अग्नि रेखा
काव्य साहित्य | कविता शशि पाधा8 May 2008
कुछ तो कह के जातीं तुम।
अनगिन प्रश्न उठे थे मन में
उत्तर रहे अधूरे
मरुथल में पदचिन्हों जैसे
स्वप्न हुए न पूरे।
उलझी जिन रिश्तों की डोरी
थोड़ा तो सुलझातीं तुम।
कुछ तो कह के जातीं तुम।
किस दृढ़ता से लाँघ ली तूने
संस्कारों की अग्नि रेखा
देहरी पर कुछ ठिठकीं होंगी
छूटा क्या, क्या मुड़ के देखा?
खुला झरोखा रखा बरसों
जाने को आ जातीं तुम।
कुछ तो कह के जातीं तुम।
आकांक्षाओं का पर्वत ऊँचा
चढ़ते चढ़ते सोचा क्या
जिस आँचल की छाँह पली
उस आँचल का सोचा क्या?
ममता की उस गोदी का
मान तो रख के जातीं तुम।
कुछ तो कह के जातीं तुम।
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