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मैं नीच और तुम महान

वह मैं ही था
जिसने सौंप दिया
अपना राज-पाट
जंगल और ज़मीन
तुम्हारे माँगने पर
तीन पग में
जानते हुए भी
तुम्हारा छल-कपट।
 
वह मैं ही था
छीन लिया जिसका जीवन
तुमने 
मात्र इसलिए कि
भूलकर अपनी शूद्रता
बन बैठा था मैं
वेद-पुराणों का ज्ञाता
तुम्हारे समकक्ष।
 
वह मैं ही था,
जिसे नहीं दी गई शिक्षा
तुम्हारे द्वारा
किन्तु 
तनिक लज्जा नहीं आई तुम्हें
माँगते हुए गुरुदक्षिणा की भीख
और हँसते हुए दिया मैंने
अपना अँगूठा। 
 
वह मैं ही था
जिसे मजबूर किया तुमने
नीच कर्म करने पर
किंतु
मैंने सिखाई तुम्हें निर्गुण भक्ति
समृद्ध किया तुम्हारा साहित्य। 
 
वह मैं ही था 
जिसे नहीं दिया तुमने
ज्ञान का अधिकार
कभी बैठने नहीं दिया विद्यालय में
हाथ नहीं लगाया कभी मेरी पुस्तकों को
फिर भी ज्ञानार्जन कर अपने बल पर
मैंने दिया तुम्हें संविधान। 
 
वह मैं ही हूँ
भोग करते रहे तुम
जिसके श्रम का
हज़ारों वर्षों से देता रहा अपना रक्त
और लाल होते रहे तुम्हारे गाल
मैंने सदैव तुम्हें
कुछ ना कुछ दिया ही है
और तुमने सदैव मुझसे 
छीना ही है
कभी छल से 
तो कभी बल से
अब मुझे बताओ
मैं कैसे नीच
तुम कैसे महान?

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