मैं नीच और तुम महान सतीश खनगवाल | कविता
- क्या हम मनुष्य नहीं हो सकते? सतीश खनगवाल | कविता
- घोषणा सतीश खनगवाल | कविता
- जादुई छड़ी कावेरी | कविता
- बाढ़ की विभीषिका कावेरी | कविता
- प्रमथ्यु जाग रहा है दयानन्द बटोही | कविता
- अपना घर दयानन्द बटोही | कविता
- इतिहास दयानन्द बटोही | कविता
- चोट दयानन्द बटोही | कविता
- मेरे सहयोगी दयानन्द बटोही | कविता
- अपनी विवशता दयानन्द बटोही | कविता
- शम्बूक अट्टहास कर रहा है डॉ. रजनी दिसोदिया | कविता
- डर डॉ. टेकचंद | कविता
- प्रेम में घर से भागी लड़कियों की सहेली होना... डॉ. टेकचंद | कविता
- पानी डॉ. टेकचंद | कविता
- प्रेमचंद डॉ. टेकचंद | कविता
- बाँस का बच्चा डॉ. टेकचंद | कविता
- जनेऊतोड़ लेखक डॉ. मुसाफ़िर बैठा | कविता
- कर्तव्य भर नफ़रत डॉ. मुसाफ़िर बैठा | कविता
- थर्मामीटर डॉ. मुसाफ़िर बैठा | कविता
- ब्राह्मणवाद की विष-नाभि की थाह में डॉ. मुसाफ़िर बैठा | कविता
- सुनो द्रोणाचार्य डॉ. मुसाफ़िर बैठा | कविता
- किताब डॉ. रजनी अनुरागी | कविता
- सवेरा बुनती स्त्रियाँ डॉ. रजनी अनुरागी | कविता
- फूलन डॉ. रजनी अनुरागी | कविता
- यात्रा में स्त्री डॉ. रजनी अनुरागी | कविता
- बरनी डॉ. रजनी अनुरागी | कविता
- बुद्ध अगर तुम औरत होते डॉ. रजनी अनुरागी | कविता
- तुम्हारा कोट डॉ. रजनी अनुरागी | कविता
- हमारी कविता डॉ. रजनी अनुरागी | कविता
- गृहणी डॉ. रानी कुमारी | कविता
- प्रश्न डॉ. पूनम तूषामड़ | कविता
- लॉक डाउन -3 डॉ. पूनम तूषामड़ | कविता
- परख डॉ. पूनम तूषामड़ | कविता
- बलिगाथा डॉ. मुकेश मानस | कविता
- क्योंकि मैं अनुसूचित ठहरा! हेमंत कुमार मेहरा | कविता
- हमारी मुलाक़ात डॉ. रजनी दिसोदिया | कविता
- हरिजन ज़हर प्रीति गोविंदराज | कविता
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गीत-नवगीत
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