अर्जुन तांडव – 001
काव्य साहित्य | खण्डकाव्य संजय कवि ’श्री श्री’1 Feb 2021
अर्जुन तांडव - 001
बोले मधुसूदन, सुनो पार्थ!
कर्तव्य तुम्हारा करे चलो,
जो मिटना है मिट जाने दो,
भावी स्वप्नों को गढ़े चलो।
कहते कहते मधुसूदन ने
विश्वरूप जब दिखलाया,
मोह ग्लानि तब वाष्प बने,
कर्तव्य-बोध को सिखलाया।
दृश्य अलौकिक अद्भुत लीला
सूर्य कोटि हैं चमक रहे,
धन्य है संजय धन्य धनंजय,
मुखमंडल हैं दमक रहे।
हृद में चुभते सब शूल मिटे,
दर्शन पा अर्जुन धन्य हुआ,
नतमस्तक हरि के चरणों में
अर्पित हो भक्त अनन्य हुआ।
कांधे से पकड़ परन्तप को
यशोदा के लाला बोल रहे,
जीवन मृत्यु आत्मा शरीर
सारे रहस्य को खोल रहे।
मैं ही कर्ता हूँ सृष्टि का,
निष्ठा हूँ, धर्म, परायण हूँ,
दोषमुक्त तुम धर्मयुद्ध में,
लीलाधर मैं नारायण हूँ।
महाबाहो! ये धरा धर्म की,
इसके रक्षण बढ़े चलो;
भुजा तुम्हारी फड़क रही,
अरि की छाती पर चढ़े चलो।
संवाद कृष्ण का पूर्ण हुआ,
अर्जुन स्यन्दन पर खड़ा हुआ,
मुरझाया कुम्हलाया पौधा,
क्षण भर में जैसे बड़ा हुआ।
गांडीव की घोर गर्जना से,
वसुधा भी जैसे काँप रही,
शोकमुक्त अब अर्जुन है,
होनी अनहोनी भाँप रही।
उमड़ उठा है समूह अपार,
गूँज गई दुंदुभि उठे भाल,
मानों जग ही मिट जाएगा,
वीरों के बजते क़दम ताल।
— क्रमशः
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