परदेसिन धूप
काव्य साहित्य | कविता शशि पाधा31 Jan 2009
आषाढ़ी नभ के आँगन में
आ बैठी दुल्हन सी धूप
अमलतास के रंगों के संग
घुले मिले चन्दन सी धूप
कोई साँवरिया बादल कब से
मस्ती में था डोल रहा
कभी वो खेले आँख मिचौली
कभी वो घूँघट खोल रहा
नयन झुकाये, बाँह छुड़ाए
छिपे कहाँ हिरणी सी धूप
शाख शाख से डोरी बाँधे
पात-पात से कनक लड़ी
मन्द पवन कंगना खनकाये
पायल छनके रत्नजड़ी
सखि सहेली मिलने आईं
छाँव-छाँव हँसती सी धूप
पर्वत पर पल भर जा बैठी
अम्बर से दो बात करे
नदिया की लहरों संग बहती
मेंहदी वाले पाँव धरे
गले लगी धरती से जैसे
लौटी घर परदेसिन धूप
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