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भारतीय सिनेमा को तेलुगु फिल्मों का प्रदेय

भारतीय सिनेमा अपने अस्तित्त्व के सौ साल पूरा कर रहा है। इस संदर्भ में भारतीय सिनेमा का श्रेय, प्रेय और देय का समुचित आकलन किया जाना स्वाभाविक है। सिनेमा और समाज का संबंध उतना ही प्रगाढ़ और अन्योन्याश्रित है जितना कि साहित्य और समाज का। साहित्य सृजन समाज हेतु होता है और साहित्य को समाज का दर्पण स्वीकार कर लिया गया है। उसी प्रकार सिनेमा का प्रयोजन भी समाज के लिए होता है। साहित्य के समान सिनेमा भी समाज दर्पण है। किसी भी समाज और देश काल की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ और परिस्थितियाँ सिनेमा में उसी रूप में अभिव्यक्त होती हैं जैसे साहित्य में होती हैं। सिनेमा साहित्य का ही परिवर्तित और परिवर्धित तकनीकी स्वरूप है। सिनेमा तकनीकी माध्यम से प्रदर्शित नाटक का ही विस्तरित रूप है। नाटक और सिनेमा का गहरा संबंध है। सिनेमा का विकास नाटक विधा से प्रेरित और संपोषित हुआ है। नाटकों का मंचन आज भी रंगमंच पर सजीव पात्रों के द्वारा किसी साहित्यिक कृति पर आधारित कथानक को प्रस्तुत करने के लिए किया जाता है जब कि इसी नाटकीयता को फिल्म के रूप में निर्मित कर सिनेमा के पर्दे पर प्रदर्शित किया जाता है। नाटक के तत्व सिनेमा के तत्वों से बहुत मेल खाते हैं। कथानक, पात्र (चरित्र), संवाद, देश-काल-वातावरण, भाषा-शैली और उद्देश्य, ये सभी सिनेमा और नाटक में समान होते हैं। दोनों ही विधाएँ कलाकारों के अभिनय और संवादों से परिचालित होती हैं। सिनेमा एक अति विकसित वैज्ञानिक और तकनीकी प्रणाली है जो कि आधुनिक युग का करिश्माई आविष्कार है। सिनेमा का उद्देश्य मनोरंजन के साथ सामाजिक परिवर्तन और सांस्कृतिक मूल्य चेतना को समाज में विकसित करना होता है। सिनेमा के प्रारम्भिक निर्माताओं ने इस माध्यम की सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिका को अत्यधिक महत्त्व दिया।

भारत में सिनेमा का आविर्भाव दादा साहब फाल्के द्वारा निर्मित मूक फिल्म "राजा हरिश्चंद्र" के प्रदर्शन से सन् 1913 में हुआ। सन् 1931 में आर्देश ईरानी ने भारतीय मूक सिनेमा के युग को बदलकर सवाक् सिनेमा के युग का प्रारम्भ, हिंदी में "आलमारा" नामक फिल्म का निर्माण करके किया। इस तरह भारतीय सिनेमा का इतिहास हिंदी फिल्मों से प्रारम्भ होता है। हिंदी के साथ साथ अन्य प्रादेशिक भाषाओं में फिल्म निर्माण की प्रक्रिया धीरे-धीरे भारत के विभिन्न हिस्सों में शुरू हुई। चूंकि अब सिनेमा श्रव्य और दृश्य माध्यम बन चुका था इसलिए इसमें अन्य तकनीकी विकास बहुत तेज़ी से होने लगा और विदेशों में विकसित सिनेमा की तकनीक को भारतीय फिल्म निर्माताओं ने भी अपनाया जिससे भारत में फिल्म निर्माण एक उद्योग के रूप में स्थापित हुआ। भारतीय फिल्म उद्योग के सबसे बड़े केंद्र मुंबई, मद्रास और कलकत्ता में स्थापित हुए। आज भारत में हिंदी के अतिरिक्त मराठी, पंजाबी, गुजराती, असमिया, भोजपुरी, उड़िया, बंगाली, तेलुगु, कन्नड़, तमिल और मलयालम भाषाओं में फिल्में निर्मित होती हैं और इसका बाज़ार केवल भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी सुस्थिर हो गया है। भारतीय फिल्में अमेरिका और यूरोप के देशों के अप्रवासी भारतीयों के बीच बहुत लोकप्रिय हैं। हिंदी के बाद भारत में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा तेलुगु ही है, इसलिए तेलुगु फिल्म उद्योग भी हिंदी फिल्म उद्योग जैसा ही अतिविशाल और अति विस्तृत है। आज़ादी के बाद प्रारम्भ में तेलुगु सिनेमा उद्योग मद्रास में तमिल सिनेमा उद्योग के साथ ही जुड़ा हुआ था लेकिन 1970 के बाद समूचा तेलुगु फिल्म उद्योग आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में स्थानांतरित हो गया। हैदराबाद में एल वी प्रसाद (प्रसाद लैब्स), रामोजी राव (रामोजी फिल्म सिटी) और अक्कीनेनी नागेश्वर राव (अन्नपूर्णा स्टुडियो), एन टी रामाराव (रामाकृष्णा स्टुडियो) आदि सिनेमा के दिग्गजों ने विश्व स्तर के सिनेमा स्टूडियो का निर्माण किया। इसके अलावा विशाखापटनम में रामा नायडू ने भी एक अति विशाल सिनेमा स्टुडियो का निर्माण कर तेलुगु सिनेमा उद्योग का विस्तार किया। भारतीय सिनेमा में संख्या की दृष्टि से वर्ष में सर्वाधिक बनने वाली फिल्में तेलुगु भाषा की हैं। हैदराबाद में फिल्म निर्माण की सुविधाएँ अंतराष्ट्रीय (हॉलीवुड) स्तर की उपलब्ध हैं जहाँ न केवल तेलुगु बल्कि हिंदी की भी अधिकांश फिल्में निर्मित होती हैं। हॉलीवुड के निर्माता भी हैदराबाद में उपलब्ध फिल्म निर्माण की अधुनातन तकनीक और अन्य सुविधाओं का उपयोग कर रहे हैं।

