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स्त्री

 

(स्त्री दिवस के उपलक्ष्य में)


चूल्हा मिट्टी का हो या गैस का
रोटी बनाते समय
उँगलियाँ मेरी ही जली हैं
जली उँगलियों के साथ
चेहरे पर मुस्कान के लिए
तुम्हारी स्वादिष्ट थाली
मैंने ही हमेशा सजाई है
 
जब जाते तुम काम पर
सारे दिन की थकान भूला
शाम को दरवाज़े पर मेरी ही
निगाहें तुम्हें खोजती हैं
 
गर्भ धारण से लेकर
प्रसव पीड़ा तक
सब सह लेती हूँ मैं
एक तुम्हारे भरोसे
 
तानों से छलनी हुए
हृदय में भी
तुमको नर्म और गर्म
कोना देती हूँ मैं
 
सिर्फ़ एक बेटी ही नहीं
बहू, पत्नी, माँ न जाने
एक ही पल में
कितने रिश्तों को
जीती हूँ मैं
 
कभी चौपड़ में दाँव लगने को बाध्य
कभी धरा में समाने की मजबूरी
हर बार मैं ही छली जाती हूँ
हर बार कुलटा, चरित्रहीन
मैं ही कहलाती हूँ
 
फिर भी हर बार
एक नये जन्म में
फिर से धरती पर आती हूँ
क्यों कि मुझे पता है
जिस दिन मेरा अस्तित्व
ख़त्म हो जाएगा
पुरुष तुम और तुम्हारा पौरुष
भी अर्थ हीन हो जाएगा . . . 

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