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मृत्यु गीत गुनगुनाओ

वो तुम्हारा सिंहनाद, हर्ष करते विकल मानव, 
विजय का उत्सव मनाते मद में डूबी रात वो; 
आज आहत हो गिरे हो तो भी शोक त्याग दो, 
दंभ से बस याद कर लो उसी गुज़री बात को। 

 
याद कर इतिवृत्त को मन प्रफुल्लित कर सको, 
तो कदाचित सरल हो; 
ये तुम्हारा नष्ट होना मिटकर मिलना धूल में, 
भाव सब सम हो सके, सुधा हो या गरल हो। 

 
कर्म गति की चेतना को सृष्टि की संवेदना को, 
मानकर स्वीकार लो, शांत हो, अब ना अड़ो; 
विजय रथ अब रुक गया है, 
साहस से हारो, हँस पड़ो। 

 
धरा पर जो भी रहा धूल धूसरित ही हुआ, 
जो पांडवों के साथ थे वो भी तो मरे थे; 
द्यूत में सब हारकर, सभा में उड़ते चीर देख, 
वीर धर्मनिष्ठ भी भरी सभा डरे थे। 

 
निःसंदेह वो श्रेष्ठ थे, जो भी थे जैसे भी थे, 
नवसृजन के लिए, प्रचंड हो, लड़े थे; 
इसीलिए तुम आज थे, क्योंकि वो मिट गए, 
अन्यथा तुम कहाँ टिकते, जब तक वो खड़े थे। 

 
हे पराजित वीर!  ये पुनरावृत्ति है इतिवृत्त की, 
नवसृजन उत्सव मनाओ; 
तुम सृजन के मूल में हो और सदा ही रहोगे, 
विदा लो हँसते हुए, मृत्यु गीत गुनगुनाओ। 
मृत्यु गीत गुनगुनाओ . . .। 

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