तेलुगु भाषा के प्रथम फ़िल्मकार के रूप में "रघुपति वेंकय्या नायूडू" का नाम सर्वोपरि है जिन्होंने 1909 से तेलुगु में लघु-फिल्मों का निर्माण शुरू कर दिया था। 1921 में उन्होंने "भीष्म प्रतिज्ञा" नामक एक मूक फिल्म बनाई जो कि तेलुगु प्रदेश की प्रथम फिल्म मानी जाती है। इसलिए "रघुपति वेंकय्या नायुडू" को तेलुगु फिल्मों का जनक माना जाता है। 1912 से 1930 के काल को तेलुगु में मूक फिल्मों का युग कहा जाता है। ये मूक फिल्में अधिकतर पौराणिक और धार्मिक कथानकों पर आधारित हुआ करती थीं जैसे नंदनार, गजेन्द्र मोक्षम और मत्स्यावतार आदि। तेलुगु में एच एम रेड्डी द्वारा निर्मित "भक्त प्रह्लाद" प्रथम सवाक् फिल्म के रूप में 15 सितंबर 1031 को प्रदर्शित हुई । इसे तेलुगु की प्रथम टॉकी फिल्म कहा जाता है, इसीलिए 15 सितंबर को "तेलुगु सिनेमा दिवस" के रूप में मान्यता प्राप्त है।

33 में कलकत्ता में ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी ने "सती सावित्री" नामक एक तेलुगु फिल्म निर्मित कर दक्षिण के सिनेमा जगत को चौंका दिया। तेलुगु सिनेमा मूलत: तेलुगु रंगमंच और नाटकों से प्रेरित और प्रभावित रही है। तेलुगु सिनेमा का उद्भव तेलुगु रंगमंच से ही माना जाता है। आरंभिक दौर के सभी सिनेमा कलाकार तेलुगु रंगमंच की दुनिया से ही होकर तेलुगु फिल्मों में अभिनय, निर्देशन, गायन, संगीत, नृत्य आदि क्षेत्रों में प्रवेश कर अपनी विशेष पहचान बनाई है। आज़ादी से पहले तेलुगु रंगमंच और नाटक का क्षेत्र मुख्यत: वियजयवाड़ा, तेनाली और राजमंड्री (राजमहेंद्रवरम) के इर्द गिर्द ही केन्द्रित था। इसीलिए तेलुगु सिनेमा के लिए आगे चलकर फिल्म निर्माण, निर्देशन, संगीत, गायन और अभिनय के क्षेत्र में इसी प्रदेश से अधिकाधिक कलाकार उपलब्ध हुए। उस दौर का तेलुगु सिनेमा मुख्यत: सामाजिक समस्याओं, ज़मींदारी शोषण, स्त्री समस्याओं, अस्पृश्यता निवारण आदि विषयों पर केन्द्रित था। इन स्थितियों के प्रति समाज में आधुनिक चेतना को जागृत करने के उद्देश्य से तत्कालीन फ़िल्मकारों ने यथा संभव प्रयास किया। इनमें प्रमुख थे "सी पुल्लेय्या" जिन्हें तेलुगु थियेटर आंदोलन का जनक माना जाता है, निडमर्ती सूरय्या, के नागेश्वर राव (प्रेम- विजयम), जी रामब्रहमम (मालपिल्ला-1938, रैतु - रायुडु), वाई वी राव (विश्व मोहिनी -1940) आदि। 1951 में निर्मित "मल्लीश्वरी" पहली तेलुगु फिल्म थी जिसे एशिया पेसिफिक अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव में प्रदर्शित किया गया।

यह वह युग था जब धीरे-धीरे नाटकों का स्थान सिनेमा लेने लगी थी। लोग इस नए कौतूहलपूर्ण माध्यम की ओर अनायास आकर्षित होने लगे थे। थियेटर और नाटक मंडलियाँ अपना भविष्य सिनेमा में देखने लगीं। नाटक खेलने वाले कलाकार फिल्मों ओर प्रस्थान करने लगे। उन दिनों सिनेमा में काम करने के लिए नाटकों के अनुभव की अनिवार्यता पर बल दिया जाने लगा। इसीलिए पहले दौर के फिल्मी कलाकार सभी रंगमंच के अनुभवी कलाकार थे, इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से सिनेमा में उनकी अभिनय कला पर दिखाई देता है।

साठ (1960) का दशक तेलुगु सिनेमा का सुवर्णिम युग माना जाता है। यही दशक हिंदी और हॉलीवुड सिनेमा के लिए भी सुवर्णिम युग रहा है। इस दशक में निर्मित फिल्में सामाजिक सरोकार से परिपूर्ण, सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों के प्रति जागरूक, राष्ट्रीय चेतनायुक्त, मनोरंजन से भरपूर संदेशात्मक, सार्थक और उद्देश्यमूलक हुआ करती थीं। हिंदी फिल्में जो कि भारतीय सिनेमा की मुख्य धारा की फिल्में कहलाती हैं और जो भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधित्व करती हैं, इनमें भी ये ही गुण परिलक्षित होते हैं। भारतीय सिनेमा के प्रादेशिक संस्करणों में स्थानीय संस्कृति, सामाजिक समस्याएँ, लोक जीवन और स्थानीय आचार-विचार और व्यवहार का फिल्मांकन उत्कृष्ट संगीत और भावमय गीतों की समृद्ध परंपरा के साथ हुआ है। प्रादेशिक (क्षेत्रीय) भाषाई फिल्में अपनी स्थानीय सांस्कृतिक परंपराओं को अनुभूतिजन्य अभिनयकला के द्वारा समाजोपयोगी कथा वस्तु के आधार पर प्रस्तुत करने में सफल हुई हैं। हिंदी फिल्में "पैन-इंडियन" जीवन शैली और भारत की समन्वित और समावेशी संस्कृति को प्रस्तुत करने में सफल हुई हैं। हिंदी फिल्में शास्त्रीय संगीत के आधार पर बनी सुमधुर धुनों के लिए मशहूर हुईं।

प्रथम दौर की तेलुगु फिल्में भी हिंदी फिल्मों की ही भांति गंभीर, कथानक प्रधान और संदेशात्मक रहीं हैं। फिल्मों का मूल उद्देश्य मनोरंजन के साथ साथ सामाजिक उपादेयता भी प्रमुख रूप से दिखाई देती है। फिल्मों का लक्ष्य समाज में व्याप्त अंधविश्वास, रूढ़ियों और कुरीतियों के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करना भी रहा है। तेलुगू फिल्में साठ के दशक में समकालीन युगबोध को प्रस्तुत करने में सफल हुई हैं।

उस युग में फ़िल्मकार विशेष रूप से स्त्री की समस्याओं के प्रति सजग दिखाई देते हैं। तेलुगु फिल्मों में स्त्रियों की समस्याएँ प्रमुख रूप से उजागर हुई हैं। "मालपिल्ला" और "कन्या- शुल्कम" (गुरजाड़ा अप्पाराव) ऐसी ही फिल्में हैं जिनमें अस्पृश्यता की समस्या, दहेज, बाल विवाह और वेश्या समस्या जैसी घोर असामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के लिए फ़िल्मकारों ने समाज को तैयार किया। प्रथम दौर की फिल्मों के कथानक अधिकतर महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृतियों पर आधारित हुआ करते थे जिससे वे साहित्यिक मूल्य कृतियों से अवतरित होकर सहज ही फिल्मों में परिलक्षित होते थे। इसका प्रभाव दर्शकों पर गहरे पड़ता था।

तेलुगु सिनेमा के विकास का आकलन करने हेतु फिल्मों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

तेलुगु में फिल्में पौराणिक, ऐतिहासिक और सामाजिक, तीन वर्गों में निर्मित हुईं।

तेलुगु सिनेमा का सबसे लोकप्रिय संगीतमय पक्ष उसके पौराणिक फिल्मों में उद्घाटित हुआ है। तेलुगू की पौराणिक और भक्ति भाव से ओत-प्रोत फिल्में इस सर्वमान्य उक्ति "भक्ति द्राविड़ ऊपजै" को चरितार्थ करती हैं। दक्षिण भारतीय भाषाओं में पौराणिक और धार्मिक कथा वस्तुओं सर्वाधिक फिल्में पचास और साठ के दशकों में निर्मित हुईं। तेलुगु में यह परंपरा बहुत ही प्रबल रही है। रामायण और महाभारत के विविध प्रसंगों पर पद्यमय संगीत की प्रमुखता के साथ भव्य एवं विशाल राजसी वैभव को प्रदर्शित करने वाले महंगे "सेट" पर लाखों की लागत से फिल्में बनाई जाती थीं। ये फिल्में अधिकतर मद्रास में स्थित "वाहिनी, जेमिनी, ए वी एम" जैसे बड़े स्टुडियो में निर्मित होते थे। तेलुगु के पौराणिक फिल्मों की सबसे बड़ी विशेषता और आकर्षण इन फिल्मों में प्रयुक्त पद्यमय संवाद हैं। इस पद्यमय संवादों की नाटकीय परंपरा केवल तेलुगु में ही पाई जाती है, अन्य भाषाओं में नहीं। इन पद्यात्मक संवादों की रचना कथानुकूल और प्रसंगानुकूल हुआ करती थी जिसे उस समय के दिग्गज साहित्यिकार किया करते थे। इसीलिए इन पद्यात्मक संवादों का आस्वादन लोग फिल्म के बाहर भी करते हैं। तेलुगू की पौराणिक फिल्में संगीत प्रधान होती हैं; इनमें शास्त्रीय नृत्य शैली के नृत्यों का संयोजन इनको अतिरिक्त आकर्षक बना देता है।

