राजेन्द्र गौतम - 1
काव्य साहित्य | दोहे डॉ. राजेन्द्र गौतम16 Oct 2007
कुछ दोहे इस दौर के, कुछ उस युग की बात
कहें सुने शायद कटे, यह अंधियारी रात
चिड़िया के दो बोल हैं, वेणी के दो फूल
कह छुपा रख दूँ इन्हें, हो न सकें जो धूल
जीवन को महका गए वेणी के जो फूल
उनकी यादों की भरी अब कमरे में धूल
कल सपने में मिल गया वह बचपन नादान
गाड़ी की धकधक सुने धर पटरी पर कान
बीते बरस हजार हैं लेकिन अब तक याद
जंगल की झरबेर का खट्टा-मीठा स्वाद
चल कर रेगिस्तान से, हम भी पहुँचे खूब
पाँवों को झुलसा गई, रिश्तों की मृदु दूब
अपना सब कुछ फूँक हम कब के हुए फ़कीर
तुम्हें न कुछ भी दे सके, क्या अपनी तकदीर
धर कर नभ की देहरी, चंदन, अक्षत, दूब
सूरज सब को नमन कर, गया सिंधु में डूब
भीगी आँखें ताकते दूर तटों से फूल
खंड-खंड जलयान था, डूब गए मस्तूल
रिक्त हुआ मन-पात्र है, या नीला आकाश
ग्रह-नक्षत्रों को मिली, जीवन भर की प्यास
नीली काया वक्त की, लेकिन एक न घाव
डसता पर कब दिखता, काला नाग तनाव
खेत प्यास से जल रहे, झुलसे सब सीवान
पत्थर के गणदेवता, क्या देते वरदान
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अँधियारे उर में भरे, मन में हुए कलेश!!
दोहे | डॉ. सत्यवान सौरभमन को करें प्रकाशमय, भर दें ऐसा प्यार! हर…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- तैर रहे हैं गाँव
- उजाला छिन न पाएगा
- चिड़िया का वादा
- टपक रहीं हैं खपरैलें
- द्वापर-प्रसंग
- पंख ही चुनते रहे
- पाँवों में पहिए लगे
- पिता सरीखे गाँव
- बरगद जलते हैं
- बाँस बरोबर आया पानी
- बाढ़ नहीं यह...
- बिजली का कुहराम
- मन, कितने पाप किए
- महानगर में संध्या
- मुझको भुला देना
- वन में फूले अमलतास हैं
- वृद्धा-पुराण
- शब्द सभी पथराए
- सिर-फिरा कबीरा
- हम दीप जलाते हैं
- क़सबे की साँझ
साहित्यिक आलेख
दोहे
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं