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हिंदी सिनेमा में स्त्री विमर्श का स्वरूप

आज भारतीय सिनेमा की आलोचना का महत्त्वपूर्ण विषय है, इसमें प्रस्तुत स्त्री की ह्रासोन्मुख छवि। स्त्री हमेशा से ही सिनेमा के केंद्र में रही है। यह स्थिति भारतीय और विदेशी सिनेमा में भी रही है। यहाँ तक कि हॉलीवुड सिनेमा भी स्त्री के इर्द-गिर्द ही कथाओं को बुनता रहा है। सिनेमा की हर विधा में अर्थात् ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक अथवा आंचलिक सिनेमा में स्त्री की समस्याएँ, स्त्री-पुरुष संबंध, स्त्री की यौनिकता, स्त्री की शृंगारिक अभिव्यक्तियाँ, स्त्री का देह सौष्ठव, स्त्री सौंदर्य की सम्मोहक प्रस्तुति आदि सिनेमा के आकर्षक तत्व रहे हैं। सिनेमा में स्त्री की प्रस्तुति पुरुष की दृष्टि से ही होती रही है - यह एक महत्त्वपूर्ण स्त्रीवादी संकल्पना है। हिन्दी सिनेमा को बॉलीवुड के नाम से जाना जाता है। यह भारत के हिंदी सिनेमा उद्योग को हॉलीवुड की तर्ज़ पर मिली विशेष पहचान है। हॉलीवुड की तरह अब "बॉलीवुड" शब्द हिंदी सिनेमा जगत के लिए रूढ़ हो गया है। सिनेमा में स्त्री का आगमन स्त्री सशक्तिकरण का जीता जागता उदाहरण है। अभिनय, फ़िल्म निर्माण और निर्देशन, तकनीकी सहयोग एवं इससे जुड़े सभी क्षेत्रों में बिना किसी वर्जना और रूढ़ियों के आज स्त्री सक्रिय है। यह स्थिति भारतीय सिनेमा के आरंभ में नहीं थी। उस युग में सिनेमा को औरतों के लिए वर्जित और अनैतिक क्षेत्र समझा जाता था। यहाँ तक कि सिनेमा देखना भी स्त्रियों के लिए निषिद्ध था। नाटकों में भी स्त्री पात्रों का अभिनय पुरुष कलाकार ही करते थे। यही स्थिति सिनेमा के उदयकाल में स्त्री पात्रों के लिए मौजूद थी। जब दादा फाल्के ने सन् 1913 में "राजा हरिश्चंद्र" फ़िल्म बनाई तब रानी तारामती की भूमिका के लिए कोई स्त्री कलाकार अभिनय के लिए तैयार नहीं हुई। यहाँ तक की तवायफ़ों के कोठों से भी उन्हें कोई स्त्री फ़िल्म में अभिनय के लिए नहीं प्राप्त हुई। उसी समय उन्हें एक मराठी नाटक कंपनी का पता चला जो कुछ समय के लिए अपना नाटक प्रदर्शन स्थगित कर रही थी। उन्हें वहाँ से मदद मिली और कमलाबाई गोखले से उनका परिचय हुआ। दादा साहब फाल्के ने अपनी अगली फ़िल्म "मोहनी भस्मासुर" में इन्हीं से अभिनय कराया। इस तरह कमलाबाई और उनकी माँ दुर्गा गोखले को भारतीय सिनेमा की प्रथम स्त्री कलाकार होने का ग़ौरव प्राप्त हुआ। सन् 1931 में आर्देश ईरानी द्वारा निर्मित हिंदी की प्रथम सवाक् फ़िल्म "आलम आरा" में मास्टर विठल के साथ नायिका की भूमिका जुबेदा ने की थी। प्रारम्भिक दौर की फ़िल्मों में विदेशी मूल (एंग्लो-इंडियन)" की स्त्रियाँ ही फ़िल्मों में काम को सहर्ष स्वीकार करती थीं। विदेशी मूल की "रूबी मेयर" हिंदी सिनेमा में "सुलोचना" के नाम से मशहूर हुई। 1925 में निर्मित "वीर बाला" में मोहन भवानी के निर्देशन में सुलोचना ने अभिनय किया। इसी क्रम में एस्तर अब्राहम, प्रमिला के नाम से पारसी घुमंतू थियेटर से होते हुए बंबई की फ़िल्मों में स्टंट कलाकार के रूप में स्थापित हुईं। बंबई की फ़िल्मों पर पारसी रंगमंच का प्रभाव है। इसी दौर में पेटेन्स कूपर ने इसी नाम से नर्तकी के रूप में अपनी पहचान बनाई। इन्होंने यूरेशियन थियेटर, पारसी थियेटर और मदन थियेटर ग्रुप से होते हुए बंबई की फ़िल्मों में क़दम रखा। मदन थियेटर की "पति-भक्ति" (1922) में एक समर्पित पत्नी "लीलावती" की भूमिका में दर्शकों को प्रभावित किया। इतालवी मूल की अभिनेत्री "सिगनोरा मिनेली" इस युग की प्रमुख अभिनेत्री थीं। रेनी स्मिथ जो सीता देवी के नाम से मशहूर हुईं, हिमांशु राय की "प्रेम संन्यास" से प्रसिद्ध हुईं। विदेशी मूल की अन्य अभिनेत्रियों में आरिस गास्पार (सबीता देवी), सुजान सोलोमन (फिरोज़ा बेगम), एफी हिपोलेट (इंदिरा देवी), बोनी बर्ड (ललिता देवी), बेरिल क्लेस्सेन (माधुरी) और विन्नी स्टीवर्ट (मनोरमा) आदि ने बंबई फ़िल्म उद्योग में पहले पहल स्त्री पात्रों की भूमिका को एक सामाजिक पहचान दिलाई। भारतीय मूल की प्रथम अभिनेत्री दुर्गा खोटे बनीं जिन्होंने 1932 में "अयोध्याएचा राजा" में अभिनय किया। दुर्गा खोटे एक कुलीन परिवार की सुशिक्षित लड़की थीं। इस अभिनेत्री ने यह सिद्ध कर दिया कि सिनेमा का क्षेत्र केवल निम्न वर्ग या तुच्छ पृष्ठभूमि की स्त्रियों के लिए ही नहीं बल्कि अभिनय कला के प्रदर्शन में आभिजात्य एवं सुसंपन्न परिवारों की स्त्रियाँ भी सम्मिलित हो सकती हैं।

