हर घड़ी मृत्यु को जिया
काव्य साहित्य | कविता संजय कवि ’श्री श्री’15 Mar 2021 (अंक: 177, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
चाहे घने अवसाद हो,
स्वप्न गढ़ते ही रहेंगे;
आँधियाँ बरसात हो,
दिए जलते ही रहेंगे।
अजर अमर है चेतना,
ढूँढ़ा है अर्थ, अनर्थ में;
रोकोगे कैसे तुम मुझे,
हुआ हूँ सिद्ध, 'व्यर्थ' में।
निःशब्दता का शब्द हूँ,
मैं अनल हूँ, शीत सा;
है ज्ञान सारे पंथ का,
भविष्य हूँ अतीत सा।
अव्यक्तता में व्यक्त हूँ ,
मैं आसुरी देवत्व हूँ;
मिटाओगे कैसे मुझे,
मैं शून्य सा सर्वस्व हूँ।
भले पीयूष नहीं मिला,
निरामया विष ही पिया;
मारोगे कैसे तुम मुझे,
हर घड़ी मृत्यु को जिया।
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