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गीत मैं गढ़ता रहा हूँ

उम्र की इस उदधि के उस पार लहराता जो आँचल,
रोज सपनों में सिमट कर प्रिय लजाती है जो काजल,
दामिनी सी दमकती है दंत-पंक्ति जो तुम्हारी,
जल-तरंगों सी छमकती छ्म-छमाछम-छम जो पायल।
 
उर्वशी सी देह-यष्टि जो बसी मानस-पटल पर,
कल्पना के ये मणिक उस मूर्ति में मढ़ता रहा हूँ।
गीत मैं गढ़ता रहा हूँ
 
अप्रतिम वह देह-सौष्ठव, अप्रतिम तन की तरलता।
काँपती लौ में हो जैसे अर्चना का दीप बलता।
मत्त, मद, गजगामिनी सी गति तुम्हारी मदिर मोहक.
बादलों के बीच जैसे पूर्णिमा का चाँद चलता।
 
चेतना के चित्र-पट पर भंगिमा तेरी सजाकर,
हर कुँआरी लोच में प्रिय, रंग मैं भरता रहा हूँ।
गीत मैं गढ़ता रहा हूँ
 
गीत तो हमने लिखे हैं ज्योति के नीवि अमा में।
इसलिये कि पढ़ सको तुम विरह यह उनकी विभा में।
हैं तो साजो-सोज कितने, कंठ पर अवरुद्ध सा है,
क्या सुनाऊँ गीत जब तुम ही नहीं हो इस सभा में।
 
जहाँ पन्नों में गुलाबों को छुपा तुमने रखा था,
प्रणय के वे बंद पन्ने, रात-दिन पढ़ता रहा हूँ।
गीत मैं गढ़ता रहा हूँ

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