ठंडी सी छाँव
काव्य साहित्य | कविता शशि पाधा20 Nov 2007
दुर्गम पथ और भरी दोपहरी
दूर है मेरा गाँव,
थका बटोही मनवा चाहे
रिश्तों की ठंडी सी छाँव
पगडंडी पर चलते चलते
कोई तो दे अब साथ,
श्वासों में जब कम्पन हो तो,
कोई थाम ले हाथ ।
निर्जन मग, चंदा छिप जाए
जुगनु सा जल जाए कोई,
भूलूँ जब भी राह डगर मैं
तारा बन मुसकाए कोई ।
गोदी में सर रख ले जब
कोई काँटा चुभ जाए पाँव ।
दूर बसेरा और शिथिल हो गात
नीरव मूक खड़ी हो रात,
बीहड़ जंगल, घना हो कोहरा
अँधियारे में धुँधला प्रात
कारी बदली आकर ढक दे
नभ की तारावलियाँ जब
भूलूँ पथ, भूलूँ मैं मंज़िल
भूलूँ अपनी गलियाँ जब
कोई मुझे आह्वान दे
जब भूलूँ अपना नाँव
थका बटोही मनवा चाहे,
रिश्तों की ठंडी सी छाँव
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
पुस्तक समीक्षा
कविता
सामाजिक आलेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं