अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

महादेवी के काव्य में क्रांति-चेतना

पिछले आठ दशकों में महादेवी के काव्य पर सीधे-सीधे या छायावाद के संदर्भ में कई हजार पृष्ठ लिखे जा चुके हैं। सवाल उठ सकता है कि क्या अब भी उन पर कुछ नया कहा जा सकता है? इसका उत्तर ‘हाँ’ है और इसके अनेक कारण हैं। एक तो, बहुत कुछ कह दिए जाने का मतलब सब कुछ कह दिया जाना नहीं है, दूसरे उस ‘बहुत कुछ’ के प्रति सर्वसहमति हो, सर्वस्वीकृति हो -- न यह अनिवार्य है और न संभव ही। महादेवी के काव्य की अब तक की समीक्षा में दो-तीन बड़ी खामियाँ नज़र आती हैं। पहली तो यह कि हमने आदतन उन्हें सूत्रों में बांध कर मूल्यांकित किया है। ’वे आधुनिक मीरा हैं!’ ‘वे पीड़ा की साम्राज्ञी हैं!’ ‘वे रहस्यवादी हैं!’ इस तरह के जुमले महादेवी की कविता को समझने के सही रास्ते नहीं दिखलाते। ‘मैं विरह में चिर हूँ।’ ‘मैं नीरभरी दुःख की बदली’ ‘मैं मृत्यु मंदिर हूँ।’ जैसे उनके ही कथन उथले रूप में उद्धृत कर के भी हम महादेवी को तब तक नहीं समझ सकते जब तक हम इन उक्तियों के गंभीर आशय तक नहीं जाते। आँसू, रुदन, विरह, मिटना, गलना, मृत्युछाया आदि के यत्र-तत्र उल्लेख को देखकर उन्हें पलायनवादी घोषित करते हुए कुछ दिग्गज समालोचकों को जरा-सी देर नहीं लगी है। यह वह दूसरी खामी है, जिसका बड़ा कारण महादेवी की कविता को अपने ‘कंडिशंड’ चश्मे से देखने की आदत है। फ़्रॉयड के प्रिय शिष्यों ने उनके हर शब्द, हर पंक्ति, हर प्रतीक में प्रच्छन्न श्रृंगार और काम-कुंठाओं को प्रमाणित करने का प्रयास किया तो कई अन्य ने उनके काव्य में किसी भी सामाजिक संघर्ष की अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया। इन विकृत समीक्षाओं का परिणाम यह हुआ कि महादेवी की कविता में छिपी क्रांति की आग अनदेखी रह गई। उनके आँसू तो सबने देखे पर हम भूल गए कि महादेवी ने आग के बिना आँसू का अस्तित्व कभी स्वीकार ही नहीं किया था।

