बिजली का कुहराम
काव्य साहित्य | कविता डॉ. राजेन्द्र गौतम16 Oct 2007
डल से
लोहित तक
ये बादल
खबरें ही बरसाते।
रोज़ विमानों से
गिरतीं हैं
रोटी की अफवाहें
किंतु कसे हैं
साँप सरीखी
तन लहरों की बाँहें
अंतरिक्ष से
चित्रित हो हम
विज्ञापन बन जाते।
किस दड़बे में
लाशों का था
सब से उँचा स्तूप
खोज रही हैं
गिद्ध-दृष्टियाँ
अपने-अपने ’स्कूप‘
कितने -
किस्मत वाले हैं हम
मर सुर्खी में आते।
कल तक सहते थे
लूओं का
हम ही कत्ले-आम
आज
हमारी ही बस्ती में
बिजली का कुहराम
बची-खुची साँसें
निगलेंगी
कल पाले की रातें।
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