इस परंपरा की सुदृढ़ नींव डालने वाली युगांतरकारी अभिनेत्री थीं "देविका रानी"। देविका रानी उस समय के मशहूर सर्जन जनरल एम एन चौधरी की सुपुत्री थीं जो न केवल अभिनय के क्षेत्र में बल्कि सिनेमाटोग्राफी और फ़िल्म निर्देशन व निर्माण के क्षेत्रों में भी कुशल थीं। 1930 के दशक से फ़िल्मों में भारतीय स्त्रियाँ धीरे-धीरे अपने अभिनय कौशल से सिनेमा के स्वरूप को बदलने लगीं। वी शांताराम ने 1932 में अपनी फ़िल्म "दुनिया न माने "में शांता आप्टे को परिचित कराया। "शोभना समर्थ" ने 1935 में फ़िल्मों में प्रवेश किया और 1942 में विजय भट्ट द्वारा निर्मित "भरत मिलाप" में सीता की भूमिका को जीवंत कर दिखाया। स्त्रियों का फ़िल्मों में प्रवेश भारतीय संदर्भ में स्त्रियों के मौलिक अधिकारों की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण घटना थी। नवजागरण काल से आंदोलन के पुरोधा, स्त्रियों की सामाजिक दुर्दशा के विरोध में सुधारों के लिए मुहिम चला रहे थे। स्त्री शिक्षा, स्त्रियों की आर्थिक स्थिति तथा स्त्रियों के प्रति होने वाले अत्याचार और उत्पीड़न के विरोध में समाज में एक नई चेतना प्रकट होने लगी थी। भारतीय फ़िल्मों पर इस परिवर्तन का प्रभाव पड़ा। इन सुधारों के परिणाम स्वरूप सिनेमा में स्त्री के प्रति एक नई दृष्टि विकसित हुई। प्रारम्भिक दौर की फ़िल्मों में मुख्य रूप से स्त्री की समस्याओं को अधिक से अधिक चित्रित किया गया। यह भारतीय समाज को पुनर्जागृत करने का महत्त्वपूर्ण प्रयास रहा है जो कि अत्यधिक सफल हुआ। भारतीय फ़िल्मों में प्रारम्भ से ही क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर नारीवादी विषयों को सर्वाधिक प्रस्तुत किया गया। सिनेमा के हर दौर में स्त्री प्रमुख रूप से कथ्य के केंद्र में रही है।

हिंदी फ़िल्मों में नारी चरित्र-प्रधान फ़िल्मों का एक अलग वर्ग है। हिंदी फ़िल्मों में स्त्री जीवन के सुखमय और दुखमय पक्षों का चित्रण समान रूप से हुआ है। सिनेमा में स्त्री चरित्र के त्याग, अनुराग, मातृत्व, प्रेम, समर्पण जैसे गुणों के महिमामंडित स्वरूप को प्रमुख रूप से प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही दूसरी ओर उसे दुश्चरित्र, लोभी, षडयंत्रकारी, उग्र, क्रोधी, प्रतिहिंसात्मक, अनैतिक, देहवादी, पुरुषलोलुप, कामुक, और दुस्साहसी खलनायिका के रूप में भी चित्रित किया गया। दोनों ही चित्रणों में अतिशयोक्ति और काल्पनिक तत्व शामिल हैं। स्त्री का आदर्शवादी "देवी" का स्वरूप भारतीय स्त्री की एक नैतिकतावादी लोकरंजक छवि है जिसकी आकांक्षा समाज करता है, किन्तु वास्तविकता के आईने में इसकी छवि धूमिल हो जाती है। वास्तव में हिंदी (भारतीय) फ़िल्मों के कथानक पुरुषवादी दृष्टिकोण से ही लिखे जाते हैं, कुछ अपवादों को छोड़कर। यहाँ तक कि निर्माता निर्देशक अगर स्वयं कथा लेखक और अभिनेता या नायक हों तो अक्सर वे कहानी को अपने अनुकूल रचते हैं। कथा - नायिका को अपने हिस्से में रखने के ही सत्प्रयास करते हैं। यदि ग़ौर से देखें तो हिंदी फ़िल्में सारी पुरुष वर्चस्ववादी ग्रंथि से ग्रस्त हैं। "गाईड "में राजू गाईड (देवानंद) रोज़ी (वहीदा रहमान) के पात्र को उपन्यास (आर के नारायण कृत गाईड) के कथानक में फेर बदल करके, सारा दोष रोज़ी पर मढ़कर अपने लिए दर्शकों की सहानुभूति बटोरता है। वास्तव में आर के नारायण के उपन्यास में यह चित्रण भिन्न और विपरीत है। फ़िल्मों में स्त्री की असहाय स्थिति का लाभ पुरुष पात्रों ने उठाया है। फ़िल्मों की अधिकांश कहानियाँ ऐसी ही गढ़ी जाती हैं। ऐसे अनेकों संदर्भ हिंदी फ़िल्मों में दृष्टव्य हैं जो स्त्री की निरीहता और असहायता को दर्शाती हैं जो पुरुष वर्चस्ववादी मनोविज्ञान के शिकार हैं। "दिल दिया दर्द लिया" (1966) अंग्रेजी क्लासिक एमिली ब्राँटे कृत "वुदरिंग हाईट्स" का हिंदी रूपान्तरण है जिसमें उपन्यास की नायिका कैथरीन की भूमिका में वहीदा रहमान (रूपा) अपने बाल प्रेमी पात्र हीथक्लिफ़ की भूमिका में शंकर/राजा साहब (दिलीप कुमार) को मृत समझकर ठाकुर रमेश के दोस्त सतीश (रहमान) के दबाव में विवाह के लिए राज़ी हो जाती है। शंकर का रूपा के प्रेम के प्रति अविश्वास उसमें विध्वंसात्मक क्रोध और आक्रोश को जन्म देता है। शंकर की मानसिकता स्त्री के प्रति पुरुषवादी अहंकारयुक्त श्रेष्ठता को सिद्ध करता है। मूल उपन्यास में कथा कुछ अलग राह पर चलती है। "वुदरिंग हाईट्स" उपन्यास विफल प्रेम की विध्वंसात्मक गाथा है। "धूल का फूल" (1959) स्त्री पर पुरुष द्वारा आरोपित अविवाहित मातृत्व की असामाजिक विषम स्थिति की तीखी आलोचना है। फ़िल्म में दोषी पुरुष अपने आभिजात्य संस्कृति छद्म वेश में स्त्री की अस्मिता को कुचलने में सफल होता है। स्त्री की स्थितियों में सुधार की भावना के पीछे परोपकार की भावना अधिक और सामाजिक परिवर्तन की मानसिकता कम दिखाई देती है। सिनेमा में प्रारम्भ से ही स्त्री की छवि को पुरुष की भोगवादी दृष्टि से ही प्रस्तुत किया जाता रहा है क्योंकि इसके संग सिनेमा की कारोबारी व्यवस्था जुड़ी हुई है। आज के उत्तर-आधुनिक समाज में स्त्री की देह को वस्तु और उपभोग्य सामाग्री के रूप में प्रस्तुत करने की सिनेमाई संस्कृति का विकास हो चुका है। यह देखते ही देखते एक परंपरा बनकर स्थापित हो गई। आज भारतीय सिनेमा की वास्तविकता यही है कि पर्दे पर दिखलाई जाने वाली औरत को शृंगारिकता और सौन्दर्य प्रदर्शन की आड़ में पुरुषों के चाक्षुष भोग का बिम्ब बनाया रहा है। अब यह केवल आरोप न रहकर स्वत: सिद्ध हो गया है। इसे परंपरावादी समीक्षक सिनेमा का पश्चिमीकरण या वैश्वीकरण का प्रभाव बताकर अपना पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं। चूँकि समकालीन सिनेमा बाज़ारवाद की उत्पादन प्रणाली का अभिन्न अंग बन चुका है, अतएव वह बाज़ार समाज में मौजूद प्रवृत्तियों को नए-नए प्रकार से सुस्पष्ट तथा निरूपित करता रहेगा। आज उपभोक्तावादी माहौल में जब बाज़ार मुनाफ़ा कमाने की हवस में हर वस्तु को माल (commodity) में बदल सकता है तो केवल नारी देह ही नहीं, बल्कि पुरुष के जिस्म की भी क़ीमत लगा सकता है।

पश्चिमी जगत के नारी आन्दोलनों का प्रारम्भ तब हुआ जब उन्नीसवीं शताब्दी की समाप्ति तथा बीसवीं के आरंभ में सुशिक्षित महिलाओं ने मताधिकार की माँग उठाई। इसे आन्दोलन की पहली लहर के नाम से जाना जाता है। दूसरी लहर का संबंध फ्रांसीसी दार्शनिक तथा साहित्यकार, साइमन द बूवे की नारी विमर्श की कृति "सेकेंड सेक्स ( 1949) से है, जिसमे सीमोन ने दावा किया कि स्त्री जन्म से नहीं होती बल्कि वह बनाई जाती है। कुछ समय तक सीमोन मानती रही कि समाजवाद के प्रसार-प्रचार से नारी अधिकारों की प्राप्त हो जाएगी लिहाज़ा वह स्वयं को समाजवादी लेखक घोषित करती रहीं। बाद में समाजवाद से मोह भंग होने पर वह Movement dela liberation des femmes नामक स्त्री संगठन से जुड़ीं और स्वयं को नारीवादी लेखक कहने लगीं। नारीवाद का यह पहला पड़ाव था। 1963 में अमेरिकी पत्रकार बेटी फ्रायडन की पुस्तक The Feminine mystique का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक में उन स्त्रियों की मानसिक अवस्था का अध्ययन किया गया, जो दूसरे महायुद्ध के उपरांत मातृत्व का दायित्व अकेले वहन करती रहीं। फ्रायडन, नारीवाद की दूसरी लहर का उदघाटन करने वाली महिला बनीं। "The Feminine Mistique में उनका प्रमुख तर्क है कि जिसे स्त्री की रहस्यात्मकता (mystique) कहा जाता है उसे न तो कोई नाम दिया जा सकता है और न ही मामूली पड़ताल से उजागर किया जा सकता है। फ्रायडन के बाद केट मिलेट की पुस्तक Sexual Politics (1969) ने नारीवाद की सोच को समृद्ध बनाया।

ग़ौरतलब है कि उपरोक्त पुस्तकों का प्रकाशन ऐसे समय पर हुआ जब अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन तथा वियतनाम युद्ध-विरोधी संघर्षों की शुरुआत हो चुकी थी। स्त्रियों को विश्वास होने लगा कि अपने अधिकारों के लिए सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक लड़ाई खुद को लड़नी पड़ेगी।

"वैयक्तिक ही राजनैतिक है" जैसी बुलंद घोषणा कर दूसरी लहर के आंदोलनकारियों ने नारी देह के शोषण, मातृत्व, प्रजनन, सौन्दर्य प्रतियोगियों और विज्ञापन उद्योगों को सार्वजनिक बहस का दर्जा प्रदान किया। कालांतर में नारीवाद, साहित्य के साथ-साथ सिनेमा में भी नारी छवियों की प्रस्तुतियों की जाँच करने लगा। 1971 में लंदन में एक ऐसे संगठन की स्थापना हुई (लंदन महिला फ़िल्म संगठन) जिसमें उस समय की प्रमुख महिला आंदोलनकारियों ने भाग लिया। उसके एक वर्ष बाद एडिनबरा में विश्व का पहला नारी फ़िल्म महोत्सव आयोजित किया गया। इस प्रकार फ़िल्म की नारीवादी व्याख्या करने वाले लेखकों को एक मंच उपलब्ध हुआ । इसके बाद ही नारीवादी फ़िल्म लेखन का सिलसिला आरंभ हुआ। इस संबंध में नारीवादी फ़िल्म लेखन की प्रभावशाली हस्ताक्षर "लॉरा मल्वी" के दृष्टिकोण पर विस्तार से विचार करना आवश्यक है। 1975 में ब्रिटेन की "स्क्रीन" पत्रिका में प्रकाशित आलेख में "मल्वी" ने लिखा कि समूचे फ़िल्म उद्योग पर पितृसत्ता का शिकंजा कुछ इस तरह कस चुका है कि पर्दे पर दीखने वाली औरत एक मूक यौनेत्तजक प्रतीक बन कर रह गई है। फ़िल्मों के देखने की परंपरागत पद्धति को नकारते हुए वह तर्क देती है कि फ़िल्म देखते समय कहीं-कहीं पुरुष दृष्टि में वायरिज़्म (voyeurism) अर्थात् यौनिक निहार की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है। सिनेमाघर का पर्दा विशाल दर्पण है जिसे देखते हुए दर्शक न केवल आत्ममुग्ध हो जाता है बल्कि उसकी दमित इच्छाएँ नायक के क्रिया-कलापों में चरितार्थ होने लगती है। आत्मसातीकरण की इस नई प्रक्रिया को "मल्वी" ने - स्कोपोफीलिया अर्थात "ख़ुद को निहारने का आनंद" कहा है। पर्दे पर अंकित आकृति के साथ आत्मसातीकरण होते ही दर्शक जागृत हो जाता है। मल्वी की शिकायत है कि दर्शक का तात्पर्य केवल पुरुषों से है। अर्थात् निहारने का आनंद केवल पुरुषों को मिला है। महत्त्वपूर्ण यह है कि निहारने वाला पुरुष दर्शक भी हो सकता तथा सिनेमाई आख्यान का नायक। कुल मिलाकर सिनेमा पुरुष पात्रों/दर्शकों को सक्रिय और स्त्री पात्रों/दर्शकों को निष्क्रिय तत्त्वों में बादल देता है।

