अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

स्मृतियों के वातायन से

(साभार- उठो पार्थ! गाँडीव संभालो!)


जीवन के सूने क्षण में,
प्रिय तेरी याद सताती!
मादक पूनम में भीगी
जब रात रही शरमाती!


धरती में मौन गगन में,
जब वासंती लहराती!


स्मृतियों के दूर क्षितिज पर
प्रिय तुम आकर मंडराते।
इस शुष्क-तप्त उपवन में
कोकिला मत हो गाती।


जीवन के सूने क्षण में,
प्रिय तेरी याद सताती!


जब मौन गगन में शशि हँसता,
ग्रीवा में पूनम-पाश लिए
नन्हीं कलियाँ शरमा जातीं,
अधखुले अधर पर हास लिए!


मैं विकल सुना करता तट पर,
उस नन्हीं-सी सरिता का स्वर।
पागल हो जाता हूँ
जलता-सा अभिलाषा लिए।


कितनी मीठी, कितनी स्वप्निल,
हैं ये यादें मदमाती!


जीवन के सूने क्षण में,
प्रिय तेरी याद सताती!


इस अर्ध-निशा में, पूनम में,
मैं मत्त विकल होकर गाता!
मैं मौन सरित के तीरों पर
जब स्मृतियों में खो जाता।


मानस के दूर क्षितिज पर, तब
तुम विहंस-विहंस क्यों उठते हो
मैं विकल हुआ जाता हिय में,
उफ़! मादक दर्द उभर आता।


स्मृतियों के इस अवगुंठन में
तेरी वह स्मिति अवचेतन,
मन के सूखे पल्लव दल को
ज्यों मलय पवन दुलराती।


जीवन के सूने क्षण में,
प्रिय तेरी याद सताती!

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

स्मृति लेख

कविता

कहानी

ललित निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं