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नाउम्मीद

सप्ताह भर से पूरे मोहल्ले में दहशत थी . . .

चार लड़कियों की सड़ी-गली अधजली लाशें मिलीं थी नुक्कड़ के मकान की गुमटी से। क्षत-विक्षत देहों की कोई पहचान, कोई शिनाख़्त नहीं हो पाई थी।

कुछ महीनों से चार लड़के रहा करते थे उस मकान में किराए पर। पास-पड़ोस के लोग बस आते-जाते देखते थे उन्हें, कोई मेल-मिलाप न था। कई दिन से किसी ने उन्हें देखा न था। तेज़ दुर्गंध आने पर पड़ोसियों ने पुलिस में रपट की थी। अब समझ आया चारों लड़के फ़रार थे। बहुत खोजबीन के बाद भी कुछ पता न लगा तो पुलिस ने बची-खुची मिट्टी को भी स्वाहा कर दिया। मामले की जाँच की ख़बरें हर चैनल पर थीं। सबके अपने आकलन थे। कोई धर्म तो कोई प्रेम के कोण से देख रहा था।

उस बदनाम मकान के बाहर रौबीली मूँछ को ताव देता सिपाही आज भी खड़ा था पहरे पर। सैर से लौटते, बड़े साहब रोक न पाए अपने आप को और आगे बढ़कर बोल पड़े–

"जय हिंद सिपाही साहेब, कुछ मालूम पड़ा कि वो बदक़िस्मत कौन थीं?"

"जय हिंद साहब, नहीं, और न ही कोई उम्मीद है, हमारे देश में जान सस्ती और इज़्ज़त महँगी हुआ करती है। होंगी किसी ऊँचे खानदान की, जिनके घर से निकलने पर माँ बाप ने न खोज की होगी, न रपट लिखाई होगी, मरा समझ दो दिन उदास हो लिए होंगे शायद।"

"ऐसा क्यों कहते हो भाई?"

"यही सच्चाई है, इस समाज में लड़की अपने मन की करे तो उसे मरा ही मान लिया जाता है। वो चारों शायद इस दुर्गति से काफ़ी पहले ही मर चुकी होंगी।" 

बड़े साहब को न जाने क्या हुआ धम्म से वहीं गिर पड़े।

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