शाम का प्रहर
काव्य साहित्य | कविता जितेन्द्र मिश्र 'भरत जी'15 Feb 2021
शाम धीरे-धीरे गुज़र
समय थोड़ा-थोड़ा ठहर।
हवा धीरे-धीरे गुज़र,
चाँद धीरे-धीरे निकल।
सूर्य देखो छिप रहा,
दिन का प्रहर गया।
दिन की भागदौड़ से,
आदमी ठहर गया।
शाम का सुहानापन,
मन को सबके भा गया।
सब थकान मिट गई,
सुखद दृश्य छा गया।
दिन के बाद शाम है,
फिर निशा तो आएगी।
प्रहर यूँ चलते रहेंगे,
ज़िंदगी कट जाएगी।
शाम धीरे-धीरे गुज़र...॥
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