महादेवी की कविता की क्रांति-भावना को हम बीसवीं सदी के परिदृश्य को समझे बिना नहीं समझ सकते। उन्होंने स्वयं लिखा हैः "एक व्यापक विकृति के समय निर्जीव संस्कारों के बोझ से जड़ीभूत वर्ग में मुझे जन्म मिला..." ‘व्यापक विकृति’ का यह वह समय था, जब व्यक्ति का अस्तित्व उपेक्षित था और निर्जीव संस्कारों के बोझ से जड़ीभूत होने के कारण उसकी अभिव्यक्ति संभव नहीं थी। इसीलिए छायावाद को परिभाषित करते समय बहुत बल देकर महादेवी ने कहा - "हजारों वर्षों से से कुचला व्यक्ति का अहम् अभिव्यक्ति के लिए रो उठा।" हम हैं कि ‘रोने’ पर ही अटके रह गए, ‘अभिव्यक्ति’ पर हमारा ध्यान नहीं गया। ‘रोना’ भी किस प्रकार क्रांति हो सकता है, इसे समझना होगा। महादेवी की पहली बड़ी क्रांति तो यह है कि उन्होंने कविता लिखी और दूसरी यह कि आत्माभिव्यक्ति की कविता लिखी क्योंकि उस परिवेश में नारी के द्वारा इस रास्ते को चुनना ही बड़ी क्रांति थी। मीरा से उनके व्यक्तित्व और काव्य की बहुत सारी भिन्नताएँ हैं पर यह इन दोनों में एक समान बिंदु है। जरा कल्पना कीजिए यदि मीरा अपने ठाकुर को भजने के लिए अपने महल में ही एक ठाकुरद्वारा बनवा लेती तो उनके सामंती परिवेश को क्या आपत्ति होती। लेकिन हद तब हो गयी जब वे अपने प्रेम को गा-गाकर जनता के बीच ले आईं। औरत प्रेम करे, भले ही ईश्वर से प्रेम करे, यह हमारी सामंती मानसिकता को कैसे स्वीकार हो सकता है; इससे भी आगे जाकर उस प्रेम की सरे-बाजार घोषणा भी करे! यह तो कुफ़्र है। महादेवी समाज की सारी जड़ताओं को तोड़कर कविता लिख कर ही क्रांति करती है और प्रेम की कविता लिख कर उस क्रांति को चरम तक पहुँचाती हैं। आप कहेंगे - प्रेम कहाँ, वहाँ तो रहस्यवाद है। है पर महादेवी के ही शब्दों को याद कीजिएः "उसने (छायावाद ने) पराविद्या की अपार्थिवता ली, वेदांत के अद्वैत की छायामात्र ग्रहण की, लौकिक प्रेम से तीव्रता उधार ली..." उनके काव्य में तमाम तीव्रता-उत्कटता लौकिक प्रेम से कटी नहीं है। ‘जो तुम आ जाते एक बार’, तुमे बांध पाती सपने में’ ‘प्राण पिक प्रियनाम के कह’ जैसे कितने ही गीतों में लौकिक प्रेम की उत्कटता है।

‘दद्दा’ का स्नेह पाकर भी महादेवी, प्रसाद, निराला और पंत के उस विराट् आंदोलन से जुड़ी, जिसका वैश्विक रूप स्वच्छंदतावाद है। सामंतवाद के खंडहर पर खड़ा होने वाला यह काव्यांदोलन प्रकृतितः क्रांतिधर्मा होता है और स्वच्छंदतावाद की लड़ाई होती है, जड़ यांत्रिकता के विरुद्ध, औपनिवेशिकता के विरुद्ध, अमानवीय शास्त्रीयता के विरुद्ध तथा रूढ़परक धर्म के विरुद्ध। महादेवी की क्रांतिभावना की दो स्पष्ट दिशाएँ हैं। एक ओर वे मनुष्यमात्र के दमन से विचलित-विह्वल हैं? दूसरी ओर मानव के समाज के एक अंग की प्रतिनिधि होने के कारण, औरत होने के कारण, वे अतिरिक्त रूप से क्रांति-भार को वहन करती हैं। यह संघर्ष उनके सामने अस्तित्व का एक संकट खड़ा करता है। महादेवी की एक विशिष्ट आरंभिक कविता है - ‘उस पार’। यह उन्होंने तब लिखी थी जब वे मात्र 17 वर्ष की एक किशोरी थीं। अस्तित्व के संकट को उन्होंने तभी पहचान लिया थाः

घोर तम छाया चारों ओर
घटाएँ घिर आई घनघोर
वेग मारुत का है प्रतिकूल
हिले जाते हैं पर्वत मूल
गरजता सागर बारम्बार
कौन पहुँचा देगा उस पार

महादेवी की कविता में अंधेरा कितनी बार आया है, यह गिनना बहुत मुश्किल है। उनके अग्रज निराला ने कुछ हताश होकर कभी कहा थाः ‘कौन तम के पार रे कह!’ तम से पार पाना महादेवी के लिए भी बहुत बड़ी चुनौती है। यह तम प्रतिपक्ष का प्रतीक है। अंधेरे से, रात से संघर्ष का अर्थ कोई सस्ती भावुक प्रेमकथा है क्या? नहीं, यह वह विराट् संघर्ष है, जिसका मूल स्वर अग्निमय है। महादेवी की क्रांतिभावना की साक्षी उनकी अग्नि-गर्भा रचनाएँ ही हैं। उनको उपेक्षित कर महादेवी का कोई भी मूल्यांकन सही नहीं हो सकता। प्रतिपक्षी तम से लड़ने के लिए -‘अंजनवदना रात्रि’ से जूझने के लिए, ‘कज्जल दिशा’ में धँसने के लिए, ‘तिमिरवेषी कल्पदल’ से टकराने के लिए महादेवी दीपशिखा के अतिरिक्त क्या बन सकती थीं! महादेवी क्या हैं, यह सवाल हम आज ही नहीं पूछते हैं, ये प्रश्न-बाण तो उन्हें भी निरंतर बींधते रहे। 17 वर्षीय किशोरी ने जिस तम की बात की थी, प्रौढ़ महादेवी उसकी पराजय दिखलाते हुए यह भी बताती हैं कि वे क्या हैं:

पा क्यों शेष कितनी रात?
वयंग्यमय है क्षितिज घेरा
प्रश्नमय हर कण-निठुर-सा
पूछता परिचय बसेरा
आज हो उत्तर सभी का ज्वालवाही श्वास तेरा
छीजता है इधर तू, उस ओर बढ़ता प्रात

कविता का अंत इस प्रकार होता है - ‘कौन भय की बात।’ नहीं, भय तो महादेवी को है ही नहीं। पूछ, लो क्या पूछना चाहते हो। ‘ज्वालवाही श्वास’ से उत्तर मिल रहा है। आप उनके लिए तरह-तरह के भ्रांत शीर्षक खोजते रहिए पर समझ तो उन्हें ज्वालवाही श्वास के संदर्भ में ही पाएँगे।

हमने आरंभ में कहा था कि महादेवी को समझने में कई गलतियाँ हुई हैं। उन्हीं में से एक यह भी है कि उन्हें पलायनवादी घोषित करते हुए उनके गद्य को नज़रअंदाज कर दिया गया। ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में उन्होंने स्त्री की अस्मिता को अत्यंत क्रांतिकारी ढंग से रेखांकित किया है तो घिस्सू, भक्तिन और गुंगिया जैसे संस्मरण और रेखाचित्र एक और क्रांति-कथा लिखते हैं। निराला ने यों ही महादेवी को ‘स्फूर्ति, चेतना, रचना की प्रतिमा कल्याणी’ नहीं कहा था। ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ पिघलाना उनके जीवन और काव्य का लक्ष्य था। उनकी दृढ़ता और क्रांतिभावना से परिचित होना है तो जरा इन पंक्तियों को देखिएः ‘श्रृंखलाएँ ताप के डर से गलेंगी। भित्तियाँ यह लौह की रज में मिलेंगी।’ लौह-भित्तियाँ कैसा भयानक परिदृश्य हमारे सामने लाती हैं! देश और विश्व - दोनों संदर्भों में हम तब लौह-भित्तियों से घिरे थे। उन्हें गलाने के लिए अपेक्षित आनुपातिक ताप की कल्पना करके ही हम महादेवी के व्यक्तित्व को समझ सकते हैं। ध्यान रखना होगा, यह ताप अन्याय और शोषण के विरुद्ध है पर अंततः यह स्नेह-निर्झर ही बहाता है। महादेवी ने जब-जब जलने की बात की है, तब-तब गलने का, पिघलने का संदर्भ आया है। यह पिघलना, करुणा-द्रविता होना ही है। हम उनके जीवन और कविता में ‘आँसू’ के अस्तित्व को नकार नहीं रहे हैं पर ये आँसू पराजित रुदन के पर्याय नहीं हैं, ये तो उनकी करुणा का साकार रूप हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा है - ‘आग हूँ जिससे ढुलकते/बिंदु हिमजल के।’ महत्त्वपूर्ण यह है कि करुणा के साथ क्रांति की अनिवार्य भावना उनके काव्य में है। स्वच्छंदतावादी कवि के भीतर सामाजिक जड़ताओं के प्रति गहरा असंतोष होता है, वह इसीलिए सब कुछ बदल देना चाहता है। झंझावात, प्रलय, तूफ़ान जैसी शब्दावली वास्तव में स्वच्छंदतावादी कवि की भीतरी बेचैनी की वाहक होती है। महादेवी की समूची कविता में एक बेचैनी का भाव सर्वोपरि है। उनकी कविता में कल्पना के द्वारा जिन विराट् व्यापक लोकों की सृष्टि हुई है, वह परिवर्तन के सपने देखने का ही परिणाम है। इसीलिए उनकी क्रांति-चेतना ऐसा रूप पा सकी हैः

मेरे विश्वासों में बहती रहती झंझावात
आँसू में दिन रात प्रलय के घन करते उत्पात
कसक में विद्युत अंतर्धान

महादेवी जिस व्यापक, विराट संसार की रचना करती हैं, वह उनकी आकांक्षा का संसार है। यह आकांक्षा व्यष्टि और समष्टि दोनों की ही है। वे जानती हैं कि यह सहज सुलभ नहीं है, पर फिर भी इस कल्पना-सृष्टि से वे अपने लिए एक ’स्पेस’ खोजती हैं। मनुष्य की और औरत की एक जगह समाज में बनाती हैं - उस औरत की जो नितांत उपेक्षित थी। यह जगह, यह स्पेस ध्यान रहे, करुणामय तो है पर करुण नहीं, दया का पात्र या निरीह नहीं क्योंकि वे विषम विसंगता का, भयावह का, कठिन-कठोर का चित्रण तो करती हैं पर उससे पराजित कहाँ होती हैं; ऐसी है उनकी संकल्पनावत्ताः

अन्य होंगे चरण हारे
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे
दुखव्रती निर्वाण उन्मद/ यह अमरता नापते पद
बांध देंगे अंक-संसृति/ से तिमिर में स्वर्ण बेला
पंथ रहने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला

कविता में जब क्रांति का जिक्र आता है तो कुछ लोग नारों को इसका वाहक समझ लेते हैं और चूंकि महादेवी के लिए नारे कविता के पर्याय नहीं थे, इसलिए उन्हें महादेवी की कविता में कहीं क्रांति नज़र नहीं आती। स्वच्छंदतावाद की पहली टक्कर यथास्थितिवाद से होती है। परिवर्तन उसकी सबसे बड़ी आकांक्षा है। इसलिए महादेवी का समूचा काव्य यथास्थितिवाद के विरुद्ध खड़ा है। उनकी कविताओं में ही नहीं, उनके चित्रों में भी यात्रा का बिंब आवृत्तिमूलक है। उनकी एक बहुपरिचित और बहुचर्चित कविता है -- ‘जाग तुझको दूर जाना!’ इस कविता का पुनर्पाठ और विखंडन महादेवी को समझने में सहायक हो सकता है। आइए जरा इसे देखें:

चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाणा!
जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प होले,
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले,
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश के पथ पर चिह्न अपने छोड़ जाना!

बांध लेगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले!
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले!
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओसगीले!
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना!.

वज्र का उर एक छोटे अश्रु कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सुधा दो घूँट मदिरा माँग लाया,
सो गयी आँधी मलय की वात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या फिर नींद बन कर पास आया?
अमरता-सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?

कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी
हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका!
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी
है तुझे अंगार-शैय्या पर मृदु कलियाँ बिछाना

एक सरलतवादी आलोचक के लिए इस कविता का रहस्यवादी पाठ बड़ा अनुकूल पड़ता है पर क्या वह सही पाठ है? जब घेरे से बाहर निकल कर देखते हैं तो इसमें महादेवी की क्रांतिभावना की सुस्पष्ट अभिव्यक्ति मिलती है। यहाँ भी प्रतिपक्ष में आलोक को पीकर डोलते तिमिर की छाया है और हृदयहीन तूफान है। पलायन की एक सीधी-सी व्याख्या यह है कि हम मोम के बंधनों में बंध जाते हैं, तितलियों के रंगीन पर बाधा बन जाते हैं, फूल के ओस-गीले दल, हमें डुबा देते हैं, मधुप की गुन-गुन विश्व-क्रंदन भुला देती है। इनके पार जाना होगा। तो क्या महादेवी का मन सौंदर्य-द्वेषी है। नहीं प्रश्न चुनाव का है। विश्वक्रंदन के रहते इन सबका क्या अर्थ है। और क्रंदन पहली बार तो उनकी कविता में नहीं आया है, वह तो पहले ही पूछ चुकी हैं: ‘कह दे माँ अब क्या देखूँ/तुझ में अम्लान हँसी है/इसमें अजस्र आँसू जल/ तेरा वैभव देखूँ या/जीवन का क्रंदन देखूँ।’ और इससे पहले ही वे अपने हँसते अधरों की अपेक्षा जग की आँसू लड़ियों को देखने की बात कह चुकी थीं। अन्यत्र उन्होंने यह भी कहा हैः ‘तुम्हें बांध पाती सपने में/भरती मैं संसृति का क्रंदन/हँस जर्जर जीवन अपने में।’ महादेवी यदि विश्व-क्रंदन न भुला कर अनंत यात्रा पर निकली हैं तो अपनी करुणा को लेकर पर गौर कीजिए उनके आँसू भीतर की आग के बिना कहाँ से आते। वे तो कहती हैं - ‘आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी।’ यह आग, यह ज्वाला उनकी शाश्वत सहचरी है। इस आग के बिना महादेवी क्या हैं - ‘एक ज्वाला के बिना मैं राख का घर हूँ।’

अध्यात्म और रहस्यवाद की मनमानी व्याख्या करके आलोचकों ने महादेवी की कविता को जड़िमा प्रदान की है। यदि उनके रहस्यवाद को सही परिप्रेक्ष्य में समझें तो वह भी कम प्रगतिशील नहीं है। अध्यात्म के संबंध में वे लिखती हैं: "इस बुद्धवाद के युग में भी मुझे ि अध्यात्म की आवश्यकता ह, वह किसी रूढ, धर्म या संप्रदायगत न होकर उस सूक्ष्म सत्ता की परिभाषा है, व्यष्टि सप्राणता में समष्टिगत एक प्राणता का आभास देती है, इस प्रकार वह मेरे संपूर्ण जीवन का ऐसा सक्रिय पूरक है, जो जीवन के सब रूपों के प्रति मेरी ममता समान रूप से जगा सकता है। जीवन के प्रति मेरे दृष्टिकोण में निराशा का कुहरा है या व्यथा की आर्द्रता है, यह दूसरे ही बता सकेंगे, परंतु हृदय में तो मैं आज निराशा का कोई स्पर्श नहीं पाती, केवल एक गंभीर करुणा की छाया ही देखती हूँ।" उनके हृदय की यह गंभीर करुणा की छाया परिवर्तनाकांक्षी है इसमें संदेह नहीं। उनके रहस्यवाद में प्रकृति का व्यापक लोक सर्जित हुआ है, वह भी एक भावक्रांति है। महादेवी ने प्रकृति को मानव के सौंदर्य और प्रेम के महागीत की सजग श्रोता ही नहीं, उसकी ऐसी निरंतर संगिनी अनुगायिका माना है, जिसके अभाव में संगीत के स्वर अकेले और प्रतिध्वनि शून्य हो जाते हैं। यहाँ हमें प्रसिद्ध स्वच्छंदतावादी आलोचक सी. एम. बावरा याद आते हैं। अपनी पुस्तक ‘द रोमांटिक इमेजिनेशन’ में उन्होंने लिखा हैः "सभी स्वच्छंदतावादी कवियों ने आरंभिक प्रेरणा प्रकृति से ग्रहण की। यह उनके लिए सर्वस्व भले ही न हो पर वे इसके बिना कुछ नहीं थे, क्योंकि इसी के माध्यम से वे सक्षम अनुभूति-क्षण प्राप्त हुए, जिनमें विश्व-रहस्यों के उद्‌घाटन की अंतर्दृष्टि भी उन्हें प्राप्त हुई।’’ महादेवी ने अपने समूचे कथ्य को प्रकृति के परिवेश में ही प्रस्तुत नहीं किया है, अपितु प्रतीक, बिंब एवं अप्रस्तुत-विधान के रूप में प्रकृति-उपादानों का ही उपयोग किया है। यह प्रवृत्ति आत्मपरक स्वच्छंदतावादी क्रांतिधर्मा कवि की है। उनके विरोध और विद्रोह की अभिव्यक्ति का एक रूप द्वंद्वात्मकता में हैं। उनकी कविता में आग और आँसू, मोम और ज्वाला, शूल और धूलिचंदन एक साथ आए हैं। उनकी करुणा भी इस द्वंद्वात्मक रूप में फूटी हैः

हुए शूल अक्षत मुझे धूलि चंदन
व्यथा प्राण हूँ नित सुख का पता मैं
घुला ज्वाल में मोम का देवता मैं!

महादेवी को उनके जीवन और साहित्य की समग्रता के द्वारा ही समझा जा सकता है। उन जैसा निश्चय-निष्ठ जीवन कितने लोग जीते हैं; वे वैसी सुविधाजीवी पार्टटाइम साहित्यकार नहीं थी, जैसे हम में से अधिकांश हैं। साहित्य ही उनका जीवन था पर जब जीवन सीमित नहीं है तो साहित्य सीमित कैसे होगा! न वे अपने समय की राजनीतिक हलचल से अपरिचित थी और न सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से कटी थीं। गांधी तो उनकी सादगी भरी जीवनपद्धति में बसे थे और नेहरू से भी उनके निकट आत्मीय संबंध थे। इसीलिए वे जीवन के सभी पक्षों को देख-छू पायी हैं। समग्रता का दूसरा पक्ष उनके रचना-वैविध्य का है। कविता, अनुवाद, साहित्य-विमर्श, निबंध, संस्मरण और रेखाचित्र तो इस समग्रता के विपुल घटक हैं ही, उनके जीवन के अंतिम तीन दशकों में उनके व्याख्यान और भाषण भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। महादेवी के कविता-संसार की एकांगिकता से जो विद्वान खिजे रहते हैं, वे इस समग्रता के पास क्यों नहीं जाते? ‘पथ के साथी’ औपचारिक संस्मरण भर हैं या ये अपने समकालीनों से उनके गहरे जुड़ाव का प्रमाण देते हैं, यह तो सोचना ही होगा । देश और समाज की उन्हें कितनी चिंता थी, यह उन भाषणों से जाना जा सकता है। प्रेमचंद जन्म-शताब्दी पर ‘मध्य प्रदेश साहित्य परिषद’ में 1980 में दिया गया उनका एक ऐसा ही उल्लेखनीय भाषण है जिसमें उन्होंने प्रेमचंद के लेखन को ही नहीं, समूचे हिंदी कथा-साहित्य को मथ कर ये उत्प्रेरक-उद्वेलक विचार व्यक्त किए थेः "आप लोगों ने गोदान पढ़ा ही होगा तो मन एकदम काँप जाता है और आप कई रात सो नहीं सकेंगे। अगर होरी की बात आप सोचें तो लगता है, प्रेमचंद जी सके हें, उसके साथ। यथार्थ तो सबके पास है। यथार्थ को सत्य से जोड़ देना बड़ा कठिन होता है... आज इतने उपन्यास लिखे जा रहे हैं, क्रांतिकारी लिखे जा रहे हैं, मनोवैज्ञानिक लिखे जा रहे हैं, लेकिन गोदान का होरी तो अकेला ही है, उसकी समस्या जहाँ की तहाँ है और वह जीवन के व्यापक सत्य से जुड़ी हुई है। मनुष्य जब तक समानता नहीं पाएगा, मनुष्य तब तक बंधुत्व नहीं पाएगा, मनुष्य जब तक मनुष्य की गरिमा नहीं समझेगा, तब तक सुखी नहीं रहेगा।" ये हैं महादेवी! जो मनुष्य की गरिमा की चिंता से ग्रस्त हैं, बंधुत्व की आकांक्षिणी है और यह आकांक्षा क्रांति-चेतना से उद्‌भुत है। किसी पलायन ग्रस्त मन में इसका अस्तित्व नहीं होता।

