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बस्ता

 
(स्त्री दिवस के उपलक्ष्य में)
 
हर एक स्त्री, की पीठ, 
पर एक बस्ता है
जिसमें छिपे हैं
उसके दुख, दर्द
और चिंताएँ
कभी कभी
न चाहते हुए भी
दर्द को न दिखाते हुए भी, 
सब छिपाते हुए भी
हर एक स्त्री को
ये ढोना पड़ता है।
 
कभी ये भरा होता है
उन अधूरे सपनों से
जिन्हें पूरा करने
से पहले ही उसने
छुपा दिया इस बस्ते में, 
कभी इस बस्ते से
एक धीमी सी
आवाज़ सुनाई देती हैं
विद्रोह की, 
जो कभी बाहर न
आ सकी, इस बस्ते से
कभी लड़की होने का
भार, तो कभी
रिश्तों की मार
सब बंद है
इस बस्ते में, 
सूरज रोज़, चढ़ता है
ढलता है, पर स्त्री के
इस बस्ते का भार
नहीं बदलता है। 
 
अब ज़माना नया है
बस्ते का स्वरूप
बदलना होगा, 
बस्ते को अब
पीछे पीठ पर नहीं
आगे हाथ में
पकड़ना होगा, 
जो छिपाया बस्ते में
अब तक
उसे उसी बस्ते में
छिपी क़लम से
काग़ज़ पर उकेरना होगा
स्त्री को अब अबला से
सबल बनना होगा, 
निराशा की निशा
को अब आशा की
अनिशा में बदलना होगा, 
बस बहुत हो गया
अब, अब किसी भी
स्त्री को ये बस्ता
अपनी पीठ पर न ढोना होगा। 
हमें अपने सपनों के लिए
ख़ुद ही लड़ना होगा। 

 

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