चलो, चलें अब शाम हो गई
काव्य साहित्य | कविता सुरेन्द्रनाथ तिवारी18 Apr 2014
चलो, चलें अब शाम हो गई।
जीवन के पत्थर पर मैंन, जिस तूली से चित्र उकेरे,
कुछ आँसू से, मुस्कानों से जिन पन्नों पर रंग बिखेरे।
सुनता हूँ वह पृष्ठ खॊ गया,
वह तूली निलाम हो गई।
चलो, चलें अब शाम हो गई।
जिन कूचों पर छिपकर, हमने पहली प्रणय कथा लिखी थी,
जिन लड़कों के साथा टाट पर हमने रामायण सीखी थी।
गुल्ली-डंडा, धमाचौकड़ी में भी राम नहीं भूलें हम,
क्योंकि गली के हर पत्थर पर, ईश्वर की मूर्ति रखी थी।
सुनता हूँ वे कूछे ढह गये,
वे लड़के सब नेता बन गये,
वे गलियाँ बदनाम हो गईं।
चलो, चलें अब शाम हो गई।
जिन साँसों के बल पर हमने, कभी बजाई रण्भेरी थी,
जिनमें भर कर प्यास रास की, राधा को बंशी टेरी थी।
जिनमें थी भंगिमा गीत की, ह्स्व दीर्घ थे उठते-गिरते।
लोच भरी सरगम बन जातीं, जिनसे कवितायें मेरी थीं।
वही अनवरत चलने वाली
साँसें पूर्ण विराम हो गईं।
चलो, चलें अब शाम हो गई।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
स्मृति लेख
कविता
- अमीरों के कपड़े
- आओ, लौट चलें अब घर को
- आज जब गूँगा हृदय है, मैं सुरों को साध कर भी क्या करूँगा?
- आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिय देखो ज़रा
- इस पाप-पुण्य के मंथन में
- एक गीत लिखने का मन है
- एक मीठे गीत-सी तुम
- कुछ तो गाओ
- गीत क्या मैं गा सकूँगा
- गीत ढूँढें उस अधर को...
- गीत तो हमने लिखे हैं हाशिये पर ज़िन्दगी के
- गीत मैं गढ़ता रहा हूँ
- चलो, चलें अब शाम हो गई
- वह कविता है
- स्मृतियों के वातायन से
- स्वागत है नई सदी का
कहानी
ललित निबन्ध
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं