कलुषित हो, मानुष किस ओर चला है. . .?
काव्य साहित्य | कविता संजय कवि ’श्री श्री’1 Feb 2020 (अंक: 149, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
वचनहीन हो
क्रंदन करता,
ईर्ष्या द्वेष
क्रोध में जलता;
हृदय में
तृष्णा लेकर,
लोभी मन
जीवन कर;
कलुषित हो,
मानुष किस ओर चला है. . .?
मिथ्या प्रेम
मूर्ख बनाता,
एकाकी हो
पछताता;
कुत्सित भाव
कलंकित हो,
संबंधों से
वंचित हो;
कलुषित हो,
मानुष किस ओर चला है. . .?
निज संबंधी
को मारा,
छल प्रपंच कर
भी हारा;
नैतिकता से
हीन हुआ,
कुंठित हो
निर्बल दीन हुआ;
कलुषित हो,
मानुष किस ओर चला है. . .?
कपट भाव से
प्रीति प्रवंचन,
हृदयहीन
करता आलिंगन;
काम-पिपासा
मात्र समर्पण,
आकुल करके
अपना जीवन;
कलुषित हो,
मानुष किस ओर चला है. . .?
वेष शिष्ट का
स्वांग विनीता,
माया युक्ति
मन जीता;
उघड़ अंत
अपमानित होता,
दोष विधाता
को दे रोता;
कलुषित हो,
मानुष किस ओर चला है. . .?
कैसे विडंबना
ये सहता?
शपथी बन
मिथ्या कहता;
है जगत छली
ये युग कैसा?
बन कालनेमि
मारीच जैसा;
कलुषित हो,
मानुष किस ओर चला है. . .?
स्नेही संग
घात किया,
निंदनीय हर
बात किया;
संत रूप धर
ढोंगी ये,
आत्ममोह का
रोगी ये;
कलुषित हो,
मानुष किस ओर चला है. . .?
आतिथ्य
अभिनन्दन भुला,
श्रेष्ठ जनों का
वंदन भुला;
लोभ काम के
वशीभूत,
मद के अधीन हो
अभिभूत;
कलुषित हो,
मानुष किस ओर चला है. . .?
उन्मादित हो
अज्ञानी,
विध्वंस किया
बन विज्ञानी;
मानवता को
झोंक दवानल,
अट्टहास करता
ये पागल;
कलुषित हो,
मानुष किस ओर चला है. . .?
मायावी
सिंहासन बैठा,
अहं क्रोध के
आसन बैठा;
शील-घात कर
श्रेष्ठ बना,
अमर्यादित
ज्येष्ठ बना;
कलुषित हो,
मानुष किस ओर चला है. . .?
जननी का
अपमान किया,
पिता को न सम्मान दिया;
भ्राता को भी
इसने छला है,
जग का अब तो
नहीं भला है;
कलुषित हो,
मानुष जिस ओर चला है. . .?
कलुषित हो,
मानुष किस ओर चला है. . .?
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