अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित
पीछे जाएं

गृहणी

कुशल गृहणी 
ताउम्र जोड़ती है 
एक-एक पाई 
गाँव की महिलाओं या पुरुषों द्वारा 
चलाई जाने वाली 
कमेटी सोसायटी में
डालती है पैसा
जोड़ तोड़ कर!
संकट की घड़ी में 
काम आ सके 
उसकी छोटी-सी बचत 
 
यह मड़ी-सी पूँजी 
उसका आधार होती 
जिससे वह घर बनाने के 
सपने भी देखती...
बच्चों का भविष्य 
और हारी-बीमारी में 
काम आने वाला साधन भी.. 
 
दूसरों के सामने 
हाथ फैलाए... 
उससे बढ़िया 
अपना देखकर ख़र्चा करें!
अपने पुराने कपड़ों को
काँट छाँट कर
बना देती थी
बेटियों के लायक़..
गृहणी कुशल थी 
इसलिए मेहनत और 
उसकी क़ीमत को 
बख़ूबी समझती थी... 
 
पति की आदतों से परेशान, 
कुशल ग्रहणी... 
बेटा शायद समझे माँ को 
उसकी मेहनत को 
पिता की लत से 
पूरा घर परेशान, 
रात भर का जागना, 
रोना- पीटना, 
मारपीट से तंग सब 
न तनखा का पता, 
न ख़ुद का!
बेटे को उम्मीद से 
देखती माँ... 
बड़ी दुवाओं, मन्नतों से,
गंडे-तावीज तक का
सहारा लिया।
तब जाकर आँगन 
फूल खिला था।
 
बेटा ऐसा नहीं था 
उसे ये कंजूसी लगती 
सँभल कर चलने की 
बात करती उसकी माँ 
अब उसे अपनी 
सबसे बड़ी दुश्मन लगती
माँ बेटे की 
अब बनती नहीं थी...
 
बेटियाँ भी दुखी थी
इस माहौल से।
अपने घर में ही 
इतना कलह!
आगे भी क्या 
ऐसा ही होगा।
सोच कर ही
घबरा जातीं!
फिर भी इस 
उथल-पुथल में
पढ़ लिख गई..
नौकरी के लिए करने लगी
परिक्षाओं की तैयारी।
 
ज़रूरतों के पूरा होने पर भी 
बेटा हमेशा माथे में 
त्योरी ही डाले मिलता... 
उसके शौक़ और 
लत की आदत ने 
घर को अखाड़ा बना दिया...
रोज़ का क्लेश,
अशांति से तंग आकर माँ 
सब छोड़ कर चली गई 
जिस बेटे को बुढ़ापे की 
लाठी माना 
जिसे विनती, मन्नतों से माँगा 
वो ही दुत्कार रहा है 
 
सारे सपने टूटने का एहसास 
छलनी- सी माँ 
आँखों में आँसू भरे 
पुत्र मोह से नाता तोड़... 
अपनी ही परछाई के 
पास चली गई।
वह कुशल गृहणी
तो बन गई पर
बेटे की नज़र में
अच्छी माँ न बन पाईं...

इस विशेषांक में

कहानी

कविता

गीत-नवगीत

साहित्यिक आलेख

शोध निबन्ध

आत्मकथा

उपन्यास

लघुकथा

सामाजिक आलेख

बात-चीत

अन्य विशेषांक

  1. सुषम बेदी - श्रद्धांजलि और उनका रचना संसार
  2. ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार
  3. फीजी का हिन्दी साहित्य
  4. कैनेडा का हिंदी साहित्य
पीछे जाएं