मृत्यु गीत गुनगुनाओ
काव्य साहित्य | कविता संजय कवि ’श्री श्री’1 Apr 2023 (अंक: 226, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
वो तुम्हारा सिंहनाद, हर्ष करते विकल मानव,
विजय का उत्सव मनाते मद में डूबी रात वो;
आज आहत हो गिरे हो तो भी शोक त्याग दो,
दंभ से बस याद कर लो उसी गुज़री बात को।
याद कर इतिवृत्त को मन प्रफुल्लित कर सको,
तो कदाचित सरल हो;
ये तुम्हारा नष्ट होना मिटकर मिलना धूल में,
भाव सब सम हो सके, सुधा हो या गरल हो।
कर्म गति की चेतना को सृष्टि की संवेदना को,
मानकर स्वीकार लो, शांत हो, अब ना अड़ो;
विजय रथ अब रुक गया है,
साहस से हारो, हँस पड़ो।
धरा पर जो भी रहा धूल धूसरित ही हुआ,
जो पांडवों के साथ थे वो भी तो मरे थे;
द्यूत में सब हारकर, सभा में उड़ते चीर देख,
वीर धर्मनिष्ठ भी भरी सभा डरे थे।
निःसंदेह वो श्रेष्ठ थे, जो भी थे जैसे भी थे,
नवसृजन के लिए, प्रचंड हो, लड़े थे;
इसीलिए तुम आज थे, क्योंकि वो मिट गए,
अन्यथा तुम कहाँ टिकते, जब तक वो खड़े थे।
हे पराजित वीर! ये पुनरावृत्ति है इतिवृत्त की,
नवसृजन उत्सव मनाओ;
तुम सृजन के मूल में हो और सदा ही रहोगे,
विदा लो हँसते हुए, मृत्यु गीत गुनगुनाओ।
मृत्यु गीत गुनगुनाओ . . .।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अंतिम भ्रम का अवशेष बचूँगा
- अमावस्या की निशा
- अमिट रहे ये नेह तुम्हारा
- आशीष आपका बना रहे
- इतना ही तुमसे कहना है
- इसी धरा से पाए काया, इसी मृदा में मिल ही जाना . . .
- उन ग़रीबों के लिए तुमने क्या किया?
- और हम जी सकेंगे जी भरकर
- कलुषित हो, मानुष किस ओर चला है. . .?
- कोई दूर हुआ है जैसे
- कोटिशः अभिनंदन मेरी प्रिये!
- कोशिश करते हैं इन्हें पढ़ने की
- कोशिश है
- क्या यूँ ही तलाशता रह जाऊँगा तुमको
- चहुँ ओर शिखंडी बैठे हैं
- जब ये सब सुनूँगा तो काँप जाऊँगा
- जलयान जल को चीरता जब चल पड़ा है
- जीवन सरल था
- तुम अतीत नहीं हो माँ!
- तुम अनीति से नहीं डरे थे
- तुम थोड़ा सँभलकर चलो, मैं तो अमर हूँ
- तुम प्रेम कैसे करोगे?
- निःसंदेह अजेय हो तुम
- निःसंदेह पवित्र हो, तुम मेरे मित्र हो
- पढ़ो लिखो आगे बढ़ो
- पर साथ तुम्हारा रहा प्रिये
- पिता कभी मरते नहीं!
- प्रणाम! हे शक्ति स्वरूपिणी! सृष्टि स्वयं में लिए खड़ी हो
- प्रिये तुम पूरी कशिश हो
- प्रेम
- बिछड़ना अब मुमकिन नहीं
- भाईसाहब ‘भाईसाहब’ तुम कहते रहो मैं सुनता रहूँ
- भारत कण कण में जाग उठा
- मशाल हूँ मैं, मेरा धर्म है रोशनी करना
- मित्रता में कपट कर
- मिथ्याचारी काँप जाएँ, ऐसी गर्जना करो
- मुझे आत्मा शरीर समझाने लगा
- मृत्यु गीत गुनगुनाओ
- मेरा जीवन है तुमसे मिलना
- मेरा सिद्धांत जीवन है
- मेरे पूज्य ‘बाबू’ आँखों में नमी सी
- मेरे प्रेम का तिरस्कार, मुझे सहर्ष है स्वीकार
- मैं तुम्हारा हृदय, तुम मेरे स्पंदन कहलाओगे
- मैं बुझूँगा, ये तमस छँट जाए बस
- मैंने सर्वस्व की तिलांजलि दी
- ये तुम्हारा बल नहीं, मेरा समर्पण है प्रिये!
- ये नंदिनी किसकी है, लोग आपस में पूछेंगे
- ये रंग ज़िंदगी के हैं
- ये सोचना भी मत मेरे क़दम थमेंगे
- विजयी भवः, विजयी भवः, आगे बढ़ो अजेय हो!
- वो मैं ही हूँ
- शकुनि को जीवन से निकाल दीजिये
- शरीर पार्थिव हो गया
- सब कुछ ख़त्म हो गया
- समाजवाद मुखर हो, ऐसी गर्जना करो
- सागर तट पर
- सुनो! तुम भाग्य के छल से मत डरना
- सोनम सोनम पुकारना चाहता हूँ
- स्वयं को न छलो आराध्य
- हम कितने ग़लत थे
- हर घड़ी मृत्यु को जिया
- हर जंग बेवज़ह थी
- हर हर महादेव
- हिस्से में था अपमान मिला, विस्मृत करके देखो समक्ष
- हे अमोघ! हे ब्रह्मबाण! अरि के प्राणों को हरो हरो
- हे जननी!
- हे मनुष्य! विध्वंस के स्वामी रुक जाओ
नज़्म
कविता - क्षणिका
कविता-मुक्तक
कहानी
खण्डकाव्य
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं