भावों के पाखी
काव्य साहित्य | कविता शशि पाधा31 Jan 2009
कोरा -कोरा मन का कागद
सूख गये नयनों के रंग
ओ भावों के उड़ते पाखी
कब तक लौट के आओगे
सतरंगी पाँखों से आखर
कब आ लिख कर जाओगे?
जी भर सावन बरस गया था
भीग न पाया अन्तर्मन
मौन पड़ी अन्त:स की वीणा
नयना भूल गये दर्पण
भीगे सुर सा राग संवेदन
किन तारों पे गाओगे
कब तक लौट के आओगे
मानस के सागर में उठती
मृदु सुधियों की अनगिन लहरें
न जाने फिर अब तक कैसे
लगे रहे शब्दों पर पहरे
स्वर लहरी के बन्द दरवाज़े
क्या तुम खोल न पाओगे
कब तक लौट के आओगे?
आ जाओ तो स्वप्न लोक में
दोनों ही भर लें उड़ान
राग -रागिनी झँकृत होगी
रंगों से होगी पहचान
व्याकुल मन का प्रेम निवेदन
कब तक तुम ठुकराओगे
अब तो लौट के आओगे।
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