तेलुगु की महान पौराणिक फिल्मों में माया बजार, लव-कुश, सम्पूर्ण रामायणम, सीता कल्याणम, सीता राम कल्याणम, भू-कैलाश, श्री रामांजनेय युद्धम, श्री कृष्णार्जुन युद्धम, पांडव वनवासम, श्री कृष्ण पांडवीयम, दान वीर शूर कर्ण, नर्तन शाला, भीष्मा, श्री कृष्ण तुलाभारम, श्री वेंकटेश्वर महत्यम, दक्षयज्ञम, भक्त प्रह्लाद, यशोदा-कृष्ण, बाल-भारतम, कुरुक्षेत्रम आदि प्रमुख हैं।

"माया बजार (1957)" भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक अनूठे, रोचक संगीतमय पौराणिक फिल्म के रूप में प्रसिद्धि पा चुका है। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में "माया बजार" को सर्वश्रेष्ठ फिल्म माना गया है। इस फिल्म की कथा और प्रस्तुति बहुत ही रोचक है। पांडवों के वनवास के पृष्ठभूमि में कृष्ण की नगरी द्वारका में बलराम की पुत्री शशिरेखा और अभिमन्यु के विवाह प्रसंग पर आधारित है। इस फिल्म में राक्षस राज घटोत्कच की भूमिका में उस दौर के महान अभिनेता एस वी रंगाराव, कृष्ण की भूमिका में एन टी रामाराव और अभिमन्यु की भूमिका में अक्कीनेनी नागेश्वर राव तथा शशिरेखा के रूप में सावित्री का अभिनय चिरस्मरणीय है। इस फिल्म में राक्षसी तिलस्म और जादूगरी का बड़ा ही सुंदर और रोचक समन्वय दिखाई देता है। इस फिल्म का संगीत, इसके संवाद और इसकी त्रुटिहीन सिनेमाटोग्राफी अपने स्पेशल एफ़ेक्ट्स के लिए मशहूर है। इसके सिनेमाटोग्राफर "मार्कस बार्ट्ले" ने अपने कौशल से, अविकसित तकनीकी युग में सीमित सुविधाओं से ही फिल्म के परदे पर चमत्कार पैदा कर दिया था। इस कालातीत फिल्म के निर्माता नागीरेड्डी-चक्रपाणि और निर्देशक के वी रेड्डी थे। इस युगांतकारी फिल्म को 2004 में रंगीन स्वरूप प्रदान कर, इसकी ध्वनि व्यवस्था को डिजिटल तकनीक के द्वारा संशोधित कर इसे आकर्षक रूप में आज की पीढ़ी के लिए प्रदर्शित किया गया, जिसे उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई। "माया बजार" समूचे तेलुगु सिनेमा परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है।

"लव-कुश" (1963) रामायण के उत्तर काण्ड की कथा पर आधारित एक कालजयी फिल्म है। जिसमे राम और सीता की भूमिकाएँ क्रमश: एन टी रामाराव और अंजलि देवी ने अद्भुत कलात्मक कुशलता के साथ निभाई हैं। राम द्वारा सीता परित्याग के प्रसंग को इस फिल्म में गीतों और पद्य -बद्ध संवादों के माध्यम से फिल्माया गया है। एन टी आर और अंजलि देवी का अभिनय, सहजता और कलात्मकता के लिए युगों युगों तक स्मरण किया जाएगा। यह " गेवा कलर" में निर्मित प्रथम तेलुगु फिल्म है। इस फिल्म में अभिनेता एन टी रामाराव ने राम की तथा अंजलि देवी ने सीता की कल्पना को दर्शकों के लिए साकार कर दिया। वाल्मीकि आश्रम में सीता का राम के लिए परिताप और वहीं पर लव और कुश का जन्म, पालन पोषण और अंत में उन्हें राम को सौंपकर पृथ्वी में भू-माता की गोद में सीता के विलीन हो जाने की कथा को अत्यंत प्रभावशाली पटकथा के माध्यम से इस फिल्म में दर्शाया गया है। लव और कुश कुमार-द्वय के द्वारा वाल्मीकि रचित रामायण की कथा का गायन दर्शकों को भावुकत बना देता है। यह फिल्म शृंगार (विरह), करुण, शांत और वात्सल्य रसप्रधान है। इसके गीत और पद्य आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। उपरोक्त सभी पौराणिक प्रसंगों पर आधारित फिल्में तेलुगु सिनेमा की अमूल्य धरोहर हैं। इनमें से अधिकांश फिल्मों में एन टी रामाराव ने कृष्ण, राम, रावण, अर्जुन, भीम, दुर्योधन, भीष्म, कर्ण आदि रामायण और महाभारत के पात्रों की भूमिकाएँ विलक्षण अभिनय क्षमता के साथ की हैं। इन पौराणिक फिल्मों में वास्तविक प्रभाव पैदा करने के लिए त्रेता, और द्वापर युगीन परिवेश को "कॉस्टयूम" और "भव्य सेट" का निर्माण कर दर्शकों में कौतूहल पैदा किया जाता था। ऐसी सघन और सशक्त संगीतमय, सामासिक भाषा प्रधान शैली में पद्यात्मक संवादों से परिपूर्ण पौराणिक फिल्मों का हिंदी सिनेमा में पूर्णत: अभाव है।

तेलुगु में ऐतिहासिक फिल्मों की सुदीर्घ और महत्त्वपूर्ण परंपरा रही है। इस दौर में भारतीय इतिहास के पन्नों में से मध्यकालीन इतिहास और ऐतिहासिक घटनाओं को फिल्मी पटकथा में रूपांतरित कर बहुत ही महत्त्वपूर्ण फिल्मों का निर्माण हुआ है। विशेषकर दक्षिण भारत के इतिहास पर आधारित घटनाओं में कल्पना तत्त्व को सम्मिलित कर बहुत ही प्रभावी और राष्ट्रीय चेतनाप्रद फिल्में तेलुगु में निर्मित हुई हैं। वीरपाण्ड्य कट्टा बोमन्ना, कृष्णदेव राय, राजराज नरेंद्र, चोल और होयसाल राजवंशों की कथाएँ, सातवाहन राजाओं के शासन काल की घटना पर आधारित, बोब्बिली और पल्नाड की देशभक्ति की गाथाएँ, टीपू सुल्तान का अंग्रेजों के साथ संघर्ष और मुगल इतिहास के प्रसंग तेलुगु सिनेमा के प्रमुख ऐतिहासिक कथानक रहे हैं। इन ऐतिहासिक फिल्मों की परिकल्पना इतिहास के विवेच्य कालखंड की यथार्थपूर्ण प्रामाणिक प्रस्तुति के लिए की गईं। इन इतिहासप्रधान तेलुगु फिल्मों में मधुर संगीत और सुंदर गीतों की भरमार हुआ करती है जो कि दर्शकों के लिए कर्णप्रिय होने के साथ पात्रों की संवेदनाओं को उभरने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

तेलुगु में मुगलकालीन इतिहास से ली गई अकबर के शासन काल की अमर प्रेम कहानी "अनारकली" (1955) गीतों और पात्रों के आकर्षक अभिनय कौशल के कारण लोकप्रिय हुई। इसमें अक्कीनेनी नागेश्वर राव और अंजलि देवी ने नायक-नायिका की भूमिकाएँ अदा कीं थीं। तेलुगु फिल्मों का वह दौर ऐतिहासिक और सामाजिक धरातल पर दुखांत प्रेम कहानियों के चित्रण का था जिसे दर्शक बहुत पसंद करते थे। इसीलिए लैला-मजनूँ (1949- नागेश्वर राव- भानुमती) भी बहुत लोकप्रिय हुई। इसी क्रम में "मल्लीश्वरी" (1951) (एन टी रामाराव - भानुमती) काल्पनिक ऐतिहासिक विरहजनित प्रेम कहानी है जो कि उत्कृष्ट कलात्मक फिल्मांकन, लोकप्रिय गीत-संगीत और सशक्त अभिनय के लिए आज भी याद की जाती है। मल्लीश्वरी नामक एक अल्हड़ ग्रामीण युवती का रानिवासों के अंत:पुर में महारानी की इष्ट सखी बनने की कामना में खोई रहती है। संयोगवश एक आकस्मिक घटना के परिणामस्वरूप अनजाने में ही उसे यह सुअवसर प्राप्त होता है। उसे गाँव से राजा के अनुचर राजमहल लेकर चले जाते हैं और रानी की सेवा में लगा देते हैं। नियति के इस घटना चक्र में उसका शिल्पकार प्रेमी गाँव में पीछे छूट जाता है। मल्लीश्वरी राजमहल में अपने प्रेमी से मिलन के लिए तड़प उठती है। इधर प्रेमी भी प्रियतमा मल्लीश्वरी के विछोह में विक्षिप्त होकर उससे मिलने के लिए प्राणों की बाजी लगाकर राजमहल में शिल्पकार के रूप में प्रवेश करता है और सैनिकों द्वारा बंदी बनाया जाकर राजा के सामने पेश होता है। तब मल्लीश्वरी की विरहपूर्ण प्रेमकथा का पटाक्षेप होता है और दोनों प्रेमी युगल अपने गाँव लौट आते हैं। इस फिल्म ने अपने समय में लोकप्रियता के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए थे। आज भी "मल्लीश्वरी" तेलुगु की क्लासिक फिल्म के रूप में याद की जाती है।

"जयसिंह" (1955) वहीदा रहमान और अंजलि देवी तथा एन टी रामाराव अभिनीत त्रिकोणात्मक प्रेमकहानी पर आधारित एक ऐतिहासिक फिल्म है। यह फिल्म अपने गीत, संगीत तथा नृत्यों के लिए बहुत मशहूर हुई। तेलुगु की ऐतिहासिक फिल्में बहुत लोकप्रिय हुईं। साठ के दशक में बहुत बड़ी तादाद में ऐतिहासिक कथानकों पर आधारित फिल्में तेलुगु में निर्मित हुईं। इन फिल्मों में अभिनय कौशल के साथ फिल्मांकन की भव्यता एक बहुत बड़ा आकर्षण हुआ करती थी। भारी सेट और कीमती पोशाकें, तलवार और भालों के रोमांचक द्वंद्व और युद्धों के दृश्य आश्चर्यजनक प्रभाव पैदा करते थे। राजमहलों में घुसकर राजकुमारियों से प्रेम का इजहार करने वाले दुस्साहसी योद्धाओं के युद्धकौशल और तलवारबाजी के दृश्य दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करते थे, साथ ही देशभक्ति और राष्ट्रीय चेतना को जगाने का काम भी करते थे। राजमकुटम, बंदिपोटु, गुलेबकावली कथा, गंडीकोटा रहस्यम आदि फिल्में तेलुगु की महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक फिल्में हैं जिन्हें आज भी लोग देखना पसंद करते हैं।

लोककथाओं पर आधारित फिल्में तेलुगु में बहुत लोकप्रिय हुईं। ये फिल्में जादूगरी, तिलस्म, ऐयारी और भूत-प्रेतों के विलक्षण चमत्कारों से भरी हुई रोचक फिल्में हुआ करती थीं जिसका प्राण तत्व उसका संगीत और उसके गीत हुआ करते थे। इन फिल्मों में रोबिनहुडनुमा अज्ञात साहसी वीर कथा-नायक के साहसपूर्ण कारनामे हुआ करते थे। ऐसे जाँबाज, अमीरों को लूटकर दीन-दुखियों की मदद करने वाले सूरमा होते थे। अंत में वह साहसी पात्र उस राज्य का बहिष्कृत युवराज के रूप में उद्घाटित होता था। इस तरह की अनेकों कहानियों पर बेशुमार फिल्में तेलुगु में लोकप्रिय हुईं। इनमें से अधिकतर फिल्मों में एन टी रामाराव, कांताराव, राजानाला, आदि बड़े सितारे तलवार-युद्ध और घुड़सवारी के रोमांचक करतब दिखाते हुए नजर आते थे। इन फिल्मों की नायिकाएँ भव्य राजसी वेषभूषा में अत्यंत आकर्षक और मनमोहक दिखाई देती थीं। इन फिल्मों के युगल गीत बहुत लोकप्रिय होते थे। ऐसी ऐतिहासिक फिल्मों की परंपरा अब समाप्त हो गयी है। इन फिल्मों के निर्माता निर्देशकों में "बी विट्ठलाचार्य" बहुत प्रसिद्ध हुए जिन्होंने ऐसी फिल्में बड़ी संख्या में बनाकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया।

ऐतिहासिक तिलस्मी कहानियों पर आधारित अनेक फिल्में साठ के दशक में तेलुगु सिनेमा की प्रमुख विधा के रूप में स्थापित हुई। 1951 में निर्मित ऐसी ही महत्त्वपूर्ण फिल्म "पाताल भैरवि" है जिसका निर्देशन के वी रेड्डी (माया बजार) ने किया था। यह फिल्म एक तांत्रिक के तिलस्म और काल्पनिक इतिहास कथा का सम्मिश्रण है जिसमें एन टी रामाराव और एस वी रंगाराव ने अपने विलक्षण अभिनय कौशल से तेलुगु सिनेमा जगत मे एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। इसी क्रम में "सुवर्ण सुंदरी" (1957- नागेश्वर राव- अंजलि देवी) भी उल्लेखनीय है जो कि स्वर्ग की एक अप्सरा और पृथ्वी के एक राजकुमार की रोचक प्रेम कहानी है।

