बरगद जलते हैं
काव्य साहित्य | कविता डॉ. राजेन्द्र गौतम11 Feb 2008
इस जंगल में आग लगी है
बरगद जलते हैं
भुने कबूतर शाखों से हैं
टप-टप चू पड़ते
हवन-कुंड में लपट उठे ज्यों
यों समिधा बनते
अंडे-बच्चे नहीं बचेंगे
नीड़ सुलगते हैं
पिघला लावा भर लाई यह
जाती हुई सदी
हिरणों की आखों में बहती
भय की एक नदी
झीलों-तालों से तेज़ाबी
बादल उठते हैं
उजले कल की छाया ठिठकी
काले ठूँठों पर
नरक बना घुटती चीखों से
यह कलरव का घर
दूब उबलती, रेत पिघलती
खेत झुलसते हैं
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