टपक रहीं हैं खपरैलें
काव्य साहित्य | कविता डॉ. राजेन्द्र गौतम16 Aug 2007
इस बादल का जल
काजल-भर
ज्योतित रेख नहीं कोई।
इसके गर्जन से
थर्राता
चिंताकुल बूढ़ा आकाश
लादे है
यह वसुंधरा भी
छाती पर केवल संत्रास
अंधियारे
सब गलियारे हैं
दीपित लेख नहीं कोई।
कीच-भरी
धँसती आँखों सी
टपक रहीं हैं खपरैलें
मन के
सब विश्वास डुबाए
फैले जोहड़ मटमैले
आश्वासन के
दूर क्षितिज तक
अब आलेख नहीं कोई।
अपने संग ले गई
बहा कर
सपने सब जंगली नदी
खड़े तटों पर
बचे लोग
हैं देख रहे डूबती सदी
सुनते भर हैं
गाँव यह था
पाया देख नहीं कोई।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- तैर रहे हैं गाँव
- उजाला छिन न पाएगा
- चिड़िया का वादा
- टपक रहीं हैं खपरैलें
- द्वापर-प्रसंग
- पंख ही चुनते रहे
- पाँवों में पहिए लगे
- पिता सरीखे गाँव
- बरगद जलते हैं
- बाँस बरोबर आया पानी
- बाढ़ नहीं यह...
- बिजली का कुहराम
- मन, कितने पाप किए
- महानगर में संध्या
- मुझको भुला देना
- वन में फूले अमलतास हैं
- वृद्धा-पुराण
- शब्द सभी पथराए
- सिर-फिरा कबीरा
- हम दीप जलाते हैं
- क़सबे की साँझ
साहित्यिक आलेख
दोहे
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं