आज जब गूँगा हृदय है, मैं सुरों को साध कर भी क्या करूँगा?
काव्य साहित्य | कविता सुरेन्द्रनाथ तिवारी17 May 2012
आज जब गूँगा हृदय है, मैं सुरों को साध कर भी क्या करूँगा?
गीत के अंकुर दबे हैं जिन्दगी के पत्थरों में,
अब नहीं खिलती द्रुमों में वे नई कलियाँ रुपहरीं।
साँझ में पीपल मगन हो अब नहीं है गुनगुनाता,
और बरगद के तले थक, अब नहीं सोती दुपहरी।
पत्थरों में जड़ गईं हैं जिन गुलाबों की जड़ें अब,
अश्रुकण से भी उन्हें आबाद कर मैं क्या करूँगा?
आज जब गूँगा हृदय है, मैं सुरों को साध कर भी क्या करूँगा?
डाल पीपल की जहाँ थे घोसले हमने बनाये।
मुक्त वह आकाश जिसमें पंख हमने फड़फड़ाये।
डर गये हैं हम परन्तु वे प्रतीक्षा में हमारी,
हैं अभी भी गुनगुनाते, है पलक अब भी बिछाये।
कैद हैं जो जिन्दगी की जालियों में मुद्दतों से,
परकटी उन पाखियों को, मै भला आजाद कर भी क्या करूँगा?
आज जब गूँगा हृदय है, मैं सुरों को साध कर भी क्या करूँगा?
थरथराती है जमीं और डोलता ये आसमाँ है,
हैं समन्दर ने डुबोये बाँध सारे साहिलों के।
स्वप्न सारे ढ़ह गये हैं, नीड़ अपने बह गये हैं,
खुद खुदा ने तोड़ डाले कलश अपने मन्दिरों के।
जब खुदा खुद ही बना सैयाद हो तो,
तुम बताओ, मैं भला फरियाद कर भी क्या करूँगा?
आज जब गूँगा हृदय है, मैं सुरों को साध कर भी क्या करूँगा?
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