द्वापर-प्रसंग
काव्य साहित्य | कविता डॉ. राजेन्द्र गौतम11 Feb 2008
बहता काला रक्त है
हरिण-मुखी थिर पाँव
यह द्वापर की साँझ है
ढलती जाती छाँव।
लपटें उठतीं गगन तक
कैसा यह मृग-दाव
इस अंधे युग के नहीं
संभव मिटने घाव।
दुर्लभ अपनी बंधुता
दुर्लभ यह प्रासाद
कक्ष-कक्ष में लाख से
हों संबंध अगाध।
प्रजातंत्र की द्रौपदी
राजनीति का द्यूत
पौरुष के अपमान की
गाथा कहते सूत।
चंपानगरी-सा छुटा
शिशु-वसु कब किस तीर
मान-दग्ध कुरु-भूमि में
हम वैकर्तन वीर।
अभिनंदित क्यों हो नहीं
भीष्म-जयी गांडीव
रक्षित नंदी-घोष में
ढाल बना जब क्लीव।
रह कोलाहल-धर्षिता
सांध्य-काकली मौन
हुई विवसना श्यामला
अब वंशीधर कौन।
कौरवता इस दौर में
इतनी हुई असीम
दुःशासन के सामने
बौने अर्जुन-भीम।
नायक-खलनायक हुए
अब इतने समरूप
लगे वक्त का चेहरा
धरे विदूषक रूप।
रहने दो अब मत कहो
दया करो हे व्यास
पिघले शीशे-सा हुआ
रक्त-सना इतिहास।
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