शरीर पार्थिव हो गया
काव्य साहित्य | कविता संजय कवि ’श्री श्री’15 Mar 2020 (अंक: 152, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
शरीर पार्थिव हो गया।
शरीर पार्थिव हो गया।
अनगिनत अभियोग
आरोप
और न जाने क्या क्या
सब उस शरीर पर ही तो थे,
तन का ही अंकन
हुआ था
नाम से,
आत्मा को छुआ किसने?
बताते रहे संहिता
दंड के प्रकार
विधि के रचनाकार,
तर्क हुआ कहाँ इस विषय पर
कि कैसे
पवित्र आत्मा से
अनियंत्रित वो शरीर हुआ?
अंततः अधीर हुआ;
कदाचित दोषी था वो,
और तुम कितने निर्दोष!
कैसे
तैयार किये थे
तुमने
अभियोग के
प्रलेख,
श्रुतलेख
जो गढ़े गये,
कुछ आरोप जो मढ़े गये;
कदाचार
अत्याचार
से सहमा, वो मौन रहा
कहने को फिर कौन रहा?
भव्य!
निःसंदेह है तुम्हारी योग्यता,
सुविधा देख
साक्ष्यों को मरोड़ना
कड़ी से कड़ी जोड़ना
रिक्तता को भरना
न भरे तो, गढ़ना
तुम्हारे स्वांग
आडम्बर
प्रतिष्ठा
कर्तव्यनिष्ठा के सामने
वो कहाँ टिकता,
कितना बिकता
विधि के बाजार में;
धूर्त था,
जाते जाते
कपट कर
तीव्र लपट कर
ज्वाला, तुम्हारे अंतः की
अनंत में खो गया;
शरीर पार्थिव हो गया।
नश्वर तुम भी हो,
कदाचित
निर्बल
दुर्बल
होकर ही मिटोगे,
तुम्हारा
मान
अभिमान
अहं जब शीत होगा,
अग्र वर्तमान के अतीत होगा;
स्मारित होगी
अतिरेकता
कर्तव्य की
अनुक्षेत्र की,
किन्तु भविष्य की शून्यता में
असहाय
प्रायश्चित बोध लिए,
प्रारब्ध गोद लिए;
अंतः की ज्वाला में जलते,
म्लान हो हाथ मलते;
अनसुलझे विषय
अपराध बोध
लिए
तुम भी चले जाओगे,
बेखटक इतिवृत्त दोहराओगे;
और
पुनः अनुगूँजते वही भाव,
हाँ वही भाव;
शरीर पार्थिव हो गया।
शरीर पार्थिव हो गया।
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