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पुत्र धर्म

वो वृद्धाआश्रम के बाहर, मेन गेट के बाएँ ओर पीपल के वृक्ष के नीचे बिछी सीमेंट की मैली-सी बेंच पर आकर बैठ जाते और खुली आँखों से आते-जाते लोगो के देखते रहते। ये उनका नित्य का कर्म सा बन गया था। उनकी निगाहें राह तकती एक टक..., शायद उन्हें किसी ख़ास व्यक्ति का इंतज़ार था।

एक दिन समय निकालकर मैं उनसे मुलाकात कर बैठा और पूछ बैठा- "आप रोज़ अकेले यहाँ आकर बैठ जाते हो, किसी का इंत्ज़ार है या...........?"

"हाँ, लेकिन किसी और का नहीं, मेरे बेटे का।"

"वो कहाँ है?"

"अमेरिका।"

"कुछ काम-धाम..................?"

क्टर है, उसका ही रोज इंतज़ार करता हूँ, शायद वह आयेगा और मुझे वृद्धाआश्रम से निकालकर अपने साथ ले जायेगा। अब मेरा यहाँ दम घुटता है।"

मेरी आँखें उनकी अन्दर धँसी आँखों पर जा टिकीं, जहाँ से दर्द आँसू बनकर सिलवट पड़े गालों पर आकर उन्हीं सिलवटों में समा गये।

कुछ दिनों बाद वह दिन भी आया, जब उनका बेटा वृद्धाआश्रम में आया, लेकिन उनको लेने नहीं, कफ़न में लिपटी उनकी लाश को लेने और अपना पुत्र धर्म अदा करने।

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