"मल्वी" की अवधारणाओं ने नारीवादी फ़िल्म लेखन को गहराई से प्रभावित किया। इसी क्रम में अन्य नारीवादी फ़िल्म लेखकों में "जोन्स्टन, मेरी ऐन डोआन, काजा सिल्वर मैन और टेरीसा दे लारिटिस" उल्लेखनीय हैं।

रतीय फ़िल्म समीक्षक "आशा कसबेकर" के अनुसार तमाम विरोधाभासों से निपटने के लिए हिंदी सिनेमा एक आदर्श नैतिक ब्रह्मांड रचता है जिसमें औपचारिक रूप से स्त्री की मर्यादा का उल्लंघन न हो किन्तु अनौपचारिक रूप से पुरुषों को शृंगारिक आनंद प्राप्त हो सके। इसके लिए वह अनेक प्रकार की धूर्ततापूर्ण रणनीतियाँ तैयार करता है, जैसे नृत्य-गीतों के ज़रिये देह का प्रदर्शन। कसबेकर इन रणनीतियों को तीन खंडों में बाँटती हैं -

(1) कौमार्य का महिमा मंडन - हिंदी सिनेमा की स्त्री पवित्र है - जैसे गंगा नदी का जल अथवा सीता।

(2) प्रदर्शन - प्रदर्शन सदैव सार्वजनिक रूप में किया जाता है - चाहे वह थियेटर, बार, डिस्कोथेक, रेस्त्रां या सड़क पर हो। इस प्रदर्शन को आख्यान के भीतर तथा बाहर मौजूद दर्शक समान रूप से देखते हैं।

(3) निहारने की प्रवृत्ति का नकार - सिनेमाई दृश्य रचना को कुछ इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है मानो नृत्य को आख्यान के भीतर बैठा दर्शक निहार रहा हो न कि बाहरी दर्शक। इसका लाभ यह है कि बाहरी दर्शक अपराध-बोध से मुक्त होकर संपूर्ण यौनिक सुख प्राप्त का लेता है। फ़िल्मकार जानता है कि भारतीय सेंसर बोर्ड नग्न दृश्यों को दिखाने की अनुमति नहीं देता। इसलिए वह छद्म रूप में वर्षा गीत के बहाने कामुकता को प्रोत्साहित करता है।

हिंदी सिनेमा में स्त्री छवि का निरूपण कई प्रकार से हुआ है। इसकी सर्वाधिक प्रचलित छवि पौराणिक देवी माँ की है। फ़िल्मकारों ने नायिकाओं की नैतिक सर्वोपरिता स्थापित करने के उद्देश्य से उन्हें राधा, सावित्री, सीता, दुर्गा, काली के तुल्य घोषित किया। देवी माँ आदर्श है - वह पवित्रता की प्रतीक है, उसे अपमान सहना पड़ता है ताकि अराजकता को समाप्त कर नई व्यवस्था की स्थापना की जा सके, उसके पुत्रों को उसकी सुरक्षा के लिए तत्पर रहना चाहिए, न्याय के लिए संघर्ष देवी माँ की मर्यादा को बचाने का संघर्ष है । देवी माँ का स्थायी तथा अत्यंत शक्तिशाली बिम्ब मदर इंडिया (1957) में प्रस्तुत किया गया। देवी माँ के पात्र में नरगिस (राधा) भारत माता का प्रतिरूप है। जब उसकी बिगड़ैल संतान बिरजू (सुनील दत्त) ही उसका अपमान करने लगती है तो भारत माता उसे गोली मार देने में ज़रा भी नहीं संकोच करती। राधा (नरगिस- भारत माता) के लिए बिरजू पुत्र नहीं रह गया है वह केवल एक घृणित डकैत है।

देवी माँ की दूसरी छवि राधा (मीरा) की है। रासलीला की परम्परा में राधा के साथ तीन बिम्ब जुड़े हैं - दिव्यता, शृंगारिकता तथा रत्यात्मकता। हिंदी सिनेमा ने राधा-कृष्ण के मिथक का भरपूर उपयोग किया है चाहे वह "गीत गाता चल" (1975) हो या "बोल राधा बोल" अथवा "मुकद्दर का सिकंदर" अथवा "देवदास"। देवी माँ की तीसरी छवि सीता की है जिसे पति के हाथों अपमानित होना पड़ता है। वह अपनी पवित्रता को स्थापित करने के लिए अग्नि -परीक्षा से गुज़रने के लिए तैयार हो जाती है। ए चंद्रा के निर्देशन में बनी "तेज़ाब" (1988), बासु भट्टाचार्य की "पंचवटी" (1986)तथा श्याम बेनेगल की "निशांत" (1975) सीता के बिम्ब के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

दुष्ट दमन और राक्षस संहारक दुर्गा/काली (शक्ति) की छवि हमें 1970 तथा 1980 के दशकों में बनी तीन फ़िल्मों - "इंसाफ का तराजू (1980), प्रतिघात (1987), ज़ख़्मी औरत (1988)" तथा 90 के दशक में बनी प्रकाश झा की "मृत्युदंड" में स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। हॉलीवुड की परिभाषा से इन्हें बदला लेने वाली औरतें कहा जाएगा किन्तु दुर्गा बदला नहीं लेती वह तो असुर और आसुरी प्रवृत्ति का संहार करती है। इसीलिए इन फ़िल्मों की नायिकाएँ दुर्गा की प्रतिरूप हैं न कि किसी हॉलीवुड की तर्ज़ पर गढ़ी प्रतिशोधात्मक नारी।

दरअसल स्वतन्त्रता मिलने के कई दशकों बाद भी हिंदी सिनेमा सामंती या उपनिवेश-कालीन आग्रहों से मुक्त नहीं हो पाया। कुछ अपवादों को छोड़कर पर्दे पर दिखाई जा रही वही स्त्री अच्छी थी जिसने संयुक्त परिवार के दायरे के भीतर रहते हुए पितृसत्ता को ज्यों का त्यों बनाए रखा था। इससे ठीक विपरीत छवि आधुनिक औरत की है। आधुनिक औरत विद्रोही और महत्त्वाकांक्षी है - राजकपूर की "अंदाज़" (1948)। पितृसत्ता को उससे सबसे अधिक ख़तरा था, इसीलिए उसका व्यंग्य चित्र प्रस्तुत करना ज़रूरी हो गया था। उसे पाश्चात्य लिबास पहने, सिगरेट पीते, क्लब जाते डांस करते, ऊँची आवाज़ में बोलते, मर्दों से ज़बान लड़ाते तथा षडयंत्र रचते दिखाया गया। पितृसत्ता स्त्रियों की आज़ादी के ख़िलाफ़ है। इसीलिए वह आज़ाद दीखने वाली हर औरत को दंड का पात्र मानता है। बलात्कार आज़ाद औरत को दिया गया दंड है। बलात्कार का प्रथम चरण स्त्री निर्वस्त्रीकरण है। ज़ाहिर है सेंसर बोर्ड ऐसे दृश्यों के क्लोज़प की अनुमति नहीं देता । इसलिए शॉट की यौनेत्तजकता को क़ायम रखने के लिए कैमरा भीड़ पर केन्द्रित कर दिया जाता है जो निर्वस्त्र की जा रही औरत को बेशर्मी से निहार रही है। निर्देशक जानता है कि सिनेमाघर में मौजूद सैकड़ों जोड़ी आँखें भी निहारने की प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा हैं। बाद में भुक्तभोगी स्त्री अकेले ही बलात्कारी पुरुष का विनाश करने में कामयाब हो जाती है। दुर्गा के प्रतिरूप को इस काम के लिए न संस्था चाहिए और न ही कोई आंदोलन। इस प्रकार देवी माँ का बिम्ब बरक़रार रखते हुए फ़िल्मकार यौनिकता को छद्म रूप से से प्रवेश दिलाने में सफल हो जाता है।

यौनिक निहार की प्रवृत्ति को प्रदर्शित करने के लिए हिंदी सिनेमा ने एक और महत्त्वपूर्ण प्रयोग किया। फ़िल्मों में खल-चरित्र वाली स्त्री पात्र -वैम्प की प्रस्तुति। वैम्प में वह सभी विशेषताएँ होती हैं जो देवी माँ में नहीं पाई जाती जैसे कौमार्य, पवित्रता, लावण्य आभा आदि। वैम्प अनियंत्रित वासना का प्रतीक है। उसे नाईट क्लबों, मदिरालयों या नाच घरों में देखा जा सकता है। वह पाश्चात्य स्त्रियों की भाँति चरित्रहीन थी क्योंकि पराये मर्दों के साथ नाचने में उसे परहेज़ न था। स्वातंत्र्योत्तर काल के शुरुआती दौर में वैम्प को प्राय: एक विदेशी भारतीय महिला के रूप में चिह्नित किया जाता था। चूँकि वह नाचघर की संस्कृति की प्रतिनिधि थी अतएव कैबरे के दृश्यों में उसकी मुख्य भूमिका होती थी। इस प्रकार 50-60 तक के दशकों में हिंदी सिनेमा ने वैम्प (खलनायिका) तथा कैबरे नृत्य के ज़रिये यौनिक निहार को बराबर प्रोत्साहन दिया। "श्री 420 (1954), नौ दो ग्यारह (1957) तथा आर-पार (1953)" वैम्प और उसके कुटिल व्यवहार के प्रमुख उदाहरण हैं। 1970 तक पहुँचते-पहुँचते वैम्प का चरित्र अर्थहीन हो गया। अब नायिका स्वयं ही प्रदर्शन की वस्तु बन गई । किन्तु नायिका के देह प्रदर्शन के लिए एक सार्वजनिक जगह की तलाश थी जहाँ मौजूद दर्शकों की आड़ में सिनेमाघर के दर्शकों को निहारने का अवसर प्रदान किया जा सके। इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए कॉलेज के वार्षिकोत्सव, नृत्य प्रतियोगिताओं, संस्थापना दिवस इत्यादि को दृश्य आख्यान में शामिल किया गया। "दिल तो पागल है" (1998) की समूची कहानी का तान-बाना नृत्य प्रतियोगिता के इर्द-गिर्द बुना गया है। इस प्रकार के नृत्यों का परिवर्तित रूप उन फ़िल्मों में देखने को मिलता है जहाँ नायिका को अपहृत कर लिया जाता है और वह नायक को बचाने तथा विलन को रिझाने के लिए नाचने को तैयार हो जाती है। नायिका के शील की क़ुर्बानी (नृत्य) को सार्वजनिक स्थल में देखा जाता था । जेवेल थीफ़ (1967), सीता और गीता (1972) तथा शोले (1971) और "क़ुर्बानी" नृत्य की ख़ास मिसालें हैं।

हिंदी सिनेमा के इतिहास में ऐतिहासिक (हिस्टोरिकल) और मुसलिम सामाजिक (सोशल) कही जाने वाली फ़िल्मों का विशेष दर्जा है। इस समूह (Genre) में पाई जाने वाली फ़िल्मों का विशेष महत्त्व है क्योंकि हिंदी फ़िल्मकार को नवाबी तहज़ीब की आड़ में कोठे में रहने वाली तवायफ़ के चरित्र निरूपण का अच्छा अवसर मिलता है। कोठा ऐसी भौगोलिक जगह है जो गुज़रे वक़्त का प्रतीक होने के साथ-साथ आधुनिकता के प्रभावों से विमुक्त है। कोठे के अंत:स्थल मुसलिम तहज़ीबों से रचे-बसे होते हैं वहाँ मुशायरे, ठुमरी और ग़ज़ल गायकी पूरी तरह मौजूद है। कोठे की छवि जो तवायफ़ है वह साधारण वेश्या नहीं होती। उसके क़द्रदान शहर के तमाम रईस और उमरा होते हैं। तवायफ़ एक तरह से इतिहास की त्रासदी है। कालांतर में समाज में उसका सम्मान घट गया। किन्तु वह अपनी शर्तों पर जीना जानती है। सत्ता के अत्याचारी स्वरूप का पर्दाफ़ाश करने में वह ज़रा भी नहीं हिचकती । मुसलिम सोशल फ़िल्मों में तवायफ़ के सकारात्मक चरित्र को पूरी तरह से उभारा जाता है। किन्तु अधिकतर फ़िल्मकारों की ख़ास दिलचस्पी कोठे पर होने वाले मुजरों में दिखाई देती है। इस प्रकार तवायफ़ और मुजरा एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं। कोठा, तवायफ़ और मुजरा ऐसे अलंकारपूर्ण प्रतीक हैं जिन्हें पाकीज़ा (1971), उमराव जान (1981), सरदारी बेगम (1996) को मुस्लिम सोशल के नाम पर भरपूर इस्तेमाल किया गया है। कोठे और तवायफ़ों की कहानियों पर बने ऐसे मुसलिम सोशल अधिक लोकप्रिय हैं, क्योंकि कोठे में नृत्य (मुजरा) करने वाली तवायफ़ पुरुषों के यौनिक निहार की ज़रूरतों को पूरा करती है। यह आवश्यक नहीं कि मुसलिम सोशल में कैमरा तवायफ़ की देह पर ही केन्द्रित रहे। वस्तुत: पाकीज़ा की नायिका साहिब जान (मीना कुमारी) के लाल रंग में नहाये पैर यौनिक निहार का बिन्दु बन जाते हैं।

1993 के दशक से हिंदी सिनेमा में स्त्री पात्रों एवं नर्तकियों के देह प्रदर्शन के लिए आइटम गीत परंपरा का आरंभ हुआ। इस परंपरा ने फ़िल्मों की व्यापारिक क्षमता में कल्पनातीत वृद्धि कर दी। यह दृष्टव्य है कि जैसे जैसे फ़िल्मों से कथावस्तु अदृश्य होती गई, सार्थकता का ह्रास होता गया, स्त्री देह की फूहड़ और अश्लील प्रस्तुति को बाज़ार की स्वीकृति प्राप्त होती गई। इस दौर में प्रयोग के रूप में शामिल किए गए आइटम गीत (item songs) को इसी ऊहापोह की परिणति माना जा सकता है। आइटम गीत की विशेषताएँ हैं - प्रमुख चरित्र का सिनेमाई आख्यान का हिस्सा न होना, प्रदर्शन का ऊर्जामय होना, द्विअर्थी शब्दों, व्यंजनापूर्ण भाव-भंगिमाओं का प्रयोग तथा कैमरे को विभिन्न कोणों से संचालित कर क्लोज़अप द्वारा दर्शकों की वासना जागृत करना। कुछ फ़िल्म विशेषज्ञों का मानना है कि आइटम गीत की शुरुआत "खलनायक" (1997) की बहुचर्चित प्रस्तुति "चोली के पीछे क्या है" से हुई थी। इस गीत को लेकर राष्ट्रीय मीडिया में ज़बर्दस्त प्रक्रियाएँ हुईं । दिल्ली के वकील और भारतीय जनता पार्टी के सदस्य "आर पी चुग" ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की जिसमें गीत पर प्रतिबंध लगाने का अनुरोध किया गया था। अपनी याचिका में चुग ने गीत को "अश्लील तथा स्त्रियों के लिए अपमानजनक" घोषित किया था। इसी प्रकार फ़रीदाबाद के विनीत कुमार ने स्थानीय उपभोक्ता फ़ोरम में दायर की गई एक याचिका में गीत पर पाबंदी लगाने की माँग उठाई। कुमार की दलील थी कि गीत "भारतीय संस्कृति, अंतरात्मा तथा नैतिकता~" के विरुद्ध था। मीडिया द्वारा विवाद को अधिक प्रश्रय दिये जाने का नतीजा यह हुआ कि फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर उम्मीदों से बढ़कर कारोबार किया।"खलनायक" की सफलता के बाद आइटम गीत मानो हिंदी सिनेमा के नए रूपक बन गए। "छम्मा छम्मा (चाइना गेट, 1998), महबूब मेरे (फिजा, 2000), माही वे (कल हो न हो) धूम मचा ले (धूम 2004), कजरारे (बंटी और बबली 2005), बीड़ी जलइके (ओंकारा), रेस, खाकी, अग्निपथ आदि दर्जनों फ़िल्में आई जिनमें आइटम गीतों का प्रयोग दर्शकों को लुभाने के लिए किया गया और यह परंपरा अब अपरिहार्य हो गई है। सिनेमा के आरम्भिक दौर से ही स्त्री को पर्दे पर किस प्रकार दिखलाया जाए? यह प्रश्न फ़िल्मकारों को उद्वेलित करता रहा है। विगत शताब्दियों में हिंदी फ़िल्मकारों ने इसके लिए तरह तरह के बिम्बों का प्रयोग किया है। फिर भी वह दो दबावों के कारण स्वयं को विवश और असहाय पाता है। पहला दबाव वित्तीय है तो दूसरा अनुभूति से जुड़ा। इन दबावों से प्रभावित निर्माता और निर्देशक का प्रथम लक्ष्य होता है स्त्री देह का यथासंभव प्रदर्शन ताकि पुरुष दर्शकों को कामासक्त आनंद की अनुभूति हो सके। वैश्वीकरण की प्रक्रिया के साथ यह दबाव बढ़ता ही जाएगा लेकिन फ़िल्मकारों को अपने प्रतिबद्ध दर्शकों की नैतिक चिंताओं का ख़्याल भी रखना पड़ेगा। अतएव वह स्त्री की मर्यादा और मान सम्मान को पूरी तरह से नज़रंदाज़ नहीं कर सकता।

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