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बेवफ़ा तेरे काँटे को चुभने न दिया


तसव्वुर ही ऐसा है मेरी फ़ितरत का, 
बेवफ़ा तेरे काँटे को चुभने न दिया; 
‘तुम कभी थे ही नहीं’ ये मान लिया, 
और दर्द-ए-दिल कभी उठने न दिया। 
 
वो मेरा बेआबरू हो जाना, 
चले आना तुम्हारी महफ़िल से; 
महज़ वाक़या है मामूली सा, 
निकल जाना तुम्हारे दिल से। 
 
ये ख़ुशगवार सा मामला है, 
तुम्हें भुलाकर ख़ुद को पाना; 
और बेशक कामयाबी भी, 
ख़ुद को ‘अहमियत’ समझाना। 
 
किताबों में चर्चा हो तो भी, 
तुम वो किरदार नहीं, जिसे पढ़ा जाए; 
न ही सवाल हो मेरे इम्तिहान के, 
जिसका वाजिब जवाब गढ़ा जाए। 
 
तुम कभी नहीं थे, कहीं नहीं हो, 
बस मन बहलाने के लिए; 
एक नज़्म का ख़्याल हो तुम, 
एक लय बनाने के लिए। 
 
तसव्वुर ही ऐसा है मेरी फ़ितरत का, 
बेवफ़ा तेरे काँटे को चुभने न दिया; 
‘तुम कभी थे ही नहीं’ ये मान लिया, 
और दर्द-ए-दिल कभी उठने न दिया। 

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