आज जब उन्हें केंद्र में लाने के लिए संघर्ष का बिगुल बज चुका है, जिनका अस्तित्व हाशिए पर रहा है, तब महादेवी की क्रांति-चेतना और भी प्रासंगिक हो जाती है। यह दलित एवं स्त्री-विमर्श का युग है। स्त्री-विमर्श का बीज रूप निस्संदेह की कविता में विद्यमान है पर महादेवी ने उच्छृंखलता को क्रांति का पर्याय नहीं माना है। उनका कहना है - "प्रत्येक मद्यप कुछ सामाजिक मूल्यों का विरोध करता है, इसीलिए वह क्रांतिकारी नहीं बन जाता।" जिस समय ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ के निबंध लिखे गए थे, उस समय के हिंदी साहित्य में आज जैसे स्त्री-विमर्श की कहीं कोई ध्वनि या प्रतिध्वनि नहीं थी। तब महादेवी ने औरत होने के दर्द को रेखांकित किया था। वह औरत घर-परिवार की साधारण औरत थी। उसके दर्द के रेशे-रेशे से पहचान थी महादेवी की! उस समय उन्होने स्त्री के हकों के लिए जो आवाज उठाई थी, उसमें दृढ़ता तो है ही, रूढ़ियों तथा जड़ संस्कारों पर चोट भी है पर उनका स्त्री-विमर्श पुरुष-द्वेषी नहीं है। उसमें घृणा का दर्शन नहीं है। उद्दाम भोग की माँग भी नहीं है अर्थात् नारी की देहवादी परिभाषा उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। सिमोन द बुआ के ‘द सैकिंड सैक्स’ की तर्ज पर वह ‘अन्य’ नहीं थी। समाज की समान इकाई थी। अपनी अन्य मान्यताओं की तरह यह क्रांतिदर्शिनी कवयित्री इस संदर्भ में भी मोम सी कोमल और वज्र सी कठोर है। वास्तव में उनका समूचा व्यक्तित्व ऐसा ही है। ‘हिमालय’ विषयक कविता में उन्होंने हिमालय को तरलता का मूर्तिमान रूप और कुलिश सम कठोर बतलाया है। सचमुच ऐसी ही थी महादेवी! उनका व्यक्तित्व टैगोर के इन शब्दों की याद दिलाता हैः "Beautiful is the wristlet decked with starry gems, but Thy Sword O Lord of Thunder is wrought with uttermost beauty terrible to behold or think of.’’ (हे घन-विद्युत के देव! तुम्हारी रत्न-जटित कलाई सुन्दर है परन्तु सुन्दरतर है वह खड्ग जिसे देख-सोच कर डर लगता है!)

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

साहित्यिक आलेख

दोहे

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं