गीत ढूँढें उस अधर को...
काव्य साहित्य | कविता सुरेन्द्रनाथ तिवारी18 Apr 2014
गीत ढूँढें उस अधर को, जो उन्हें सरगम बना दे।
ज़िंदगी की बीन के निश्चेत तारों को जगाए,
ज्यों पुलक मधुयामिनी में रजनीगंधा मुस्कुराए
ज्यों समंदर की लहर को गुदगुदाती चाँदनी है
वह अधर-स्पर्श, मेरे प्राण यूँ ही गुदगुदाए।
चेतना के अंकुरण ये ढूँढते स्नेहिल घटा वह
प्रीत से जो पाठ इनको स्नेह के शतदल बना दे
स्नेह से जो सींच इनको प्रीत के पाटल बना दे।
गीत ढूँढें उस अधर को, जो उन्हें सरगम बना दे।
वज्रवंशी पत्थरों में भी छिपी हैं अहिल्याएँ
गर नज़र हो राम की तो, ढूँढ लेती गौतमी को।
स्नेह-करुणा से भरा जब हृदय होता आदमी का,
आदमी भी ढूँढ लेता पत्थरों में आदमी को।
ठोकरें झेलीं बहुत हैं ज़िंदगी ने राम मेरे
चाहता पाहन परस वह, जो उसे पारस बना दे।
गीत ढूँढें उस अधर को, जो उन्हें सरगम बना दे।
मलय-तरुवी से लिपट ज्यों पवन है होता सुवासित
उस अधर से लिपट मेरे गीत भी लयमय बनेंगे।
ज़िंदगी के कंटकों से बिंध जो मृण्मय बन गए थे,
उस गुलाबी स्पर्श से वे आज फिर चिन्मय बनेंगे।
यूँ तो हैं कितने झकोरे ज़िंदगी की वाटिका में
चाहती साँसें पवन वह जो उन्हें परमिल बना दे।
गीत ढूँढें उस अधर को, जो उन्हें सरगम बना दे।
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