पौराणिक और ऐतिहासिक फिल्मों के ही समानान्तर तेलुगु सिनेमा का महत्त्वपूर्ण स्वरूप सामाजिक फिल्मों में अभिव्यक्त हुआ है। भारतीय सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में सबसे अधिक सुधारवादी फिल्में तेलुगु में ही निर्मित हुईं हैं। तेलुगु फिल्मों में पारिवारिक संबंधों के प्रति विशेष प्रेम और सौमनस्य का भाव मुख्य रूप से प्रदर्शित किया गया है। स्त्री समस्याओं, सम्मिलित परिवार की विशिष्टताओं, दाम्पत्य जीवन का माधुर्य, प्रेम और विवाह की समस्याओं पर बहुत ही सुंदर संगीतमय फिल्में तेलुगु में बनीं हैं। ह्रासोन्मुख भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति नई पीढ़ी में चेतना जागृत करने के लिए निर्माता निर्देशक "के विश्वनाथ" ने तेलुगु फिल्मों को कलात्मक और सार्थक स्वरूप प्रदान किया। उनकी महत्त्वपूर्ण फिल्में हैं - सिरि सिरि मुव्वा, सिरिवेन्नेला, सप्तपदी, शंकराभरणम, स्वर्णकमलम, स्वर्ण किरणम, शुभ- प्रदम आदि। अन्नपूर्णा पिक्चर्स के बैनर तले अक्कीनेनी नागेश्वर राव ने अनेक साफ सुथरी संगीतमय सामाजिक सरोकारों से युक्त फिल्में तेलुग सिनेमा जगत को दी हैं। इल्लरिकम, इद्दरु मित्रुलु, भार्या - भर्तलु, मंचि मनसलु, वेलुगु नीडलु आदि। रामा नायुडु ने बतौर निर्माता तेलुगु में प्रेमकहानियों पर आधारित सुंदर और आकर्षक फिल्में दी हैं जैसे - रामूडु - भीमुडु, प्रेमनगर, सेक्रेटरी, दसारा बुल्लोडु आदि।

 रामाराव ने अपनी निर्माण संस्था - एन ए टी प्रोडकशंस - के अंतर्गत अनेक पौराणिक फिल्मों का निर्माण किया जिनका उल्लेख ऊपर हो चुका है।

तेलुगु सिनेमा के इतिहास में 1953 में निर्मित "देवदास" का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। शरतचंद्र के बंगाली उपन्यास "देवदास" के अनूदित पाठ के आधार पर इस फ़िल्म का निर्देशन उस युग के महान निर्देशक "वेदांतम राघवय्या" ने किया था। इसके गीत लिखे थे समुद्राला राघवाचार्य ने और संगीत दिया था सी आर सुब्बा-रामन ने। इस फिल्म के गीतों में नायक के हृदय की विरहजनित विषाद की अनुगूँज आज तक सिनेमा प्रमियों को सुनाई देती है। तेलुगु में निर्मित "देवदास" ने सिनेमा के इतिहास में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। देवदास की भूमिका में अक्कीनेनी नागेश्वर राव ने जो भग्न प्रेमी की छवि अंकित की, उसकी प्रशंसा दिलीप कुमार (हिंदी में निर्मित देवदास के नायक) ने भी की। पार्वती की भूमिका में सावित्री ने अपने अभिनय से हमेशा के लिए दर्शकों को मुग्ध कर दिया।
तेलुगु फिल्मों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि अधिकांश फिल्मों के कथानक साहित्यिक कृतियों से लिए जाते रहे हैं। बंगाली, मराठी, तेलुगु, तमिल और विदेशी साहित्य से भी मशहूर उपन्यासों और कहानियों पर तेलुगु में सर्वाधिक फिल्में बनी हैं। तेलुगु फिल्मों के लिए बंगाली के शरतचंद्र के देवदास, बड़ी दीदी (बाटसारि), नौका डूबी (चरणदासि), शेक्सपियर के रोमियो जूलियट, ओथेल्लो आदि पर आधारित फिल्में लोकप्रिय और चर्चित रहीं। तेलुगु साहित्य की अधिकांश कृतियों पर फिल्में बन चुकी हैं। तेलुगु फिल्मों ने हिंदी फिल्मों के लिए काफी मात्रा में कहानियों की आपूर्ति की है। अनेक तेलुगु की सफल फिल्मों का तमिल, हिंदी और अन्य भाषाओं में पुननिर्माण हुआ और उनका भाषांतरण भी किया गया।

न महान साहित्यकारों का योगदान प्राप्त हुआ, उनमें प्रमुख हैं - आत्रेया, आरुद्रा, दाशरथी, सी नारायण रेड्डी, श्री श्री, देवुलपल्ली कृष्ण शास्त्री, विश्वनाथ सत्यनारायण, सीरिवेन्नेला सीताराम शास्त्री। तेलुगु फिल्मों के महान निर्माताओं में बी एन रेड्डी, नागिरेड्डी-चक्रपाणि, ए वी मय्यप्पन, दासरि नारायण राव आदि आते हैं।

1990 के दशक के बाद वैश्वीकरण की बाजारवादी जीवन शैली ने भारतीय सिनेमा को प्रभावित किया। इससे उत्पन्न जो नई उपभोक्तावादी संस्कृति समूचे भारतीय समाज में व्याप्त हुई, उसके परिणाम सिनेमा में भी देखे जा सकते हैं। अचानक उपभोक्तावाद की एक नई लहर मनोरंजन की दुनिया में पैदा हुई जिसने सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को ध्वस्त कर तार-तार कर दिया। सिनेमा का लक्ष्य और उद्देश्य महज अर्थोपार्जन ही रह गया। सिनेमा निर्माण की अत्याधुनिक तकनीक में मानवीय संवेदनाएँ गुम हो गई हैं।अब तो केवल असंवेदनशील हिंसात्मक प्रसंग ही फिल्मों के कथानक बन रहे हैं। फिल्में कथानक विहीन हो गई हैं। हिंसा और अश्लीलता गीत-संगीत और संवाद में बेहिचक प्रदर्शित हो रहे हैं। इस नए परिदृश्य में तेलुग सिनेमा का स्वरूप कथानक, गीत-संगीत, औरत प्रस्तुति के धरातल पर पूरी तरह बादल गया है। अब बहुत कम साफ सुथरी सामाजिक सरोकार की फिल्में दर्शकों के लिए उपलब्ध होती हैं। वर्तमान मल्टीप्लेक्स सिनेमा संकृति ने सिनेमा निर्माण की सैद्धांतिकी को विकृत कर दिया है। तेलुगु में बहुत कम सामाजिक प्रतिबद्धता से जुड़े फिल्म निर्माता और निर्देशक शेष रह गए हैं। दासरि नारायण राव, के विश्वनाथ, शेखर कम्मुला, रामोजी राव, राज मौली, राजेन्द्र प्रसाद, बापू, बालचंदर द्वारा निर्मित तेलुगु फिल्में आज भी भारतीय जीवन मूल्यों और सांस्कृतिक परंपराओं को याद दिलाती हैं। तेलुगु फिल्मों को अपने मधुर गायन से समृद्ध करने वाले गायकों में घंटासाला वेंकटेश्वर राव, एस पी बाल सुब्रह्मण्यम, पी बी श्रीनिवास, रामकृष्ण, माधोपेद्दि सत्यम, पिठापुरम, पी सुशीला, वाणी जयराम, जानकी, पी लीला, जमुना राणी, एल आर ईश्वरी, जिक्की, उषा, सुनीता आदि हैं। तेलुगु फिल्मों के मशहूर अभिनेता हैं - सी एस आर, अक्कीनेनी नागेश्वर राव, एन टी रामाराव, कृष्णा, सी नागय्या, जग्गया, हरनाथ, कांताराव, गुम्मड़ी, प्रभाकर रेड्डी, मुक्कामला, आर नागेश्वर राव, मिक्कीलिनेनी, राजनाला, राज बाबू, बालकृष्णा, एस वी रंगाराव, अल्लू रामलिंगय्या, जे वी सोमयाजूलु, जे वी रमणमूर्ति, नूतनप्रसाद, श्रीधर, राजेन्द्र प्रसाद, चिरंजीवि आदि। वर्तमान कलाकारों में अल्लू अर्जुन, मोहन बाबू, सिद्धार्थ, उदयकिरण, श्रीहरी, श्रीकांत, वेणुगोपाल, वेणुमाधव, अली, ब्रम्हानंदम, सुनील आदि हैं। अभिनेत्रियों में श्री रंजिनी, मालती, बाल सरस्वती, अंजलि देवी, भानुमती, सावित्री, जमुना, कृष्णकुमारी, राजसुलोचना, राजश्री, गीतांजली, चंद्रकला, वाणी श्री, विजया निर्मला, कांचना, जयाप्रदा, जयसुधा, श्रीदेवी, मंजुला आदि।

नई शताब्दी की उल्लेखनीय तेलुगु फिल्में हैं - गीतांजली, रोजा, बॉम्बे (मणिरत्नम), अन्वेषण, स्वाति- मुत्यम, सागर संगमम, स्वर्ण कमलम, सिरि सिरि मुव्वा, सीरिवेन्नेला, आपद-बांधवुडु, स्वर्ण किरणम, शंकराभरणम, सप्तपदी (के विश्वनाथ), आनंद, गोदावरी, लीडर (शेखर कम्मुला), मगधीरा(राजमौली) आदि।

भारतीय सिनेमा भूमंडलीकरण के दुष्प्रभाव का शिकार हो गया है। सार्थक और उद्देश्यपूर्ण फिल्में कभी - कभार ही दिखाई देती हैं। फ़िल्मकार समाज से कट गया है और वह एक अयथार्थ और असंभव सी फेंटसी को ही फिल्मों में परोसने लगा है। पहले फिल्में (हिंदी और तेलुगु) 25, 50, 75 और 100 हफ्ते चलती थीं तो क्रमश: सिलवर जुबली, गोल्डन जुबली, डायमंड जुबली और प्लेटिनम जुबली मनाई जाती थी। लेकिन आज फिल्में केवल चार दिन या ज़्यादा से ज़्याद एक सप्ताह मात्र चलती हैं लेकिन मल्टीप्लेक्स सिनेमा घरों में प्रदर्शित होने के कारण आमदनी कई सौ करोड़ों की होती है। आज सिनेमा सामाजिक सरोकारों से दूर हो रहा है। इसे पुन: सामाजिक दायित्वों से जोड़ने के प्रयास की आव

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